
पद्म पुराण में दर्ज एक कथा के अनुसार एक दिन एक वृद्ध संत भगवान श्री राम के दरबार में पहुंचे और भगवान राम से अकेले में बात करने के लिए उनसे निवेदन किया. उस संत ने कहा कि जब तक आपकी और मेरी वार्तालाप चल रही हो तो उस चर्चा को कोई भंग न करे और अगर किसी ने हमारी बीच की बात सुनी तो आपको उसे मृत्युदंड देना होगा. भगवान राम ने उनका निवेदन स्वीकार किया और उन्हें एक कक्ष में ले गए और द्वार पर अपने छोटे भाई लक्ष्मण को खड़ा कर दिया और लक्ष्मण से कहा कि कोई उनकी बातचीत में बाधा न डाले.
लक्ष्मण ने अपने बड़ा भाई की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु श्रीराम और उस संत दोनों को उस कमरे में एकांत में छोड़ दिया और खुद कमरे के बाहर दरवाजे पर पहरा देने लगे. जब भगवान राम उस संत को अंदर लेकर गए तो संत अपने असली रूप में आ गया और वह वृद्ध संत कोई और नहीं बल्कि विष्णुलोक से भेजे गए कालदेव थे. जिन्हें पृथ्वी पर भगवान राम को यह बताने के लिए भेजा गया था कि उनका जीवन धरती पर पूरा हो चुका है और अब उन्हें अपने लोक वापस लौटना होगा.
इसके बाद अचानक प्रभु श्रीराम से मिलने उसी समय वहां पर ऋषि दुर्वासा आ गए. ऋषि दुर्वासा ने प्रभु श्रीराम से मिलना चाहते थे लेकिन लक्ष्मण जी अपने भाई भगवान राम की आज्ञा का पालन करते हुए ऋषि दुर्वासा को उस कक्ष के अंदर जाने से मना कर दिया. इससे ऋषि दुर्वासा अत्यंत क्रोध में आ गए और कहा कि उन्हें अगर श्री राम से मिलने नहीं देंगे तो वह श्रीराम सहित समस्त अयोध्या नगरी और सूर्यवंश को श्राप दे देंगे. ऋषि दुर्वासा की श्राप की बात सुनकर लक्ष्मण जी डर गए और लक्ष्मण जी आगे बढ़े और कमरे के भीतर चले गए. जिससे अपने छोटे भाई लक्ष्मण को चर्चा में बाधा डालते देख प्रभु श्री राम जी धर्म संकट में पड़ गए. उस समय भगवान श्रीराम ने अपने प्राणों से प्रिय छोटे भाई लक्ष्मण को मृत्युदंड देने का स्थान पर राज्य से बाहर निकल जाने का आदेश दिया. लेकिन लक्ष्मण जी ने इस घटना के बाद सरयू नदी में जल समाधि लेली.
लक्ष्मण के जाने के बाद श्री राम ने अपना सारा राज पाठ और पद त्यागकर सरयू नदी के जल में प्रवेश कर गए. कुछ देर बाद नदी के भीतर से भगवान श्री हरि विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने अपने सभी भक्तों को दर्शन दिया. इस प्रकार प्रभु श्रीराम ने अपना मानवीय रूप त्याग कर अपने वास्तविक स्वरूप भगवान विष्णु का रुप धारण किया और बैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान किया.