ऋग्वेद विश्व मानवता का प्रथम शब्द साक्ष्य है
हृदयनारायण दीक्षित : ऋग्वेद दुनिया का सबसे प्राचीन काव्य संकलन है। अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनेस्को ने भी ऋग्वेद को प्राचीनतम अंतर्राष्ट्रीय धरोहर बताया है। ऋग्वेद के रचनाकाल में ‘लिपि’ नहीं थी। ऋषियों ने अपनी मनतरंग में गीत गाए। भारतीय परंपरा इन गीतों को मंत्र कहती है और गीतकार कवियों को ऋषि। परंपरा के अनुसार ऋषि इन मंत्रों के रचनाकार नहीं कहे जाते। वे मंत्रों के द्रष्टा माने जाते हैं। द्रष्टा का अर्थ है – ठीक से देखने वाला। अस्तित्व भरा पूरा है। अस्तित्व विविधि आयामी रूपवान सत्ता है। इस सत्ता के भीतर प्राण है। अस्तित्व प्राणवान है। चेतन है। पृथ्वी जल, अग्नि, वायु और आकाश महाभूत हैं वे प्रत्यक्ष हैं। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह और तारामण्डल है। करोड़ों जीव वनस्पतियां हैं। इस प्रत्यक्ष के भीतर ढेर सारा प्रपंच अप्रत्यक्ष अव्यक्त है। ऋग्वेद में यह सब काव्यमंत्र के रूप में विद्यमान हैं। तत्कालीन विश्व का काव्यमय वर्णन है ऋग्वेद। ऋग्वेद हजारों वर्ष पहले का प्राचीनतम ज्ञान झरोखा है। आधुनिक इलेक्ट्रानिक चैनल की तरह ऋग्वेद में प्राचीनतम समाज का दर्शन दिग्दर्शन है। भिन्न भिन्न विचार हैं। अनेक देवता हैं। सामाजिक संगठन के तमाम रूप हैं। प्रकृति के प्रति भरपूर जिज्ञासा है। ऋग्वेद प्राकृतिक अनुभूति की अद्वितीय काव्य अभिव्यक्ति है। इस काव्य में छन्द हैं, छन्दों में रससिक्त भाव हैं। ऋषियों के श्रीमुख से निकले यह छंद तत्कालीन समाज का दर्पण हैं। ऐसी स्वाभाविक अनुभूति और अभिव्यक्ति श्रुति परंपरा में लगातार प्रवाहमान रही। हजारों वर्ष बीतते गये लेकिन ऋषि कुलों ने इसे अपनी स्मृति में संजोए रखा। उसे बार-बार गाया गया, सुना गया। ऋग्वेद की कविता की अभिव्यक्ति श्रुति किसी एक ऋषि की संपदा नहीं है। यह साल दो साल की अवधि की मंत्ररचना या अभिव्यक्ति भी नहीं है। मंत्र काव्य उगते रहे। सूर्य उगे, अस्त हुए। दिन आया रात्रि आई। मास गये। वर्ष बने। मंत्रों का उदय या सृजन धर्म जारी रहा। ऐसे दीर्घकाल के काव्यमंत्रों का संकलन ऋग्वेद कहलाया। भारत को ऋग्वेद पर गर्व है। यह सर्वसमावेशी है।
ऋग्वेद का उदय आकस्मिक ऋषि प्रवचन नहीं है। प्राचीन इतिहास की किसी अज्ञात मुहूर्त में बोली-वाणी का जन्म हुआ। फिर सुव्यवस्थित भाषा का विकास हुआ। प्रकृति के प्रति जिज्ञासा व स्वाभाविक उत्सुकता बढ़ी। प्रकृति को देखने, जांचने व विश्लेषण विवेचन करने के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास भी हुआ। जिज्ञासा का केन्द्र प्रकृति थी। तब जीवन प्रकृति के निकट था। ऋग्वेद का समाज सामाजिक जीवन के विकास के कई सोपान पार कर चुका था। इस समाज का जीवन घुमंतू आदिम अवस्था से ऊपर तमाम जनसमूहों में संगठित हो रहा था। कवियों ने प्रकृति के भीतर एक सुसंगत व्यवस्था देखी थी। ऋग्वेद में इस अनुभूति के गीत मंत्र हैं। ऋग्वेद में तत्कालीन समाज की अर्थव्यवस्था और ज्ञान प्राप्ति की समस्याओं का भी विवेचन है। साधारण मनुष्य के राग द्वैष के भी चित्रण हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में पूर्ववर्ती समाज की स्मृतियों की झलक है। यह दुनिया की अनूठी ज्ञान संपदा है। इसमें शुभ और अशुभ साथ हैं। ऋग्वेद में अस्तित्व के गीत हैं और अस्तित्व शुभ और अशुभ में भेद नहीं करता। प्रकृति के सारे द्वन्द्व और द्वैत ऋग्वेद में स्पष्ट हैं। ऋग्वेद को लेकर तमाम जिज्ञासाएं रहती हैं। सबसे बड़ी जिज्ञासा श्रद्धा को लेकर है। श्रद्धालु इसे ईश्वर की वाणी कहते हैं। वेदों को अपौरूषेय कहा जाता है। वेदों का विषय निरूपण आश्चर्यजनक है। यह असामान्य मेधा का परिणाम जान पड़ता है। संभवतः इसीलिए उन्हें अपौरूषेय कहा जाता है। ईश्वर की वाणी कहने का तात्पर्य भी इसी तरह का है। ब्रह्मवादी धारणा में यह संसार ब्रह्म है। इसकी संपूर्ण गतिविधि भी ब्रह्म है। अस्तित्व की संपूर्ण कार्यवाही यज्ञ है। इस यज्ञ में ब्रह्म द्वारा ही ब्रह्मम को आहुति दी जाती है। ब्रह्म ही मंत्र है। आहुति भी ब्रह्म है। शब्द ब्रह्म है। वाणी ब्रह्म है। इसलिए वेद ब्रह्मवाणी हैं। परंपरा में वे अनादि कहे जाते हैं, ईश्वर या प्रकृति की तरह वेद भी सदा से हैं, नित्य हैं। वे सदा रहते हैं। आस्था के अनुसार काल की सत्ता भी उन्हें नष्ट नहीं कर सकती। वेदों के प्रति भारत के लोकजीवन में गजब की श्रद्धा है। वेद वचन वास्तविक प्रमाण कहे जाते हैं। वेदों के प्रति भारतीय जनमानस की श्रद्धा आश्चर्यजनक भी है। डाॅ0 भगवान सिंह ने (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य-आमुख) ठीक ही लिखा है “वेद का नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदर्श परवर्ती कालों पर कुछ इस तरह छाया रहा कि वेद को न मानने का अर्थ ही था नास्तिक। वेद ही ब्रह्म और वेद ही अंतिम प्रमाण। वह अकाट्य था। आखिर वह उपलब्धि का कौन सा शिखर बिन्दु था जिस पर इस दौर में भारतीय समाज या कम से कम इसका स्वामि-वर्ग पहुंचा था कि अपने पराभव के दिनों में भी वह इसी के सुखद स्वप्न देखता जीवित रहा और इसी को हासिल करने के मंसूबे पालता रहा।”
ऋग्वेद को ईश्वरीय रचना मानने की आस्तिकता अलग बात है। ऋग्वेद के ऋषि हम भारतवासियों के पूर्वज हैं। वे कवि हैं। संस्कृत के विद्वान डाॅ0 राधावल्लभ त्रिपाठी ने ‘संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास’ लिखा है। इस पुस्तक का एक अध्याय है – ‘वैदिक साहित्य’। इसी अध्याय में “ऋग्वेद के कवियों का स्थान” उपशीर्षक (पृष्ठ 24) से ऋषियों का निवास जांचा गया है। उपशीर्षक में इन्हें ‘कवि’ कहा गया है। लिखते हैं “ऋग्वेद के कवि सप्तसिंधु प्रदेश में रहते थे। ऐसा उल्लेख मंत्रों में मिलता है। सप्तसिंधु वह प्रदेश है जिसमें सात नदियां बहती थीं। ये नदियां थीं – सिंधु, विपाशा (व्यास), शुतुद्रि या शतुद्र (सतलज), वितस्ता (झेलम) असिक्ली (चिनाव), परूष्णी (रावी) और सरस्वती।” ऋग्वेद के ये कवि भारतवासियों के पूर्वज हैं। उनके काव्य मंत्र कहे जाते हैं। वाणी सरस होना कविता है। कविता का प्राणवान व प्रभावी होना मंत्र है। सभी मंत्र कविता हैं लेकिन सभी कविताएं मंत्र नहीं होती। सभी ऋषि कवि हैं लेकिन सभी कवि ऋषि नहीं होते। कवि का ऋषि होना एक चरम संभावना है। किसी भी मनुष्य का कवि होना भी एक संभावना है। कवित्व अनुभूति की समृद्धि है। ऋग्वेद में अग्नि को भी कवि बताया गया है। अग्नि ऋग्वैदिक कवियों के लाड़ले देवता हैं। ऋषि जिसे असीम श्रद्धा करते हैं, उसे कवि कहते हैं। ऋग्वेद में कवि की महत्ता है। ऋग्वेद के मंत्र काव्य उत्कृष्ट श्रेणी के संवेदनशील कवियों की अभिव्यक्ति हैं। उनकी जिज्ञासा धरती से परमव्योम तक विस्तृत है। वे सृष्टि के सभी रहस्य जान लेना चाते हैं। वे उपलब्ध ज्ञान से संतुष्ट नहीं है। लेकिन उपलब्ध ज्ञान के गीत गा रहे हैं। शेष ज्ञान के शोधार्थी भी हैं। उनका भावबोध गहरा है। उनका सौन्दर्यबोध विश्व साहित्य में भी अद्वितीय है। वे अपनी कविता ऋचा का निवास ‘परम व्योम’ बताते हैं। परम व्योम की निवासिनी ऋचाओं को जागृत बोध से प्राप्त करते हैं। वे परिपूर्ण जागृत चित्त को परम व्योम में बैठी कविता की प्राप्ति का साधन बताते हैं, “यो जागार तं ऋचः कामयंते, यो जागार तं हि सामानि यन्ति – जो जागा हुआ है, ऋचाएं/मंत्र काव्य उसकी कामना करते हैं। सामगान उसके पास आते हैं।” इन कवियों की रचनाएं बौद्धिक प्रयास का परिणाम मात्र नहीं है। कविताएं आकाश के परे देवगांव में रहती हैं। वे जागृत चित्त में उतर जाती हैं। ये कवि उन्हें देखते हैं और दोहरा देते हैं। मंत्र काव्य सुने जा सकते हैं। गाए जा सकते हैं लेकिन देखे नहीं जा सकते। ध्वनि सुनाई ही पड़ती है। देखी नहीं जा सकती लेकिन ऋग्वेद के कवि ऋषि मंत्र द्रष्टा हैं। ऋषि का परिचय भी यही है – ऋषियों मंत्र द्रष्टारः। जो मंत्र देखे वही ऋषि। ये ऋषि अनूठे कवि हैं। ऋग्वेद इन्हीं कवियों ऋषियों का प्रसाद है।
(रविवार पर विशेष—लेखक वर्तमान में उत्तर प्रदेश अध्यक्ष हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं)