दस्तक-विशेषस्तम्भ

कब सुनिश्चित होगा बच्चों का खेलकूद अधिकार?

सुभाष गताडे
शिवपुरी (मध्य प्रदेश) से आयी एक खबर को लेकर देशभर में बाल अधिकारों के लिए सक्रिय लोगों में जबरदस्त आक्रोश की स्थिति बनती दिख रही है। मालूम हो कि पिछले दिनों लगभग पचास बच्चों को, जिनमें अधिकतर अल्पवयस्क थे, तीन घण्टे से अधिक समय तक पुलिस हिरासत में रखा गया क्योंकि वह खेलकूद के मैदान की मांग कर रहे थे। कहा जा रहा है कि यह समूचा प्रसंग बाल अधिकारों की रक्षा के राज्य में बने आयोग के अग्रणी के सामने हुआ, जब बच्चों ने कलेक्टर द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इस सिलसिले में अपनी आवाज़ बुलन्द की। गौरतलब था कि इन बच्चों को, जिनमें पांच लड़कियां भी शामिल थीं, एक ही साथ पुलिस वैन में ठूंसा गया, जबकि वहां कोई महिला पुलिस कर्मी भी मौजूद नहीं थी। अब जबकि यह खबर राष्ट्रीय स्तर पर सूर्खियां बनी है, तो सम्बधित अधिकारियों की तरफ से कथित तौर पर लीपापोती जारी है, जबकि इन बच्चों ने उनके साथ हुई इस ज्यादती को लेकर बाल अधिकार संरक्षण के लिए बने राष्ट्रीय आयोग तथा केन्द्रीय स्तर पर अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के यहां गुहार लगायी है।
मालूम हो कि बच्चों के खेलने के अधिकारों के बढ़ते हनन और इस सिलसिले में तमाम कानूनों को ताक पर रखने का यह कोई पहला प्रसंग नहीं है। कुछ समय पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने खुद पार्कों में बच्चों के खेलने के अधिकार की हिमायत करते हुए निर्देश दिए थे, मगर उसने बाद में पाया कि जमीनी स्तर पर कुछ भी हुआ नहीं है। यहां यह बताना समीचीन होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने दिल्ली उच्च अदालत को यहां के पार्कों की दयनीय स्थिति के बारे में लिखा था, उसी पत्र को उच्च न्यायालय ने जनहित याचिका में तब्दील कर अपना फैसला सुनाया था। उसके अदालत के मित्रा के तौर पर भी एक वरिष्ठ अधिवक्ता को नियुक्त किया, जिसने कई पार्कों का दौरा कर बताया कि यहां की सुविधाएं इतनी बुरी हालत में हैं गोया ‘मौत का शिकंजा’ हो, झूले टूटे पड़े हैं, निर्माण सामग्री बिखरी पड़ी हैं, कई स्थानों पर पानी भरा है।
दो साल पहले मुंबई से इसी सिलसिले में आयी एक खबर पर तो कहीं चर्चा भी नहीं हुई। सब कुछ इतना आनन-फानन हुआ कि बांद्रा के अलमीडा पार्क के बच्चों के खेलने के एरिया में जब शाम को बच्चे पहुंचे तो उन्हें इस बात का पता चला कि वहां मोबाइल टॉवर लगाया जा रहा है। निवासियों ने बच्चों की शारीरिक सुरक्षा तथा मोबाइल टावर के रेडिएशन के खतरनाक परिणामों को रेखांकित करते हुए इस पर आपत्ति दर्ज करानी चाही, मगर उन्हें महानगर पालिका के इंजिनीयरों ने बताया कि उपरोक्त समूह को सभी किस्म की मंजूरी मिल चुकी है। समाचार के मुताबिक ‘शहर के म्युनिसिपल कार्पोरेशन के मुताबिक उपनगरीय मुंबई में लगभग 20 पार्कों एवं खेल के मैदानों में मोबाइल टावर्स लगाए’ जाने वाले थे, जो सभी एक ही प्राइवेट कम्पनी के होने वाले थे। चाहे शिवपुरी हो या दिल्ली या देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई। खबरों की यह कतरनें संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा बच्चों के खेलने के अधिकार को दी गयी मान्यता और वास्तविक स्थिति में बढ़ते अंतराल की ओर इशारा करती हैं।
ध्यान रहे कि 1959 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने बच्चों के अधिकारों पर अपना घोषणापत्रा जारी करते हुए उसमें खेलने के अधिकार को रेखांकित किया था, वर्ष 1989 में उसे अधिक मजबूती दी गयी जब कन्वेन्शन आन द राइटस आफ द चाइल्ड पारित हुआ, जिसकी धारा 31 बच्चों के मनोरंजन, खेलने, आराम करने आदि अधिकारों पर जोर दिया गया था। प्रस्तुत कन्वेन्शन पर दस्तखत करने के नाते यह राज्य की कानूनी जिम्मेदारी भी बनती है कि वह इसका इन्तजाम करे, मगर न राज्य इसके प्रति गंभीर दिखता है, न हमारे यहां खेलने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। मगर क्या खेलकूद के मैदानों पर कब्जा महज कार्पोरेट मालिकानों या सरकारी नीतियों की अदूरदर्शिता का नतीजा है? निश्चित ही नहीं! अब शहरों-महानगरों में कारों की बढ़ती संख्या के चलते आसपास के पार्कों की दीवारों को ‘आपसी सहमति’ से तोड़ उसे पार्किंग स्पेस में तब्दील करने की मिसालें आए दिन मिलती हैं और महज कारें नहीं, लोगों की श्रद्धा का दोहन करते हुए खाली जगहों पर प्रार्थनास्थल निर्माण करने का सिलसिला इधर बीच कुछ ज्यादा ही तेज होता दिखता है। एक मोटे अनुमान के हिसाब से पार्किंग के चलते शहर की लगभग दस फीसदी भूमि इस्तेमाल हो रही है, जबकि राजधानी का वनक्षेत्र बमुश्किल 11 फीसदी है। राजधानी दिल्ली के जिस इलाके में प्रस्तुत लेखक रहता है वहां कमसे कम 20 से अधिक स्थानों से वाकीफ हैं जहां पार्कों को पार्किंग स्पेस में या प्रार्थनास्थलों के निर्माण में न्योछावर कर दिया है, अब इलाके के बच्चे खेलने के लिए कहां जाएं, यह सरोकार किसी का नहीं है।
जहां कार्यपालिका एवं विधायिका बच्चों के खेलने के अधिकार को लेकर लापरवाह दिखती है, वहीं न्यायपालिका इस मामले में ‘ज़मीर की आवाज़’ अर्थात कान्शन्स कीपर के तौर पर उभरती दिख रही है। अभी पिछले साल की बात है जब मद्रास की उच्च अदालत ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में खेलकूद के लिए इस्तेमाल मैदानों के बढ़ते व्यावसायिक इस्तेमाल पर अंकुश लगाते हुए कहा कि कार्पोरेशन के इन मैदानों में अगर आपको कोई अन्य साप्ताहिक गतिविधि का आयोजन करना है तो उसके लिए नियम बनाने होंगे और यह सुनिश्चित करना होगा कि खेल की गतिविधियों पर इसका असर न पड़े। दरअसल अदालत अशोक नगर के वॉली क्लब द्वारा डाली गयी जनहित याचिका पर अपना आदेश दे रही थी, जिसमें उसने एक इवेण्ट मैनेजमेण्ट ग्रुप द्वारा इस मैदान में आयोजित स्टीट फुड फेस्टिवल के आयोजन पर आपत्ति जतायी थी। याचिका में इस बात को रेखांकित किया गया था कि ऐसी गैर खेलकूद वाली गतिविधियों को बढ़ावा दिया गया तो यह गलत नज़ीर बन सकता है। मद्रास हाईकोर्ट के इस निर्णय को इस मामले में ऐतिहासिक कहा गया था क्योंकि उसने पूरे देश में खेलकूद के मैदानों के तेजी से विलुप्त होने की परिघटना को रेखांकित किया था।
बच्चों के लिए खाली स्थानों की अनुपलब्धता, जहां वह खेल कूद सकें, सूरज की रोशनी में टहल सकें, प्राकृतिक हवाआें से रूबरू हो सकें, उनके स्वास्थ्य पर किस तरह गहरा असर कर सकती है, इसे जानना हों तो हम ब्रिटेन के चीफ मेडिकल आफिसर द्वारा तैयार एक रिपोर्ट को देख सकते हैं, जो लन्दन से निकलने वाले प्रतिष्ठित अख़बार गार्डियन में प्रकाशित हुई थी जिसमें बताया गया था कि किस तरह वहां सूखा/सुखंडी अर्थात रिकेटस की बीमारी, जिसे 19वीं सदी की निशानी समझा जाता था, उसने वापसी की है। रिपोर्ट में बताया गया था कि सर्वेक्षण किए गए इलाकों में 25 फीसदी या उससे भी अधिक बच्चों में विटामिन डी की कमी पायी गयी। अब इस समस्या के समाधान के लिए उसने पांच साल से कम बच्चों के लिए विटामिन को मुफ्त में उपलब्ध करने के लिए कहा। स्वास्थ्य की बुनियादी जानकारी रखनेवाला बता सकता है कि विटामिन डी धूप में खेलने या घुमने फिरने से शरीर में तैयार होता है, वही स्थिति सम्भव नहीं हो पा रही है।
अपने आलेख ‘चिल्डेन इन अवर टाउन्स एण्ड सिटीज आर ंिबंग राब्ड आफ सेफ प्लेसेस टू प्ले’ जार्ज मानबियाट बताते हैं कि किस तरह ‘आज का बचपन अपनी साझी जगहों को खो रहा है।’ किस तरह सत्तर के दशक से आज तक ऐसे स्थानों में 90 फीसदी गिरावट आयी है, जहां बच्चे किन्हीं वयस्क के बिना भी घूम सकते हैं। उनके मुताबिक ‘सरकारी मास्टरप्लान में, बच्चों का उल्लेख महज दो बार हुआ है, वह भी आवास की श्रेणियों के सन्दर्भ में। संसद द्वारा इन योजनाओं की समीक्षा में, उनका कहीं कोई उल्लेख तक नहीं है। युवा लोग, जिनके इर्दगिर्द हमारी जिन्दगियां घूमती हैं, उन्हें नियोजन की प्रणाली से गायब कर दिया गया है।’ प्रश्न उठता है कि क्या हमें अपने मौन से, विभिन्न स्तरों पर अपनी संलिप्तता से अपनी भावी पीढ़ी के साथ हो रहे इस अन्याय को लेकर अपनी आंखें मूंदी रखनी चाहिए या कुछ करना चाहिए?

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