इतिहास की ओर क्यों लौट रहा कश्मीर
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कश्मीर आज पुन: 1989-1990 के युग में पहुंच गया है और इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार है। यह सरकार का ही दायित्व है कि वह उन समस्याओं का समाधान नीति सम्मत तरीके से ढूंढे जो कश्मीर में शांति एवं व्यवस्था के लिए चुनौती बनी हुई हैं। अलगाववादी एवं चरमपंथियों पर आरोप लगाने से कोई फायदा नहीं क्योंकि वे तो अपने उद्देश्यों को पूरा कर रहे हैं। जनता ने अपना मत देकर आपको चुना है ताकि आप उन्हें सुरक्षा, शांति और रोजगार दें। इसलिए यदि शांति एवं सुरक्षा खतरे में पड़ी है और आराजकतापूर्ण वातावरण वहां निर्मित हुआ है तो इसके लिए सबसे अधिक दोषी सरकार ही है।
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पूर्व राष्ट्रपति डॉ़ एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण सशक्त और संसाधनों से भरा हुआ वर्ग युवकों का है, जिनमें आसमान की बुलंदियों को छू लेने की आकांक्षा धधक रही है। यदि उनकी ऊर्जा को सही दिशा दी जाए तो उससे ऐसी गतिशीलता पैदा होगी जो राष्ट्र के विकास को तेज वाहन में दौड़ा देगी, लेकिन जब घाटी के युवाओं की गतिविधियों पर नजर जाती है तो साधारण सा यह सवाल अवश्य उठता है कि ये युवा क्या उसी आकांक्षा से सम्पन्न हैं जिनकी बात कलाम साहब कर रहे थे? जुलाई 2016 से कश्मीर घाटी में हिंसा का कुचक्र चल रहा है, आखिर उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या वास्तव में कश्मीर घाटी के वे युवा जो पत्थरबाजी कर रह हैं, वे अलग स्टेट, ऑटोनॉमी जैसे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं जिनकी दावेदारी करते हुए प्राय: अलगाववादी नेता दिखायी देते हैं? एक प्रश्न यह भी है कि क्या बल प्रयोग शांति स्थापना के लिए उचित कदम है और सरकार कश्मीर में जिस तरह से आगे बढ़ रही है क्या उसे सफलता की सीढ़ियों के रूप में देखा जा सकता है?
पिछले दिनों दो वीडियो क्लिप्स सोशल मीडिया पर वायरल हुयीं । इनमें से एक सीआरपीएफ जवान पर कुछ कश्मीरी युवाओं द्वारा पत्थर फेंके जाने सम्बंधी है और दूसरी पत्थरबाज को सेना की गाड़ी में बांधे जाने संबंधी। मीडिया से लेकर राजनीतिज्ञों तक ने अपने-अपने ढंग से इन्हें लेकर प्रतिक्रियाएं दीं। यही नहीं इन क्लिप्स ने घाटी में सिक्योरिटी ऑपरेशंस को लेकर समर्थकों और विरोधियों के बीच ट्विटर युद्घ भी छेड़ा। पाकिस्तान समर्थक अलगाववादियों और फारुख अब्दुल्ला ने दावा किया कि भारत कश्मीर पर से अपना नियंत्रण खो रहा है और दिल्ली में बैठे विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाया कि बीजेपी-पीडीपी सरकार जनता पर से अपना विश्वास खो रही है। प्रथम दृष्टया तो वर्तमान परिदृश्य तो यही संकेत दे रहा है कि सरकार कश्मीर मामले पर बेहद कमजोर पड़ रही है। यही वजह है कि कुछ रणनीतिकार मांग कर रहे हैं कि सरकार अपनी कश्मीर रणनीति का पुनर्मूल्यांकन करे। ये सभी पक्ष जायज हो सकते हैं, लेकिन पहले यह देखना जरूरी होगा कि वास्तव में कश्मीर घाटी में जो हो रहा है आंतरिक समस्याओं से उपजी प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति है या फिर यह एक्सटर्नल एक्टर का काम है। पृथकतावादियों और कश्मीरी मिलिटैंट्स से भिन्न इसमें उस इस्लामी विचारधारा और उद्देश्यों की क्या भूमिका है जो जैश-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और उससे भी आगे बढ़कर अल-कायदा में दिख रही है। यदि कश्मीरी पत्थरबाजी से संबंधित रियल एक्टर्स को नहीं पहचाना गया तो, किसी भी किस्म की सैन्य कार्रवाई वहां शांति नहीं ला सकती। आज की स्थिति में इन्हें पहचानना मुश्किल है इसलिए प्राय: वे प्रत्युत्तर का शिकार हो रहे हैं, जिनका सरोकार कश्मीरी हिंसा से है ही नहीं।
श्रीनगर के चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट के ऑफिस रिकार्ड संबंधी सूचना पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसी वर्ष की पांच जनवरी से 15 अप्रैल के बीच 675 प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गयीं जिनमें से 138 प्राथमिकियां पत्थरबाजी से सम्बंधी हैं। कुछ पुलिस स्टेशनों पर तो 50 प्रतिशत से अधिक प्राथमिकियां पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज हुयी हैं। खास बात यह है कि इन पत्थरबाजी के लिए जिन्हें आरोपी बनाया गया है उनमें 80 प्रतिशत जुवेनाइल यानि अल्पवयस्क हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि कश्मीर के अंदर या फिर कश्मीर से बाहर बैठे लोग इन अल्पवयस्कों का अपराधीकरण कर रहे हैं, उन्हें इन्स्ट्रूमेंट की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और अंतत: उन्हीं को सेना या पुलिस का शिकार भी बनवा रहे हैं। गंभीरता से विचार करें तो यह स्थिति बेहद खतरनाक है क्योंकि इसमें प्रतिक्रिया उनके खिलाफ नहीं होनी है जो अल्पवयस्कों का अपराधीकरण कर रहे हैं बल्कि उनके खिलाफ हो रही है जो उन्हें सही राह दिखाना चाह रहे हैं, घाटी में शांति स्थापित कर उनके लिए शिक्षा व रोजगार के अवसर पैदा करने हेतु मार्ग निर्मित कर रहे हैं। हालांकि सरकार को पूरी तरह से दोषी मान लेना या फिर एक वाक्य में यह निष्कर्ष निकाल लेना कि लोगों को सरकार पर या देश पर विश्वास नहीं रह गया है, शायद गलत होगा क्योंकि अल्पवयस्क सरकार और राष्ट्र की विशेषताओं, व्यवहारों व उद्देश्यों को समझने की क्षमता ही नहीं रखता। तो क्या इससे सरकार को सफलता का या मासूम होने का प्रमाणपत्र मिल जाता है?
यहां पर कुछ बातों पर ध्यान देना आवश्यक है? पहली यह कि पीडीपी और भारतीय जनता पार्टी वैचारिक रूप से विपरीत ध्रुव वाले दल हैं। पीडीपी अब तक पृथकता एवं अलगाववादियों को शह देती चली आ रही थी, लेकिन आज वह भारतीय जनता पार्टी के साथ कश्मीर में सरकार का नेतृत्व कर रही है। तो क्या उसे जमीनी कार्यकर्ता भी इस विपरीत संयोग के अनुरूप स्वयं को बदल ले गये हैं ? प्रधानमंत्री ने सही अर्थों में कश्मीर की समस्या को समाधान ढूंढ़ने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी। यही नहीं प्रधानमंत्री पिछले वर्ष दो बार कश्मीर की यात्रा पर गये, लेकिन उन्होंने वहां के प्रबुद्घ नागरिकों से मिलना उचित नहीं समझा। वर्ष 2016 के दिसंबर माह में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा नागरिकों के एक दल के साथ कश्मीर की यात्रा पर गये और इन लोगों ने संयुक्त रूप से आकलन पेश किया कि वहां विश्वास पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। भारत सरकार जो कुछ भी कहती है या वादा करती है, उस पर भरोसा नहीं किया जाता, क्योंकि इतिहास ऐसे टूटे वायदों से अटा पड़ा है। यहां तक कि जो लोग यह कहते हैं कि वे भारत के साथ अपना भविष्य देख रहे हैं वे भी नाराज है क्योंकि भारत ने कश्मीरियों को अपने साथ रखने के लिए पर्याप्त कुछ नहीं किया।’ लेकिन प्रधानमंत्री ने यहां भी अहमन्यतावाद दिखाया और यशवंत सिन्हा व उनके दल के सदस्यों से मिलना उचित नहीं समझा। एक सैनिक अधिकारी के एक लेख में एक पक्ष यह भी उठाया गया था कि चूंकि केंद्र की सरकार इस समय हिन्दुत्व के एजेंडे पर तेजी से बढ़ रही है, जैसे-जैसे यह एजेंडा तेज एवं प्रभावशाली होगा कश्मीर में स्थिति आनुपातिक तौर पर खराब होगी। कारण यह है कि हिंदुत्व के एजेंडे के खिलाफ कश्मीर के अलगाववादियों एवं मिलिटैंटों अथवा बाहरी ताकतों को युवाओं को इस्लाम की ओर मोड़ने में आसानी हो जाएगी। पाकिस्तान और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठन इस स्थिति को भरपूर फायदा उठा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि हिज़बुल मुजाहिदीन के शीर्ष कमांडर जाकिर बट ने लगभग 12 मिनट का एक वीडियो सोशल मीडिया पर जारी किया है जिसमें उसने जम्मू-कश्मीर पुलिस और सूचना देने वालों (इनफार्मर्स) को ‘अपकमिंग वार’ यानि आगामी युद्घ की धमकी दी है। इस वीडियो में जाकिर यह कहता दिख रहा है कि अधिकांश लोगों का कहना है कि स्थानीय पुलिस हमारी अपनी है। मत सोचो कि वे (पुलिसमैन) हमारे भाई हैं, वे काफिरों का साथ दे रहे हैं ़.़.़। वह लोगों से अपील कर रहा है कि वे कश्मीर मुद्दे पर यूएनओ अथवा यूएस की तरफ न देखें बल्कि इस्लाम की ओर लौटें। वह युवाओं से स्वयं आत्मनिरीक्षण करने और कश्मीरी राष्ट्रवाद से दूर रहने की अपील करता हुआ भी दिख रहा है। उसका कहना है कि राष्ट्र या कश्मीर के लिए पत्थर अपने हाथों में न उठाएं। उन्हें अपने हाथ में पत्थर लेने से पहले सोचना चाहिए कि वे राष्ट्रवाद या लोकतंत्र के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करने जा रहे हैं क्योंकि ये दोनों के लिए इस्लाम अनुमति नहीं देता। यानि वे इस्लाम के लिए पत्थर उठाएं। वह पूर्ववर्ती कमाण्डर बुरहान वानी की ओर ध्यान आकर्षित करने हुए युवाओं से कहता दिख रहा है कि उसने राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के विचार को अस्वीकृत कर दिया था और सभी का इस्लाम की ओर लौटने का आह्वान किया था। अगर हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि जाकिर का खासा प्रभाव पत्थरबाजों पर है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि कश्मीर में थर्ड एक्टर के रूप में सिर्फ पाकिस्तान की आर्मी और आईएसआई ही नहीं सक्रिय है बल्कि अल-कायदा और आईसिस की विचारधारा भी तेजी से विस्तार ले रही है। यदि ऐसा है तो फिर यह भारत के लिए कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण स्थिति का संकेत है। अब सीआरपीएफ के जवान के साथ जो व्यवहार कश्मीरी युवा कर रहे थे, वह संकेत करता है कि सरकार को चाहिए कि राष्ट्रवाद विरोधियों के प्रति हार्डर एप्रोच पर काम करे, लेकिन दूसरा वीडियो यह बताता है कि सरकार पहले से ही हार्डर रेस्पांस कर रही है, जो शांति बहाली के लिहाज से कदापि उचित नहीं है। जो भी हो कश्मीर आज पुन: 1989-1990 के युग में पहुंच गया है और इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार है। यह सरकार का ही दायित्व है कि वह उन समस्याओं का समाधान नीति सम्मत तरीके से ढूंढे जो कश्मीर में शांति एवं व्यवस्था के लिए चुनौती बनी हुयी हैं। अलगाववादी एवं चरमपंथियों पर आरोप लगाने से कोई फायदा नहीं क्योंकि वे तो अपने उद्देश्यों को पूरा कर रहे हैं। जनता ने अपना मत देकर आपको चुना है ताकि आप उन्हें सुरक्षा, शांति और रोजगार दें। इसलिए यदि इन शांति एवं सुरक्षा खतरे में पड़ी है और आराजकतापूर्ण वृद्घिशील वातावरण वहां निर्मित हुआ है तो इसके लिए सबसे अधिक दोषी सरकार है। इसलिए अब सरकार को राजनीतिक प्रलक्षणन से भिन्न निर्णायक हैसियत प्राप्त करनी होगी। उसे मासूमों और बुजुर्गों सहित सामान्य नगारिकों के हितों की रक्षा करनी होगी, मिलीटैंट्स के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करनी होगी, बाहरी देश से हो रही फंडिंग को रोकना होगा, पर्यटन को बढ़ावा देकर बेरोजगारी व गरीबी को दूर करना होगा अन्यथा जनरल रूपर्ट स्मिथ की पुस्तक ‘द यूटिलिटी ऑफ फोर्स : द आर्ट ऑफ वार इन मॉडर्न वल्र्ड’ में लिखी गयी वह बात पूरी तरह से सही साबित होगी कि ‘भविष्य में सेना का संघर्ष लोगों के मध्य होगा न कि युद्घ के मैदान में।’