ज्ञान भंडार

एक विवादास्पद फैसला

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ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश 

भारत और अमेरिका के बीच एक ऐसा रक्षा समझौता हुआ है जिसके मूल मुद्दों पर दसियों साल से भारत में विरोध होता रहा है। लेकिन हैरानी की बात यह रही कि सिर्फ कांग्रेस के अलावा किसी ने इसका पुरजोर विरोध नहीं किया- न चुनाव में व्यस्त वामपंथियों ने और न ही देश के बुद्धिजीवियों ने। वे तमाम लोग चुप हैं जो कम से कम चार दशक से ऐसे समझौते का विरोध करते रहे हैं। भारत और अमेरिका के रक्षा मंत्रियों के बीच सैन्य संचालन सम्बंधी एक समझौता हुआ है। इस पर पिछली 13 अप्रैल 2016 को दोनों देशों की ओर से हस्ताक्षर हो गए। अब इस समझौते के बाद अमेरिका अपने सैन्य विमानों और सैनिक युद्धपोतों को भारतीय सैनिक अड्डों पर मरम्मत, ईंधन आपूर्ति और सामान (सप्लाइज) की लोडिंग अनलोडिंग के लिए उतार सकेगा। यानी अब अमेरिकी विमानों को ईंधन भरने के लिए उतरने हेतु भारतीय सैनिक अड्डे उपलब्ध हो जाएंगे। अमेरिका को पूरी दुनिया में सैन्य संचालन के कामों में लगे अपने विमानों को सुस्ताने और ईंधन भरने के लिए सैनिक अड्डों की तलाश होती है क्योंकि ये बहुत लम्बी-लम्बी उड़ानें भरकर या समुद्री यात्रा करके दुनिया के दूसरे हिस्से में पहुंचते हैं। भारत में ऐसे अड्डों की तलाश अमेरिका को एक अरसे से थी। पिछली सरकार के रक्षा मंत्री और उसके पहले की सरकारों ने अमेरिका के साथ इस तरह के समझौते का लगातार विरोध किया था जिसकी वजह से यह समझौता मूर्त रूप नहीं ले सका था। उनके इस विरोध की वजह उनके अनुसार यह थी कि इससे भारत की पारम्परिक और रणनीतिक स्वायत्तता के साथ समझौता होगा और वह खतरे में पड़ेगी। दुनिया के कई देश अमेरिका को अपने यहां ईंधन भरने जैसे कामों के लिए उसके विमानों को उतरने की अनुमति देने से इनकार करते रहे हैं। हालांकि भारत ने स्पष्ट किया है कि वह अमेरिका द्वारा भारत के मित्र देशों के खिलाफ किसी कार्रवाई के वक्त यह सुविधा उपलब्ध नहीं करेगा। लेकिन अन्य मामलों में उसके विमानों और युद्धपोतों को भारतीय सैनिक अड्डों के इस्तेमाल की तो सुविधा मिल ही जाएगी।
exchange agreementयह अमेरिका के लिए बहुत बड़ी सुविधा होगी। अभी तक वह इंग्लैंड के नियंत्रण वाले डियगो गार्सिया नाम के द्वीप पर स्थित अमेरिकी नौसेना अड्डे का इन कामों के लिए प्रयोग करता रहा है। यह हिन्द महासागर में स्थित है और यहां से अमेरिका को रूस पर निगरानी रखने में बड़ी मदद मिलती है। 1991 के खाड़ी युद्ध के समय और आपरेशन डेजर्ट फाक्स के दौरान डियगो गार्सिया अमेरिका के बहुत काम आया था। यहां से उसके विमानों और युद्धपोतों को ईंधन भरने और दूसरे सामानों को लाने ले जाने की बहुत बड़ी सुविधा मिल जाती थी क्योंकि भारत के नौसैनिक अड्डे उसको इस काम के लिए उपलब्ध नहीं होते थे। अमेरिकी विशेषज्ञ यह कहते हैं कि दक्षिणी चीन सागर में चीन की सक्रियता के चलते उस पर निगरानी रखना भारत और अमेरिका दोनों के लिए बहुत जरूरी है। दरअसल चीन दक्षिण-पूर्व एशिया और हिन्द महासागर में लगातार सक्रिय है और अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है। इसके मद्देनजर भी भारत और अमेरिका के बीच हुआ यह समझौता बहुत कारगर रहेगा। लेकिन मूल बात तो जहां की तहां रहेगी और उसका विरोध इतना कुन्द हो जाएगा, इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। वैसे यह ध्यान देने वाली बात है कि 2007 के बाद से अमेरिका को भारत से 14 खरब के सैनिक सामान की आपूर्ति के आर्डर मिले हैं। पिछले चार साल में अमेरिका भारत को सैनिक उपकरण आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है। ’

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