इदं नम: पूर्वजेभ्य:
वैदिक ऋषि कोई आचार शास्त्र नहीं गढ़ते। समूचे ऋग्वेद में कहीं भी वे अपना मतवाद नहीं देते। क्या करना चाहिए? ऐसा कोई आग्रह उनमें नहीं है। वे जीवन जगत् के रहस्य बताते हैं, मन की चंचलता की प्रकृति बताते हैं। जीवन को गाढ़े प्रेम से जीने की स्तुतियां करते हैं। ऐसे कवि-ऋषि दुनिया की दूसरी सभ्यताओं में नहीं दिखाई पड़ते। उनके द्वारा स्थापित परंपरा उत्तर वैदिक काल के बाद भी चलती रहती है। वाल्मीकि व्यास भी अपनी शैली में वैदिक ऋषियों से प्रेरित होते हैं। वैदिक कवि ऋषि हैं। ऋषि ही भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रेरक और संस्थापक हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र (10.14.15) में उन्हें नमस्कार किया गया है – इदं नम: ऋषिभ्य। भारत में भारत को वैभवशाली बनाने के प्रयास करने वाले पूर्वजों की सूची बड़ी है।
‘सत्य, शिव और सुन्दर’ प्राचीन भारतीय प्यास है। यही भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप भी है। हमारे पूर्वजों ने इस संस्कृति का विकास हजारों वर्ष में किया है। पूर्वज आर्यों को विदेशी हमलावर बताने का तर्क धराशायी हो चुका है। आर्यों के पश्चिम या मध्य एशिया से भारत आने की कहानी बेकार हो गई है। प्रमाण यही हैं कि भारत के मूल निवासी आर्य अभिजन ही व्यापारिक सांस्कृतिक कारणों से बाहर जाया करते थे। आधुनिक भारतीय समाज को शुभ या अशुभ के निर्णय की शक्ति पूर्वजों से ही मिली है। ईश्वर और देव आस्थाओं के प्रति भी प्रश्नाकुल जिज्ञासा की परंपरा वैदिक पूर्वजों से ही हम सब तक पहुंची है। हम सबके चित्त को करणीय, अकरणीय या अनुकरणीय की सूची घेरे रहती है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या चोरी या बलात्कार को बुरा समझना हमने यूरोप के सम्पर्क से सीखा है? क्या वैज्ञानिक विवेक भी हमने उन्हीं से पाया है। क्या पृथ्वी को एक परिवार जानने की दृष्टि हमने ‘श्रेष्ठ नस्लवादी’ यूरोपीय विद्वानों से पाई है? बेशक उनके भारत आने और भारत की सत्ता चलाने के दौरान उनसे अनेक भारतीय भी प्रभावित हुए लेकिन इससे भी बड़ा सत्य यह है कि इस सम्पर्क में हजारों यूरोपीय विद्वान भी भारतीय दर्शन के प्रभाव में आए थे।
ऋग्वेद को विश्व मानवता का आदि ज्ञान/ग्रंथ मान लिया गया है। ऋग्वेद के रचनाकाल की संस्कृति का दर्शन दिग्दर्शन रोमांचकारी है। वैदिक पूर्वजों ने प्रकृति की शक्तियों का वैज्ञानिक विवेचन किया है। विश्व की प्राचीन संस्कृति, दर्शन और सभ्यता का अध्ययन ऋग्वेद के अभव में संभव नहीं है। वैदिक पूव्रजों ने एक जिज्ञासु संस्कृति का विकास किया। उत्तर वैदिक काल के पूर्वजों ने इसी आधार को आगे बढ़ाया। तमाम कर्मकाण्ड जुड़े तमाम कर्मकाण्डों को अंधविश्वासी कहा गया लेकिन इसी काल में भारतीय दर्शन आकाशचारी हुआ। अनेक विद्वानों को शिकायत है कि उपनिषद् काल के बाद बुद्ध महाबीर द्वारा की गई आध्यात्मिक सामाजिक क्रान्ति कुछ समय बाद फिर से पुराने ढर्रे पर क्यों चली गई? उनकी मानें तो समाज गतिशील नहीं रहा। लेकिन बात ऐसी नहीं है। बुद्ध और महावीर ने प्रचलित भारतीय दर्शन को अपने अनन्य योगदान से समृद्ध बनाया। उन्होंने उपनिषदों की प्राचीनधारा के बाधक तत्वों को झाड़ा पोंछा। स्वामी दयानंद ने ऋग्वेद से ही सामाजिक पुनर्गठन का नया स्वप्न खड़ा किया। स्वप्न बेशक नया था लेकिन इसकी मूलभूमि वैदिक संहिता थी। वैदिक ऋषि भक्त नहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त दार्शनिक ही थे। दर्शन को काव्य रूप देना आसान नहीं होता। दर्शन प्राय: नीरस होता है और कविता हमेशा सरस। वैदिक पूर्वजों ने नीरस तत्व दर्शन को सरस काव्य बनाया। वैदिक काव्य के तत्व संस्कृति के मूल आधार बने। वैदिक वांग्मय एक लाख से ज्यादा मंत्रों तक विस्तृत है। इनके रचयिता ऋषि कहे गये। भरत की श्रद्धा ने उन्हें मंत्र दृष्टा कहा। माना गया कि मंत्र पहले से थे। ऋषि अनुभूति में वे देखे गए। वैदिक ऋषि कवि ही हैं। वे भारतीय संस्कृति के सृष्टा हैं, प्रकृति के मूलभूत तत्वों के भी द्रष्टा हैं। वे प्रकृति की सृजन कार्रवाई के भी द्रष्टा है। वे प्रकृति में तमाम सुसंगत नियम देखते हैं। वे प्रकृति के नियमों को ऋत कहते हैं। वे प्रकृति के सौन्दर्य का प्रगाढ़ अनुभव करते हैं। वे सूर्योदय को देखकर अभिभूत होते हैं। वे उनमें सामान्य प्राणी की जैसी जीवन अभिलाषा है। वे 100शरद् जीने के इच्छुक हैं। वे 100 बरस तक सूर्य देखना चाहते हैं। सूर्योदय के पहले का समय उन्हें आनंद से भर देता है। वे इस समय को ऊषा कहते हैं। ऊषा का सौन्दर्य उन्हें पुलकित करता है। वे ऊषा की स्तुतियां गाते हैं। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरेपूरे ऋषि कवि हैं।
वैदिक ऋषि कोई आचार शास्त्र नहीं गढ़ते। समूचे ऋग्वेद में कही भी वे अपना मतवाद नहीं देते। क्या करना चाहिए? ऐसा कोई आग्रह उनमें नहीं है। वे जीवन जगत् के रहस्य बताते हैं, मन की चंचलता की प्रकृति बताते हैं। जीवन को गाढ़े प्रेम से जीने की स्तुतियां करते हैं। ऐसे कवि-ऋषि दुनिया की दूसरी सभ्यताओं में नहीं दिखाई पड़ते। उनके द्वारा स्थापित परंपरा उत्तर वैदिक काल के बाद भी चलती रहती है। वाल्मीकि व्यास भी अपनी शैली में वैदिक ऋषियों से प्रेरित होते हैं। वैदिक कवि ऋषि हैं। ऋषि ही भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रेरक और संस्थापक हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र (10.14.15) में उन्हें नमस्कार किया गया है – इदं नम: ऋषिभ्य। भारत में भारत को वैभवशाली बनाने के प्रयास करने वाले पूर्वजों की सूची बड़ी है। ऋग्वेद के इसी मंत्र में पूर्वजों को नमस्कार किया गयाहै फिर ‘पूर्वेभ्य:’ कह कर हम सबसे पहले हुए महानुभावों को भी। वे सब हमारे पथ प्रदर्शक भी हैं इसलिए इसी मंत्र में ‘पथिकृदभ्य:’ कहकर भी नमस्कार किया गया है – इदं नम: ऋषिभ्य:, पूर्वजेभ्य:, पूर्वेभ्य: पथिकृभ्य:। प्रेरक और मार्गदर्शक पूर्वजों को नमस्कार करने की यह संस्कृति भारत की है और इसकी स्थापना का श्रेय ऋषियों को जाता है।
विवेकानंद ने वेदांत दर्शन को अन्तर्राष्ट्रीय बनाया था। गांधी सहित आधुनिक इतिहास में ढेर सारे सामाजिक कार्यकर्ताओं और ऋषि तुल्य महानुभावों ने भारतीय संस्कृति दर्शन को कालसंगत ऊर्जा से भरा। भारतीय संस्कृति के कुछेक विवेचकों ने सामासिक संस्कृति का शब्द उछाला है। वे भारत में आए अनेक विदेशी तत्वों को भी संस्कृति निर्माण का श्रेय देते हैं कि उनके कारण हमारी संस्कृति में बहुत कुछ नया आया। लेकिन यह तर्क सही नहीं है। भारतीय संस्कृति में जिज्ञासा, प्रश्नोत्तर और सतत् शोध का तत्व वैदिक काल की देन है। सौन्दर्य बोध का तत्व भी ऋग्वेद के रचनाकाल से पुराना है। भारत में बाहर से आए समूहों ने आस्था से भी प्रश्न और सम्वाद करने की प्राचीन संस्कृति नहीं स्वीकार की। बेशक उनमें से कुछेक समूहों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत परम्परा को अपनाया। लेकिन संस्कृति में कुछ अनूठा तत्व जोड़ने की बातें गलत हैं। विदेशी समूह यहां आए। यहां की दार्शनिक परम्परा से दो चार हुए। पिछड़ गये। अधिकांश यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय दर्शन, संस्कृत व संस्कृति की प्रशंसा की। बेशक उनके वस्त्र आभूषण का यहां प्रभाव पड़ा। वे राजा थे। हिन्दुस्तानी उनकी प्रजा। लेकिन राष्ट्रभाव ने अपना काम किया। दीनदयाल उपाध्याय ने ठीक कहा था “विदेशी को राष्ट्रानुकूल और प्राचीन को अधुनातन बनाकर हमे राष्ट्रजीवन को आगे बढ़ाना चाहिए।
पूर्वजों व ऋषियों ने ज्ञान को सर्वोच्च बताया है। उपनिषद् दर्शन में ज्ञान का गहन विवेचन है। लेकिन वरिष्ठों को महत्व दिया गया है। कठोपनिषद् प्राचीन तत्व बोध है। यहां (अध्याय 1, वल्ली 3 मंत्र 14) ज्ञान अभिलाषी के लिए संदेश है “उठो, जागो, वरिष्ठजनों के पास जाकर बोध प्राप्त करो। बोध प्राप्ति छुरे की धार जैसा दुर्गम पथ है।” गीता का रचनाकाल इस उपनिषद् के बाद का है। गीता (4.34) में यही बात श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कही “उस ज्ञान को प्रणाम सहित, सेवा करते हुए विनयी होकर प्रश्नोत्तर द्वारा प्राप्त करना चाहिए – परिप्रश्नेन सेवया। यहां दो बाते जरूरी हैं। पहली मुख्य बात है – प्रणाम, सेवा और विनय। दूसरी बात है, “परिप्रश्नेन -प्रश्न करते हुए। ज्ञानी और विद्यार्थी का ऐसा सम्बंध अनूठा है। ‘सविनय -प्रश्नो’ का आध्यात्मिक लोकतंत्र भारतीय ज्ञान परंपरा का मुख्य भाग है। इसी परंपरा के चलते भारत में पंथिक अंधविश्वास की जड़ें नहीं जम सकी। निस्संदेह भोले भाले लोगों की श्रद्धा व आस्था के साथ बहुत बार छल भी हुआ है। लेकिन अंधविश्वास भारतीय दर्शन व संस्कृति की मुख्य धारा नहीं है। यहां परमसत्ता को भी प्रश्नों के दायरे में लाने की वैदिक परम्परा है। प्रश्नोत्तर की सतत् प्रवाही परंपरा की नींव ऋषियों और पूर्वजों ने ही डाली थी। वे स्वाभाविक ही नमस्कारों के योग्य हैं।