आत्मविश्वास से भरी भाजपा का भुवनेश्वर मंथन
राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक : पूरे देश में भगवा फहराने की तैयारी
-संजय द्विवेदी
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की बड़ी चुनावी सफलताएं पाकर भाजपा ने देश के राजनीतिक मैदान में एक बड़ी छलांग लगा दी है। आत्मविश्वास से भरी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दिनांक 15,16 अप्रैल,2017 को भुवनेश्वर में हो रही है। जाहिर तौर पर अब भाजपा का अगला दांव उड़ीसा पर है, जहां पांव परासने के लिए उसने अपने दिग्गज मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को लगाया है। केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान भाजपा की युवा टीम का एक ऐसा चेहरा हैं जिन पर भाजपा भरोसा कर सकती है। उड़ीसा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के विशेष अर्थ हैं और इन दिनों उड़ीसा में जिला पंचायतों के चुनाव जीतकर भाजपा के हौसले आसमान पर हैं। उड़ीसा से लगे छत्तीसगढ़ में अरसे से भाजपा की सरकार है और वहां के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और उनकी सरकार के द्वारा किए जा रहे विकास के काम उड़ीसा तक पहुंचते रहे हैं। सही मायने में भाजपा का रथ अब उड़ीसा के बाद दक्षिण भारत विजय पर निकलेगा। उत्तर प्रदेश की जीत ने भाजपा को बड़ा भरोसा दिया है क्योंकि 2014 का लोकसभा चुनाव और 2017 का विधानसभा चुनाव जीतकर उसने साबित कर दिया है कि अब वह अकेले दम पर राज्यों की सत्ता में काबिज हो सकती है,साथ ही अपनी जीत में निरंतरता भी बनाए रख सकती है।
उड़ीसा में धर्मेंद्र का चेहरा और सौदान सिंह की रणनीतिः
उड़ीसा में हो रही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दरअसल भाजपा के वैचारिक- भौगोलिक विस्तार की ही एक कड़ी है। केंद्रीय मंत्री श्री धर्मेंद्र प्रधान जैसे नेता को राज्य में उम्मीदों का एक चेहरा माना जा रहा है। अपनी लंबी वैचारिक-सांगठनिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते वे इसके लिए एक उपयुक्त पात्र हैं। छत्तीसगढ़ में भाजपा का कमल खिलाने के बाद अनेक राज्यों में अपनी संगठन शक्ति का लोहा मनवाने में सफल रहे राष्ट्रीय सहसंगठन मंत्री सौदान सिंह ने जिस तरह से उड़ीसा में अपनी सक्रियता से अपेक्षित परिणाम दिए हैं, उससे भाजपा की महत्वाकांक्षी सोच का पता चलता है। आने वाले समय में भाजपा के लिए उड़ीसा एक महत्व का राज्य है, जहां उसे कमल खिलाने के सुअवसर दिखने लगे हैं। आत्मविश्वास से भरी भाजपा और उसके अध्यक्ष श्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा अगर ये सपने देख रही है तो इसमें गलत क्या है। शायद इसीलिए उड़ीसा में बीजद के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक अब विपक्षी एकता की बात करने लगे हैं। पूर्वोत्तर भारत के दो राज्यों असम और मणिपुर में सरकार बना चुकी भाजपा के सामने इस समय उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और दक्षिण के राज्य निशाने पर हैं। उसे अपने सामाजिक, भौगोलिक विस्तार के साथ-साथ राजनीतिक विस्तार की भी चिंता है। उड़ीसा में बड़ी संख्या में उपस्थित आदिवासी समाज के लोगों की पैठ भी भाजपा की उम्मीदों का एक बड़ा कारण है। आदिवासी समाज के बीच संघ परिवार और वनवासी कल्याण आश्रम की सक्रियता भाजपा को शक्ति देती है। इसी बीच छत्तीसगढ़ के आदिवासी नेता नंदकुमार साय को राष्ट्रीय अनूसूचित जाति-जनजाति आयोग का अध्यक्ष बनाकर आदिवासियों को संदेश दिया है। कांग्रेस के कमजोर पड़ते गढ़ों में काबिज होने के बाद अब भाजपा के निशाने पर क्षेत्रीय दल हैं। उत्तर प्रदेश में दो क्षेत्रीय पार्टियों को अलग कर उसने सत्ता का वरण किया है तो गोवा में, मणिपुर की सत्ता भी उसने छीनी है। महाराष्ट्र में शिवसेना और राकांपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को नगर निगम चुनावों में भाजपा ने समेट दिया है। जाहिर तौर पर इस समय भाजपा का अश्वमेध विजययात्रा है, फिलहाल तो इसे रोकने वाली शक्तियां मैदान में नहीं दिखतीं।
अब मोदी हुए उदारः
उत्तर प्रदेश की ‘आदित्यनाथ परिघटना’ दरअसल भाजपा की वैचारिक हीनग्रंथि से मुक्ति को स्थापित करती नजर आती है। नरेंद्र मोदी के राज्यारोहण के बाद योगी आदित्यनाथ का उदय भारतीय राजनीति में एक अलग किस्म की राजनीति की स्वीकृति का प्रतीक है। एक धर्मप्राण देश में धार्मिक प्रतीकों, भगवा रंग, सन्यासियों के प्रति जैसी विरक्ति मुख्यधारा की राजनीति में दिखती थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। भाजपा जैसे दल भी इस सेकुलर विकार से कम ग्रस्त न थे। धर्म और धर्माचार्यों का इस्तेमाल, धार्मिक आस्था का दोहन और सत्ता पाते ही सभी धार्मिक प्रतीकों से मुक्ति लेकर सारी राजनीति सिर्फ तुष्टीकरण में लग जाती थी। प्रधानमंत्रियों समेत जाने कितने सत्ताधीशों के ताज जामा मस्जिद में झुके होगें, लेकिन हिंदुत्व के प्रति उनकी हिचक निरंतर थी। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं की एक समय में दीनदयाल जी उदार थे, तो अटलजी और बलराज मधोक अपनी वक्रता के चलते उग्र नेता माने जाते थे। अटलजी का दौर आया तो लालकृष्ण आडवाणी उग्र कहे जाने लगे, फिर एक समय ऐसा भी आया जब आडवानी उदार हो गए और नरेंद्र मोदी उग्र मान जाने लगे। आज की व्याख्याएं सुनें- नरेंद्र मोदी उदार हो गए हैं और योगी आदित्यनाथ उग्र माने जाने लगे हैं। यह मीडिया, बौद्धिकों की अपनी रोज बनाई जाती व्याख्याएं हैं। लेकिन सच यह है कि अटल, मधोक, आडवानी, मोदी या आदित्यनाथ कोई अलग-अलग लोग नहीं है। एक विचार के प्रति समर्पित राष्ट्रनायकों की सूची है यह। इसमें कोई कम जा ज्यादा उदार या कठोर नहीं है। किंतु भारतीय राजनीति का विमर्श ऐसा है जिसमें वास्तविकता से अधिक ड्रामे पर भरोसा है। भारतीय राजनेता की मजबूरी है कि वह टोपी पहने, रोजा भले न रखे किंतु इफ्तार की दावतें दे। आप ध्यान दें सरकारी स्तर पर यह प्रहसन लंबे समय से जारी है। भाजपा भी इसी राजनीतिक क्षेत्र में काम करती है। उसमें भी इस तरह के रोग हैं। वह भी राष्ट्रनीति के साथ थोड़े तुष्टिकरण को गलत नहीं मानती। जबकि उसका अपना नारा रहा है सबको न्याय, तुष्टिकरण किसी का नहीं। उसका एक नारा यह भी रहा है-“राम, रोटी और इंसाफ। ”
वैचारिक राजनीति पर गर्व करती भाजपाः
लंबे समय के बाद भाजपा में अपनी वैचारिक लाइन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। असरे बाद वे भारतीय राजनीति के सेकुलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े दिख रहे हैं। समझौतों और आत्मसमर्पण की मुद्राओं के बजाए उनमें अपनी वैचारिक भूमि के प्रति हीनताग्रंथि के भाव कम हुए हैं। अब वे अन्य दलों की नकल के बजाए एक वैचारिक लाइन लेते हुए दिख रहे हैं। दिखावटी सेकुलरिज्म के बजाए वास्तविक राष्ट्रीयता के उनमें दर्शन हो रहे हैं। मोदी जब एक सौ पचीस करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करते हैं तो बात अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक से ऊपर चली जाती है। यहां देश सम्मानित होता है, एक नई राजनीति का प्रारंभ दिखता है। एक भगवाधारी सन्यासी जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठता है तो वह एक नया संदेश देता है। वह संदेश त्याग का है, परिवारवाद के विरोध का है, तुष्टिकरण के विरोध का है, सबको न्याय का है। आजादी के बाद के सत्तर सालों में देश की राजनीति का विमर्श भारतीयता और उसकी जड़ों की तरफ लौटने के बजाए घोर पश्चिमी और वामपंथी रह गया था। जबकि बेहतर होता कि आजादी के बाद हम अपनी ज्ञान परंपरा की और लौटते और अपनी जड़ों को मजबूत बनाते। किंतु सत्ता,शिक्षा, समाज और राजनीति में हमने पश्चिमी तो, कहीं वामपंथी विचारों के आधार पर चीजें खड़ी कीं। इसके कारण हमारा अपने समाज से ही रिश्ता कटता चला गया। सत्ता और जनता की दूरी और बढ़ गयी। सत्ता दाता बन बैठी और जनता याचक। सेवक मालिक बन गए। ऐसे में लोकतंत्र एक छद्म लोकतंत्र बन गया। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हम सत्तर साल के बाद सड़कें बना रहे हैं। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हमारे अपने नौजवानों ने भारतीय राज्य के खिलाफ बंदूकें उठा रखी हैं। लोकतंत्र की विफलता की ये कहानियां सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं। राजनीतिक तंत्र के प्रति उठा भरोसा भी साधारण नहीं है।
उत्तर प्रदेश ने दिया भरोसाः
उत्तर प्रदेश अरसे बाद एक ऐसे मुख्यमंत्री से रूबरू है, जिसे राजनीति के मैदान में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। उनके बारे में यह ख्यात था कि वे एक खास वर्ग की राजनीति करते हैं और भारतीय जनता पार्टी भी उनकी राजनीतिक शैली से पूरी तरह सहमत नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भारी विजय के बाद भाजपा ने जिस तरह का भरोसा जताते हुए राज्य का ताज योगी आदित्यनाथ को पहनाया है, उससे पता चलता है कि ‘अपनी राजनीति’ के प्रति भाजपा का आत्मदैन्य कम हो रहा है। भाजपा का आज तक का ट्रैक हिंदुत्व का वैचारिक और राजनीतिक इस्तेमाल कर सत्ता में आने का रहा है। देश की राजनीति में चल रहे विमर्श में भाजपा बड़ी चतुराई से इस कार्ड का इस्तेमाल तो करती थी, किंतु उसके नेतृत्व में इसे लेकर एक हिचक बनी रहती थी। वो हिचक अटल जी से लेकर आडवानी तक हर दौर में दिखी है। भाजपा का हर नेता सत्ता पाने के बाद यह साबित करने में लगा रहता है वह अन्य दलों के नेताओं के कम सेकुलर नहीं है।
आकांक्षावान भारत का उदयः
बावजूद इसके 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम एक उम्मीद का अवतरण भी हैं। वे आशाओं, उम्मीदों से उपजे परिणाम हैं। नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ इन्हीं उम्मीदों के चेहरे हैं। दोनों अंग्रेजी नहीं बोलते। दोनों जन-मन-गण के प्रतिनिधि है। यह भारतीय राजनीति का बदलता हुआ चेहरा है। क्या सच में भारत खुद को पहचान रहा है ? वह जातियों, पंथों, क्षेत्रों की पहचान से अलग एक बड़ी पहचान से जुड़ रहा है- वह पहचान है भारतीय होना, राष्ट्रीय होना। एक समय में राजनीति हमें नाउम्मीद करती हुयी नजर आती थी। बदले समय में वह उम्मीद जगा रही है। कुछ चेहरे ऐसे हैं जो भरोसा जगाते हैं। एक आकांक्षावान भारत बनता हुआ दिखता है। यह आकांक्षाएं राजनीति दलों के एजेंडे से जुड़ पाएं तो देश जल्दी और बेहतर बनेगा। राजनीतिक विमर्श और जनविमर्श को साथ लाने की कवायद हमें करनी ही होगी।
( लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)