इस संसार में हम सभी लोगों का जीवन एक ‘यात्री’ की तरह है!
यह शरीर किराये के मकान की तरह है
यह शरीर किराये के मकान की तरह है। इस शरीर की कीमत तब तक ही है जब तक इसमें आत्मा वास कर रही है। आत्माविहीन हमारे शरीर की औकात मिट्टी जितनी है। देह का अन्त होने पर यह एक दिन आग में जला या जमीन में गाड़़ दिया जायेगा। हम खुद के सहारे शमशान तक भी न जा पायेंगे। शरीर में वास करने वाली आत्मा इसकी मालिक है। आत्मा परमात्मा का अंश है। आत्मा के विकास अर्थात लोक कल्याण के लिए एक-एक सांस खर्च करके शरीर रूपी किराये के मकान का किराया चुकाना है। इस संसार में हम सभी लोगों का जीवन एक ‘यात्री’ की तरह है। इस संसार में रहने वाले सभी लोग हमारी जीवन यात्रा के ‘सह-यात्री’ हैं। हम सभी ‘पृथ्वी’ ग्रह रूपी वाहन पर सवार होकर अपनी ‘यात्रा’ कर रहे हैं। संसार में एक पर्यटक की तरह रहते हुए हमें लोक कल्याण के कार्य करके, इस सृष्टि के मौसमों, जलवायु, दिन-रात, सुन्दर दृश्यों आदि का आनन्द लेना चाहिए। यह संसार परदेश की तरह है। परदेश में कुछ समय तक तो अच्छा लगता है, लेकिन व्यक्ति को परम सुख एवं परम शान्ति अपने घर लौटकर ही मिलती है। यह संसार हमारी मंजिल नहीं वरन् एक पड़ाव है। हम इस संसार में लगभग 100 वर्षों की जीवन यात्रा पर हैं। हमारा असली घर हमारी आत्मा के पिता परमात्मा का घर (दिव्य लोक) है। परदेश की यात्रा में रहते हुए हमें अपने घर लौटने की तैयारी आत्मा के विकास अर्थात लोक कल्याण के परम उद्देश्य के द्वारा करनी है।
इस संसार में हमारी पूरी जीवन यात्रा लोक कल्याण की ‘कर्म भूमि’ है
मनुष्य की पहचान उसका यह शरीर नहीं वरन् आत्म तत्व है। हमारा शरीर पंचतत्वों से मिलकर बना है लेकिन हमारी आत्मा परमपिता परमात्मा का अंश है। जब तक इस शरीर में आत्मा है तब तक ही इस शरीर का अस्तित्व है अर्थात तब तक ही जब तक की शरीर के प्रत्येक अंग अपना-अपना कार्य करते हैं। जब परमात्मा अपनी आत्मा को वापिस बुला लेता है तो शरीर की मृत्यु हो जाने पर शरीर के प्रत्येक अंग अपना-अपना कार्य करना बंद कर देते हैं। आत्मा जहाँ से आयी है वहीं अपने घर को लौट जाती है। संसार में अंतिम सांस तक लोक कल्याण की भावना से जीते हुए अपनी आत्मा का विकास करना ही जीवन का उद्देश्य है। इसके अलावा संसार में रहने का कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है। इस संसार में हमारी पूरी जीवन यात्रा लोक कल्याण की ‘कर्म भूमि’ है। जीवन में परम विश्राम असली घर लौटकर ही मिलना है। संसार में सुरक्षित यात्रा हर पल आत्म रूप से जागते हुए तथा परमपिता परमात्मा का हाथ थामे रहकर ही पूरी की जा सकती है।
‘समय’ और ‘शक्ति’ के रहते जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहिए
हमारे इस जीवन का अन्तिम लेखा-जोखा तैयार हो उससे पहले हमें प्रतिदिन अपने कर्मों का निरीक्षण कर लेना चाहिए क्योंकि मृत्यु का आगमन अघोषित होगा और हमें अपने कर्मों का विवरण प्रस्तुत करने को कहा जाएगा। मैं वादा करता हूँ, हे मेरे प्रभु कि तुझे जानने और तेरी पूजा करने हेतु तूने मुझे उत्पन्न किया है। परमात्मा को जानने के मायने है उनकी शिक्षाओं को जानना तथा पूजा के मायने हैं उन शिक्षाओं पर दृढ़तापूर्वक चलते हुए हमें हर पल अपनी आत्मा का विकास करना है। और इसके लिए हमें ‘समय’ और ‘शक्ति’ के रहते हुए ही इस परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहिए। नहीं तो अन्त में यहीं कहना पड़ेगा कि फिर न कहना कुछ कर न सके। अभी नहीं तो कभी नहीं। परमात्मा की नौकरी करने वाले के लिए अंतिम सांस तक अवकाश प्राप्त नहीं होता है। शरीर बूढ़ा होकर कमजोर हो सकता है लेकिन आत्मा तथा मस्तिष्क कभी बूढ़े नहीं होते हैं।
आत्मा का परम आत्मा में मिलन ही इस यात्रा की अन्तिम मंजिल है
जिस तरह की भी अच्छी तथा बुरी परिस्थितियाँ हमें मिली हैं उसी में पूरे साहस तथा दृढ़ता के साथ जीवन यात्रा को पूरा करना है। हमंे अपने जीवन यात्रा के लक्ष्य पर आगे बढ़ते हुए कभी भी आधे रास्ते से वापिस नहीं लौटना चाहिए। इसका मुख्य कारण है कि जितनी दूरी तय करके हम, जिस स्थान से चले होते हैं वहां वापिस आयेंगे, उतनी ही ‘आगे की दूरी’ तय करके हम अपने जीवन यात्रा के ‘लक्ष्य’ को भी प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए अपने जीवन पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते हुए हमें इस जीवन के लक्ष्य अर्थात् अपनी आत्मा का विकास करना है क्योंकि परदेश से घर लौटने का सुअवसर एकमात्र अपनी आत्मा के विकास अर्थात लोक कल्याण के लिए हर पल जीने से ही मिल सकता है। जीवन की यात्रा बचपन, जवानी तथा बुढ़ापे तक सीमित नहीं है वरन् इसके आगे अभी आत्मा की यात्रा भी करनी है! हमारे शरीर की यात्रा क्षणिक तथा हमारी आत्मा की विकास यात्रा अनन्त काल की है। आत्मा का परम आत्मा में मिलन ही इस यात्रा की हमारी मंजिल है। विकसित आत्मा को ही इस मिलन रूपी मंजिल का परम सौभाग्य प्राप्त होता है।