दस्तक-विशेषसाहित्य

आर न पार (कहानी)

जीवन सत्य है और मृत्यु उस सत्य का अंत। हम उम्र भर जिसे छाया या छलावा समझते रहते हैं, वास्तव में वही सच है, अंतिम सच। इस सच को हम जीते जी झेलते रहते है, न मर कर भी रोज मरते हैं। फिर भी कुछ यादें अपरोक्ष रूप से मस्तिष्क की खूँटी पर टंगी रह जाती हैं और उतरती ही नहीं। कारगिल शब्द आम-जनता के लिए एक शब्दमात्र बन कर जिन्दा है पर उस के लिए वह शब्द चिता-समान धू-धू कर आज तलक जल रहा है जो उस के महेन को लील गया। महेन की उस मृत घायल देह के सत्य से क्यों आज तक वह उस के जाने का चिरतंन सत्य आत्मसात नही कर पाई।

-सुदर्शन प्रियदर्शिनी

निर्भय आकाश के नीचे और साफ-सुथरी करीने से कटी घास पर वह पसरी हुयी थी। ऊपर आकाश का चँदोवा उसे ताक रहा था। वह सोच रही थी क्या उसके घर देहरादून में भी आकाश ऐसा ही दिखता होगा – इतना स्वच्छ, इतना नीला और इतना पारदर्शी। शायद हाँ, शायद नहीं। वहां तो अक्सर जब मंसूरी में बादल घिरते तो देहरादून की मसें भीगने लगती। आकाश की नीलाई छुप कर एक रोमानी सा वातावरण बना देती।
वह बेसुध सी घास पर लोटने-पलौटने लगी। कभी -कभी उसे लगता है कि जिंदगी पास से कंधे उचकाती फर्राटे से गुजरी जा रही है और कह रही है-मैं तो जिन्दा हूँ-पर तुम नहीं। इन सन्नाटों ने तो उस का जीना भुला दिया है। जिंदगी के पिछले पंद्रह वर्ष एक-एक कर के उसे अपने बाहों में जकड़ते चले गए और उसे पता भी नहीं चला। वह हर समय बस बच्चों को याद कर-कर के और अपने घर को लेकर सुबकती रही है। अपने उस घर को जिस के मुख्य द्वार से एक दिन उसके महेन की अर्थी अंदर आई थी और फिर बाहर लौट गई। उस दिन की स्मृतियाँ कहीं सारी कायनात को धूमिल कर जाती हैं। उस दिन तो उस के लिए उगा-उगाया सूरज डूब गया था और बादलों की ओट में सदैव के लिए छिप गया था। मिलिट्री के कैप्टन विनोद ने महेन की शान में प्रशंसा की झड़ी लगा दी थी। बाकी लोग भी महेन की दयाद्र्रता, वीरता और मानवीयता की दुहाई देते रहे पर उसे वह सब कुछ इतना याद नहीं आता जितना उस की आँखों में बची है-उस पार्थिव शरीर की विदाई, जो आज तक उस की आँखों की नमी बन कर पलकों के नीचे दबी पड़ी है।
अच्छा ही है कि अब उसे उस घर में नहीं जाना पड़ेगा क्योंकि बेटी ने कहा है-नए घर की छत पड़ रही है। इस नए घर में महेन की अर्थी कभी न आएगी-न जाएगी। अब वह केवल उस की मानसी आँखों में प्रेत की छाया बन कर अपने सदय-मनुहार के साथ जिन्दा रहेगी। निम्मी सोचती है, महेन के जाने के छ: महीने बाद ही वह वहां से चली आई थी। वहां से पलायन का यही बड़ा कारण था। जब महेन के दोस्त विनय ने अपने छोटे भाई के साथ अमेरिका में अपनी माँ की देख-रेख के लिये सहायता करने का आग्रह किया केवल दो तीन माह के लिए। तब तक उस के अंदर के तूफ़ान थमे नहीं थे। वह घर, दीवारें सब कुछ काटने को दौड़ती थीं। बच्चे भी कहीं परिपाश्र्व में चले गये थे। बड़े जेठ-जिठानी ने बच्चों की देख रेख का आश्वासन दे-दे कर इस निर्णय को दृढ़ कर दिया था। उन्होंने कहा-बहू ! क्यों भूल रही हो यह हमारे महेन के बच्चे हैं, हम इन्हें संभाल लेंगे, और उन्होंने संभाला भी। तब वाणी बारह साल की और अवध केवल नौ साल का था।
जीवन सत्य है और मृत्यु उस सत्य का अंत। हम उम्र भर जिसे छाया या छलावा समझते रहते हैं, वास्तव में वही सच है, अंतिम सच। इस सच को हम जीते जी झेलते रहते है, न मर कर भी रोज मरते हैं। फिर भी कुछ यादें अपरोक्ष रूप से मस्तिष्क की खूँटी पर टंगी रह जाती हैं और उतरती ही नही। कारगिल शब्द आम-जनता के लिए एक शब्द मात्र बन कर जिन्दा है पर उस के लिए वह शब्द चिता-समान धू-धू कर आज तलक जल रहा है जो उस के महेन को लील गया। महेन की उस मृत घायल देह के सत्य से क्यों आज तक वह उस के जाने का चिरतंन सत्य आत्मसात नही कर पाई। उम्र भर वह उस दृश्य के अहसास को कांख में दबाये-आँखों को मीचती-भींचती रही है कि वह तस्वीर पलकों की बरौनियों तक न पहुंचे। आज तक उस स्मृति को अंदर की कोठरी में रख जीती रही-मरती रही। जब आँखें मिचमिचाने लगें और सांसें फड़फड़ाने लगें तो आसमान का विस्तार बढ़ जाता है और अपना घेरा छोटा पड़ता जाता है।
उस के अंदर का सन्नाटा धुंआँसा सा होकर बाहर निकल रहा है। प्रकृति की आँखों पर जैसे मोतिया उतर आया है। सब कुछ धुंध में लिपटाया सा है और फीकी नंगी पेड़ों की टहनियों में हवा कसमसा कर धीरे-धीरे कराह रही है। छतों का रंग स्लेटी से सफेद होने को है। बर्फ की बारीक फुनगियां-पानी की बूंदों सी टपक रही हैं। पास ही परेम में शशि स्वच्छ हवा के झोंकों में मुस्करा रहा है। वह तो जैसे उसे भूल ही गई थी।
घर कब लौटोगी! घर जल्दी लौट जाऊँगी! अब छत पड़ रही है नए घर की। बहुत अच्छा है निम्मी! अपने घर लौट जाओ। मैं भी बेघर हो गया हूँ। सदा तुम्हें ढूंढता रहता हूँ। दूसरों के घरों में तुम्हे लुढ़कते, फिसलते देखते मेरा मन दुखता है।
उस ने आँखें खोली-वह स्तब्ध रह गई और उठ कर बैठ गई-इधर उधर देखने लगी। ओह! यह तो महेन की आवाज थी! पर महेन की आवाज कहाँ से आयी। तो महेन भी चाहते हैं-मैं लौट जाऊं ! वह अपने आप में कसमसाने लगी। एक महीने के लिए आई थी और आज पन्द्रह साल हो गए। वह भी एक अवैध नागरिक की छुपन-छुपाई खेलते-खेलते। यहाँ न जाओ, यह न करो, वह न करो। इस से नही मिल सकती-उस के पास नहीं जा सकती। किसी अत्याचार की रिपोर्ट न लिखवाओ। सब कुछ बस कड़वा घूँट समझ कर पीयो और जीयो।
एक क्रूर निराशा उस के मानस को लील गई है और इसी लिए वह भावों में भी अभाव ढूंढने लगी है। इच्छाओं में अनिच्छाएं, जल में रेगिस्तान और मुस्कानों के पीछे छिपे-आंसू तलाशती रहती है। सारांशत: होनियों में अनहोनियां ढूढ़ने की लत पड़ गई है। इसी भटकन में पिछले पंद्रह साल से वह भटक रही है। उसे लगता है उस पर तिजारती दुनिया का मुलम्मा चढ़ गया है। वह भी बच्चों की जरूरतें पूरी करते-करते बेहद लालची हो गई है। पर दूसरी ओर वह जाने के साधन ढूँढती है तो कहने वाले यह भी कहते हैं,’ क्यों यहाँ का पैसा और उससे प्राप्त ऐय्याशी को छोड़ कर बदहवासी गले लगाना चाहती हूँ।’
कभी किसी ने सोचा है कि ऊंची आवाजों और चीखों से महल नही ढहते पर धीमे कहे गए गहरे शब्दों से उन की नींव हिल जाती है। वह उम्र भर अपने शहर नुमा गाँव में ऊंची-ऊंची चिल्लाहटों में सुने गए सर फाड़ शब्दों को सुनने के बाद भी उन घरो में संध्या में गुलगुलों और पकोड़ों के साथ होती रुनझुन हंसी और कहकहे सुनती रही है और कुछ भी नहीं टूटा-पर यहाँ फुसफुसाहटों में धीमे से कहे शब्दों ने भी कांच की दीवारों में दरार डाल दी। हम आप के लिए अलग घर बनवा देंगे। अभी आप दो तीन साल और वहां रह सको तो! बेटी के शब्द मन के कांच में दरार बन गए और वह एक बार फिर लहूलुहान हो गई है क्योंकि एक बार बेटा भी यही कह चुका है।
कुछ सम्बन्ध ऐसे होते हैं जो कट तो सकते हैं पर टूट नहीं सकते। छाया की तरह साया बन कर पीछे चलते हैं। पैसों के लालच में बच्चों की फरमाइशें-आज एक लाख चाहिए आज दो लाख और उन के साथ जुड़ी और न जाने कितनी ख्वाहिशें जिन्हें पूरा करते-करते आज तक वह अपने देस, अपने शहर, अपनी गलियाँ, हाट -बाजार, मिलिट्री की कन्टोन्मेंट का वातावरण और खुली स्वछंद हवा को छूने और महसूसने को तरसती रही और बेटी ने कह दिया-हम आप के लिए अलग घर बनवा देंगे!
यहाँ किसी ने हाथ पकड़ा तो बेहयाई से। प्रयोग किया तो वस्तु समझ कर। जब भी हाथ छुड़ाया-वहां से निकाल दी गई। मालिक चिरोरियाँ करते रहे और मालकिने घृणा। इस उपेक्षा और उपहास के बीच जैसे युग बीत गए। जवानी की अल्हड़-आहत उम्र आज बुढ़ापे की दहलीज पर आ खड़ी हुई। आज न जाने क्या हुआ है उसे कि अंदर का दबा-घुटा लावा पसलियों को मरोड़ कर हृदय को कचोटता बाहर निकल रहा है। उस की आँख भर आई। बस अब कुछ भी हो उसे यहाँ से चले जाना है। उस ने बहुत प्रयत्न किये किसी तरह अपने अवैध निवास को वैध बना सकने के। यहाँ तक कि बच्चों को यहाँ बुला सकने के भी। किन्तु कुछ न हो सका। जिन के साथ आई थी उन्होंने ही सारे कागज छिपा कर रख लिए और कह दिया खो गये। वेतन भी पूरा न दिया और चलता कर दिया। कह दिया जिसकी सेवा-सुश्रषा के लिए लाये थे-वही नहीं रहीं तो क्यों रखें तुम्हें। हम दोनों नौकरी करते हैं। हमें तुम्हारी सहायता की आवश्यकता नहीं है। हम तुम्हें वापिस भेज सकते हैं पर रख नहीं सकते। उन का टका सा जवाब और उस समय का अपने बच्चों के लिए लिया गया निर्णय जीवन का जंजाल बन गया। जब लाये थे तो बहुत से सपने दिखाए थे, झांसे दिये थे कि बच्चों की जिंदगी बन जायेगी। वहां तुम नौकरानी नहीं-महारानियों की तरह रहोगी। एक सुनहरा सपना मन में संजो कर रख लिया था। सोचा अच्छा है, महेन की स्थानीय यादों से दूर हो जाऊंगी और इस दु:ख को आत्मसात करने में सहायता होगी। बच्चों ने भी भरपूर हामी भरी थी। पर आज सब कुछ नया-नवेला होकर डसने लगा है। गले में डाला हुआ उत्तरदायित्व-अपना ही फंदा बन गया है।
अचानक उसे लगा-चारों तरफ धुंध ही धुंध छा गई है। उसे देहरादून में अपने घर की बालकनी याद आ गई जहाँ खड़ी हो कर वह उस पावस ऋतु में नन्ही-नन्ही बूंदो में सायास भीगती थी। महेन की यादों में खोई-महेन के घर आने की प्रतीक्षा में, उसे अच्छा लगता था। उसे लगा महेन ने पीछे से आकर उसे भींच लिया है और अपने गालों से सटा कर बढ़ कर चूम लिया है। वह चाँद की कलाओं से भी विस्तृत महेन की मुस्कान उस के चेहरे से उतर कर उस के अंग-अंग को महकाने लगी थी। वह झपाटे से उठी-क्योंकि धुंध स्वयं बारिश का रूप ले रही थी और उसे भी भिगोने लगी थी। पर आज इस भीगने में टूटे सपनों की सीलन थी, पावस की रंगीन महक नहीं। उस के नीचे घास का बिछोना चींटियों की तरह रेंगने लगा। वह अपने आप में बिसूरती है। क्यों वह रोज इन ऋतुओं के तिलिस्म तले रिसने के लिए चली आती है। निम्मो तू तो जानती है कि तू वराह-मिहिर के दांतों में दबा वह ग्रास है जिसे न निगल सकते हैं न उगल। तेरे लिए जिंदगी एक गुंझल बन कर रह गई है। कैसे सुलझाएगी यह अष्टांग-जिस में तेरी अंगुलियां ही नहीं तेरी सारी कायनात उलझी है। वह तो जैसे एक किले में बंदी बना ली गई है और शत्रु दुर्ग पर संगल डाल कर कहीं लाम पर चला गया है। परैम में शशि कुनमुनाने लगा। मेम साहिब के आने का समय हो गया। वह घायल तिलस्म से जाग गई और ठोस धरती पर आ गिरी। उस का सारा अस्तित्व कम्पायमान था और नितांत- निर्जीव सा भी। वह कैसे जी रही है, क्यों जी रही है। किस अशुभ घड़ी में उस ने यह निर्णय ले लिया था! क्या सवार था उस पर! ऊपर से सारे परिवार वाले उसे इसी ओर धकेल रहे थे या नियति अपना जाल बुन रही थी, बस विदेश की पट्टी आँखों पर कसती चली गई थी और वह अंधी हो गई थी।
बीता हुआ समय ठूंठ बन कर खड़ा रहता है और हम उसे रोज झिंझोड़-झिंझोड़ कर उस से खट्टी – मीठी खुरमानियां लपकते रहते हैं। चाहे पेड़ ठूंठ बन चुका हो। वह घर भी तो मेरा ही है न! उस ने कहा था। हाँ माँ ! पर आप जानती हैं हम इतने वर्ष अलग रहें हैं और आप को भी तो अपनी तरह अलग रहने की आदत हो गई होगी-तीषा भी यही चाहती है। तीषा ऊपर रहेगी और मैं नीचे। बेटे ने भी अपना निर्णय सुना दिया था। समय तो हर क्षण जूती पहने-हमे लांघ जाने के लिए तत्पर रहता है और हम हैं कि उस के पीछे-पीछे नंगे पाँव दौड़ लगाते-लगाते हलाक होते रहते हैं। उसे लगा वह किसी लावारिस लाश सी घर में पड़ी है जहां उसे पहचानने के लिए कोई नही है। इस अनजान धरती पर लावारिस रह कर ही एक दिन वह खत्म हो जाएगी। निम्मों ने ऊपर फैले आकाश की ओर देखा और सोचा वह तो न आर की रही न पार की और देहरादून में बनते घर की ठक-ठक उस के कानों में बजने लगी। उस ने जल्दी से शशि को उठाया और मूसलाधार बौछार से बचने के लिए बरामदे की ओर दौड़ पड़ी।

-सुदर्शन प्रियदर्शिनी
पता- 26 स्टार्टफोर्ड ड्राइव ब्रॉडव्यू एचटीसी ओहियो 44147 यूएसए
(440)717-1699

( लेखिका अमेरिका की प्रतिष्ठित कहानीकार, उपन्यासकार एवं कवयित्री हैं। ) 

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