कोटद्वार: पर्वतीय क्षेत्रों में मकर संक्रांति के मौके पर शक्ति और सामर्थ्य के प्रतीक ‘गिंदी’ (गेंद) खेलने की सदियों पुरानी परंपरा है। गढ़वाल में खेली जाने वाली गिंदी एक ऐसा खेल है, जिसमें न तो नियम-कायदे हैं, न खिलाड़ियों की संख्या तय है और न समय। गिंदी में कभी सैकड़ों गांवों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी रहती थी। परंपरा अब भी जारी है, लेकिन इस दौरान होने वाले लड़ाई-झगड़ों ने मजा बिगाड़ना शुरू कर दिया है।
गिंदी रग्बी की तरह का खेल है। लेकिन यह उन दो इलाकों की प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है, जिनके गिंदेरे (खिलाड़ी) इसमें भाग लेते हैं। तब हर गिंदेरे का एक ही ध्येय होता है कि भले ही जान क्यों न चली जाए, लेकिन गिंदी दूसरे खेमे के पाले में नहीं जानी चाहिए। विडंबना देखिए कि समय के साथ शराब ने गिंदी कौथिग (मेले) के स्वरूप को ही पूरी तरह विकृत कर दिया।
कैसे बनती है गिंदी
गिंदी यानी गेंद बनाने के लिए मृत जानवर की खाल प्रयोग में लाई जाती है। गिंदी बनाने वाला व्यक्ति ग्रामीणों के साथ जंगली फल लेकर आता है, जिसे इस खाल से मढ़ा जाता है। इस तरह तैयार होती है गिंदी।
ऐसे खेलते हैं
मकर संक्रांति के दिन ग्रामीण पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ गिंदी को लेकर एक खुले मैदान में पहुंचते हैं। वहां पूजा-अर्चना के बाद गिंदी को हवा में उछाला जाता है। इसी के साथ शुरू हो जाती है दो खेमों के गिंदेरों के मध्य गिंदी को अपने क्षेत्र में ले जाने की कशमकश।
यह है मान्यता
गढ़वाल के लिए गिंदी कौथिग उदयपुर-अजमीर पट्टियों की देन है। माना जाता है कि राजस्थान के उदयपुर व अजमेर के योद्धाओं में हमेशा जंग होती रहती थी। बाद में इनके वंशजों ने गढ़वाल आकर अजमेर व उदयपुर पट्टियों की स्थापना की। गढ़वाल का माहौल शांत था, सो अपने बाहुबल का परिचय देने के लिए उन्होंने इस खेल को ईजाद किया और थलनदी के मैदान में दोनों पट्टियों के मध्य गिंदी की शुरुआत हुई।