संकेतों को अगर आगे का सियासी संदेश मानें तो कम से कम उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की राह बहुत आसान नहीं दिख रही है। सपा मुखिया अखिलेश यादव की पहल पर शनिवार को यहां ईवीएम पर विचार के बहाने बुलाई गई बैठक से कांग्रेस और बसपा ने दूरी बनाकर कुछ ऐसा ही संकेत दिया है।
हालांकि इस बैठक में कई अन्य दलों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर से चुनाव कराने पर सहमति जताई लेकिन प्रदेश में दो बड़े राजनीतिक दलों का इससे दूर रहना बड़ा सवाल छोड़ गया।
कुछ राजनीतिक दल यह दावा कर सकते हैं कि बैठक सिर्फ ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर से मतदान कराने के मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए थी। इसलिए इससे विपक्षी एकता को जोड़ना ठीक नहीं।
लेकिन, कांग्रेस और बसपा के प्रतिनिधियों ने आखिर इसमें हिस्सा क्यों नहीं लिया जबकि प्रदेश में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने ही सबसे पहले ईवीएम में गड़बड़ी का मुद्दा उठाया था।
बसपा ने न्यायालय में इस मुद्दे पर याचिका भी दायर की थी। जिस बसपा ने ईवीएम के बहाने भाजपा की जीत पर सबसे पहले निशाना साधा, उसी पार्टी के नेता उस बैठक से दूर क्यों रहे जिसमें मुख्य मुद्दा ही ईवीएम से मतदान में गड़बड़ी था।
सवाल यह भी
बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा ईवीएम को निशाना बनाने पर सपा मुखिया अखिलेश यादव और कांग्रेस ने भी सहमति जताई थी। कांग्रेस यह तर्क दे सकती है कि उसने तो पहले ही बैठक में भाग न ले पाने के बारे में सूचना दे दी थी, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी क्या व्यस्तता थी जो कांग्रेस का कोई सामान्य नुमाइंदा भी इस बैठक में भाग लेने की स्थिति में नहीं था।
वह भी तब, जब कांग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ा था। चुनाव के नतीजों के बाद भी दोनों तरफ से गठबंधन के स्थायी रहने के दावे किए गए थे। लेकिन जिस तरह बैठक से कांग्रेस दूर रही, उससे सपा और कांग्रेस के संबंधों के भविष्य पर भी सवाल खड़ा हो गया है।
कहीं यह वजह तो नहीं
राजनीति शास्त्री डॉ. एसके द्विवेदी कहते हैं कि इसकी वजह महत्वाकांक्षाओं का टकराव है। मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में लोकतांत्रिक लिहाज से विपक्षी एकता समय की मांग है, लेकिन यहां मुश्किल यह है कि कौन किसका नेतृत्व स्वीकार करे।
मायावती बसपा से किसी को बैठक में भेजकर शायद यह संदेश नहीं देना चाहती थीं कि वह सपा के पीछे चलने को तैयार हैं। द्विवेदी की बात सही है। मायावती के स्वभाव में किसी का नेतृत्व स्वीकार करना नहीं है।
भाजपा से तीन बार हुआ अलगाव इसका प्रमाण है। रही बात कांग्रेस की तो उसके प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर कई मौकों पर गठबंधन पर असहमति के संकेत देते रहे हैं।
यहां तक कि विधानसभा चुनाव के दौरान गठबंधन होने के वक्त भी उन्होंने सपा कार्यालय में जाकर संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से मना कर दिया था। कांग्रेस के कई नेता भी अपने दम पर पार्टी को खड़ी करने की वकालत करते रहे हैं। माना जाता है कि बैठक से दूर रहकर कांग्रेस ने उसी नीति का संकेत दिया है।