करिश्मे के बीच भरभंड
नरेंद्र दामोदरदास मोदी का गुजरात से उठना और राष्ट्रीय राजनीति की सरहदों के पार तक छा जाना एक परिघटना है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी का अपना खास व्यक्तित्व है, करिश्मा है। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद से या तो उनके समर्थन या विरोध की राजनीति हो रही है। सामाजिक जीवन में जारी बहसें भी तबसे उन्हीं के गिर्द घूम रही हैं। इस आदमी में ऐसा क्या है जो एक दशक पहले मीडिया में गुजरात के खलनायक के रूप में जाना जाता था, अब समूचे देश के लिए अपरिहार्य हो गया है।
मोदी…मोदी…मोदी.. का जो जाप इन दिनों प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में प्रवासी भारतीयों के झुंड से उठता है और लोकप्रियता के सबूत के रूप में टीवी स्क्रीन पर छा जाता है। यूपी में सबसे पहले पिछले लोकसभा चुनाव में कानपुर में मोदी की पहली सभा में सुनाई पड़ा था। तब तक यह भी तय नहीं हुआ था कि मोदी बनारस से चुनाव लड़ेंगे। जाप स्वाभाविक था क्योंकि व्यक्तिवाद का विरोधी प्रसिद्धि परांगमुख पितृसंगठन आरएसएस सारी परंपराओं को तोड़ कर भावी प्रधानमंत्री के रूप में उनका चयन कर चुका था। भाजपा में पुराने दिग्गज किनारे लगाए जा चुके थे। जो बचे थे मोदी को कांग्रेस के कुशासन से मुक्ति दिलाने वाला अवतारी पुरुष बता रहे थे लेकिन इस नारे की लय चौंकाने वाली थी।
देहात से आए भाजपा कार्यकर्ता इसे ऐसे लगा रहे थे जैसे हालीवुड की नकल पर बनी मुंबइया फार्मूला फिल्मों में किसी कान्वेंट स्कूल में बॉक्सिंग रिंग के बाहर बैठे छात्र अपने हीरो खिलाड़ी के लिए लगाते हैं। सवाल उठना स्वाभाविक था कि अब तक वंदेमातरम या जय श्रीराम के पारंपरिक उद्घोष के आदी कार्यकर्ताओं को इसे किसने सिखाया होगा या उन्होंने हवा के रुख से खुद ही जान लिया था कि भाजपा में अब सिर्फ एक हीरो है बाकी एक्सट्रा हैं जिसके व्यक्तित्व पर पुराना जिंदाबाद फिट नहीं बैठता। इस विदेशी धुन वाले नारे या जाप का मोदी की उठान से गहरा संबंध है। उनका सामूहिकता को नकारने वाला महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व आरएसएस भाजपा के पारंपरिक खांचे में नहीं समाता जिसका ताजा उदाहरण यह है कि पाकिस्तान की अघोषित यात्रा करके उन्होंने मुसलमान और पाकिस्तान के खिलाफ निरंतर घृणा उगलने वाले अपने भक्तों और पार्टी के नेताओं को ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि उनसे कुछ कहते नहीं बन रहा।
दूसरी ध्यान खींचने वाली बात थी मोदी का भाषण जिसमें दस साल से राज करते हुए अहंकारी हो चुकी घोटालों की भरमार से त्रस्त कांग्रेस सरकार के विरोधाभासों को उजागर करने वाले चुस्त डॉयलॉग थे जिसे वे नाटकीय अंदाज में बोलते थे। साथ ही कारपोरेट कंपनियों से मिले मोटे चंदे से जुटाए गए तकनीकी सरअंजाम के बूते उनकी छवि और भाषणों को एलईडी स्क्रीन पर सुदूर गांवों तक पहुंचाने का इंतजाम किया गया था। उन्हें टीवी पर भी सुनने के लिए लोग उमड़े आ रहे थे। पूछने पर कि वे क्यों मोदी के समर्थन में हैं, एक जवाब सबसे अधिक मिलता था। मर्द आदमी है विकास करेगा। मर्दानगी का प्रशासन और विकास के बीच कोई संबंध बना पाना तकरीबन असंभव है, लेकिन कुछ था जो मौनी बाबा उपनाम वाले तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुखातिब था। मनमोहन सिंह का रिमोट कंट्रोल सोनिया गांधी के हाथ था। वे राहुल गांधी के लिए कुर्सी खाली करने के लिए अधबैठी हालत में रहते थे, उनकी अपनी कोई राय नहीं थी। ऐसे में स्वाभाविक था कि लोग मोदी में त्वरित निर्णय लेने वाले एक बोल्ड नेता को देखते हुए अच्छे दिनों की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन इस मर्दानगी की सराहना में एक छिपा खटका था कि क्या बहुसंख्क लोग यह उम्मीद भी कर रहे हैं कि जिस तरह गुजरात में अल्पसंख्यकों को सत्ता के तंत्र की मदद से ठिकाने लगा दिया गया क्या वही देश के स्तर पर दोहराए जाने की उम्मीद की जा रही है। यह एक ऐसी चीज जिसे कोई कहता नहीं था लेकिन महसूस किया जा सकता था चूंकि मोदी का नाम ही गोधरा कांड के बाद गुजरात के दंगों में लाशों की दुर्गंध के बीच देश के आम लोगों तक पहुंचा था इसलिए उसे नकारा भी नहीं जा सकता था। साथ ही भ्रम इसलिए था कि मोदी बनारस के बुनकरों को आधुनिक तकनीक और मार्केटिंग की क्षमता से लैस करके खुशहाल बनाने की बात कर रहे थे।
जैसे-जैसे मतदान के चरण बीतते गए मीडिया उन्माद की हालत में पहुंचने लगा। यह कॉरपोरेट के पैसे से किए गए प्रचार प्रबंधन का एक और नमूना था कि अभी मोदी प्रधानमंत्री बने भी नहीं थे कि तमाम एंकर टीवी चैनलों पर फटे गले से चीखने लगे थे…. मोदी की बढ़त से पाकिस्तान के पसीने छूटे। चीन थर्राया। सर्वशक्तिमान अमेरिका भी चिंतित, भारत को अब जगदगुरु और विश्व महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं सकता। देश ने संसद की सीढ़ियों पर आंसुओं को छलकते देखा, देखा कि देश का सबसे ताक़तवर नागरिक सड़क पर झाड़ू लेकर निकल पड़ा है, देखा कि कैसे मंत्रियों की क्लास लगाई जा रही है, देश ने देखा कि कैसे एक चाय वाले का बेटा अमरीकी राष्ट्रपति को बराक कहकर बुला सकता है। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद मोदी ने जिस आत्मविश्वास और विश्व राजनेता वाले अंदाज में अपनी पारी शुरू की दुनिया भर के नेताओं को भी लगने लगा कि भारत में सचमुच कुछ मूलभूत ढंग से बदल गया है। अमेरिका, चीन, रूस जैसी महाशक्तियों ने मोदी को जो महत्व दिया उसका प्रभाव खुद को विश्व समुदाय में हीन समझे जाने वाले भारतीयों पर पड़ना लाजिमी था। जनता को लगने लगा कि अगर मोदी में कुछ अलग नहीं है तो दुनिया उन्हें इतना मान क्यों देती। शायद यहीं से मोदी के मन विदेश यात्राओं के इस पहलू का उपयोग करने का ख्याल आया होगा और वे धुआंधार यात्राएं करने लगे। इतनी कि अब मजाक और चुटकुले प्रचलित हो गए हैं।
दिलचस्प यह है कि मोदी की महानता और करिश्मे के उफान के बीच में ही कुछ ऐसा हो जाता है कि सम्मोहित लोग भी हैरानी से आंखें फाड़कर कुछ तलाशने लगते हैं। सोचने लगते हैं कि उन्होंने इस व्यक्ति से जो उम्मीदें की थी क्या वे सचमुच सपना थीं। मिसाल के काले धन के वादे को उनके दाहिने हाथ अमित शाह द्वारा जुमला बताना और मोदी का चुप रहना एक ऐसा ही वाकया था। अपना नाम लिखा नौ लखा सूट पहनना और नीलाम कराना, कैमरे की जद में आने के लिए पद की मर्यादा भूल कर ढिठाई करना ऐसे मौकों पर मोदी के व्यक्तित्व का ऐसा पहलू प्रकट होता है जिसमें वे सिर्फ खुद को सबसे ऊपर देखते हैं, बाकी देश और जनता नेपथ्य में चले जाते हैं। ऐसे में लोगों को याद आने लगता है कि उन्होंने मोदी के गुजरात मॉडल के तर्ज पर विकास के वायदे पर यकीन करके वोट दिए थे लेकिन गुजरात तो पहले से ही विकसित राज्य था। गुजरात में भी मोदी ऐसी ही स्टाइल में चुनाव लड़ा करते थे जिसमें छवियों और भाषणों से लोगों को चकाचौंध कर दिया जाता था। 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव अभियान में विवेकानंद की तरह कपड़े पहने लड़के मोटरसाइकिलों से आते थे। स्टेज पर डांडिया होता था। लड़के-लड़कियां जमकर नाचते रहते थे, उसके बाद अचानक ही नगाड़े की ज़ोरदार आवाज़ आती थी और फिर मोदी मंच पर आते थे वहां बैठे लोग भी मोदी मास्क पहनकर बैठते थे। खुद की महान छवि बनाने का सिलसिला गुजरात से ही चला आ रहा है।
केंद्र में भाजपा नहीं मोदी की सरकार के एक साल पूरा होने तक साफ होने लगा कि लोकसभा चुनाव के जो सबसे बड़े मुद्दे थे उन्हें भुला दिया गया है। न महंगाई कम हुई है न बेरोजगारी से निपटने के लिए कुछ किया गया है। कालाधन, गंगा सफाई को मजाक में उड़ा दिया गया है। धार्मिक कट्टरता को हवा देने वाले बयानों से सारी समस्याओं को सफलतापूर्वक ढक दिया गया है। जाहिर होने लगा कि यह इवेंट मैनेजमेंट स्पिन गेंदबाजी है। गेंद की जगह घटनाओं को मनमाफिक दिशा में घुमाने का हुनर मोदी की राजनीति की कुंजी है। उन्हें इस काम में अपने विरोधियों पर काफी बढ़त हासिल है। लिहाजा उनकी सरकार एक साल में कितनी कामयाब रही यह जवाबी कव्वाली के पुरजोश मुकाबले से तय किया जाने लगा। सरकार और विपक्ष दोनों के लाउडस्पीकर का शोर काफी ऊंचा पहुंचाए दोनों मंच पर देर तक टिके रहे लेकिन औसत नागरिक के हाथ निराशा ही लगी क्योंकि वह सरकार को भी वैसे ही नापता है जैसे समाज में अपनी हैसियत यह कभी शास्त्रार्थ से पता नहीं लगाया जाता। अनुभव और संवेदना पर आधारित ये खामोश फैसले एक आंतरिक बोध के रूप में ऐसे होते हैं जैसे सुनसान रात में ओस टपकती है जिसकी आवाज सुनाई नहीं देती। यह जरूर होता है कि राजनीति के स्पिनर अपनी कारगुजारियों से सपनों, कमजोरियों, स्वार्थों को हवा देकर इन फैसलों को बदलवा देते हैं।
अगर प्रधानमंत्री मोदी को म्यूट मोड पर रख कर यानि उन्हें उनके भाषणों के बिना देखा जाए तो एक दिलचस्प नजारा दिखाई देता है जो सालगिरह के शोर के पीछे दुबकी चुप्पी से लेकर भविष्य के बीच की खाली जगह में बनती धुंधली आकृतियों का अंदाजा देता है। कूटनीतिज्ञ, जासूस, कार्टूनिस्ट, फोटोग्राफर और प्रधानमंत्रियों के निजी स्टाफ के सदस्य उन्हें इसी तरह आंकते हैं क्योंकि शब्दों के जाल में फंसकर भटकने का अंदेशा बहुत कम हो जाता है। मोदी राजपाट संभालने के बाद से संसद और सार्वजनिक कार्यक्रमों में बहुत कम मुस्कराते पाए गए। चेहरे पर सायास कमोबेश एक जैसा ही सधाव रहता है जिससे भावनाओं को भांप पाना कठिन होता है। चुनाव के समय वाली आवाज का लोच अब नहीं है। अब उसमें पुरानी ड्रामाई कशिश तभी पैदा की जाती है जब किसी बात पर बहुत जोर देना होता हैए चेहरे का सधाव के बरअक्स मंत्रियों और भाजपा के बड़े नेताओं की देहभाषा को देखा जाए तो साफ हो जाता है कि यह सिर्फ एक आदमी का शो और रुतबा है, बाकी झालर लोकतांत्रिक खानापूरी के लिए सजाई गई है।
मोदी एक से दो बन चुके हैं। एक चुनाव से पहले सपनों के सौदागर मोदी दूसरे अपनी व्यक्तिगत कारगुजारियों से हताश करने वाले प्रधानमंत्री मोदी यही उनकी सरकार का अच्छा या बुरा सबसे बड़ा हासिल है। ताबड़तोड़ विदेश यात्राओं से उनकी अपनी छवि भले बनी हो, लेकिन विदेश नीति का सत्यानाश हो चुका है। नाकेबंदी के मसले पर कोई कारगर फैसला न ले पाने के कारण नेपाल जैसा पड़ोसी हाथ से निकल चुका है।
इसके बिल्कुल उलट मोदी जब विदेश में होते हैं तब सहज, प्रसन्न और बेलाग लपेट होते हैं। बोलने की रौ में अनजान दिशाओं में ऐसे जाते हैं कि खुद को भी भूल जाते हैं। यह एक विडंबना है कि वास्तविक मोदी विदेश में ही दिखाई देते हैं। अपनों के बीच उनके खुलेपन में ऐसा विस्फोटक क्या है जो अब तक के किए धरे को मटियामेट कर सकता है। इसकी खोज आने वाले दिनों में जरूर की जाएगी कि असली मोदी कौन है? ऐसा ही एक क्षण चीन यात्रा के दौरान सरकार की ऐन सालगिरह के दिन शंघाई में भारतीयों के बीच से उठते मोदी-मोदी के प्रायोजित पाश्र्वसंगीत के बीच आया था जब प्रधानमंत्री ने खुद को परिभाषित करने की कोशिश की थी।
चीनी यात्री ह्वेनसांग की अपने गांव वडनगर की यात्रा और वहां बौद्धों के एक पुरातन संस्थान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, जब मैं मुख्यमंत्री बना तो मैने सरकार ने कहा खुदाई कराओ, इसके बाद एक छोटा सा पॉज लेकर उन्होंने कहा, कोई अपने यहां खुदाई क्यों कराएगा। आंय… लेकिन मैं ऐसा ही हूं। आत्ममुग्धता के आवेश से चेहरे की झुर्रियों समेत रेखाएं खिल उठीं। उन्होंने आसमान की थाह पा चुके पक्षी के पंख की तरह बायां हाथ हिलाया जिसमें उन गीतों की लय थी जो महानायकों के मिथ और रहस्यों के बारे में गाए गए हैं। साथ ही उस हाथ की जुंबिश में यह उलाहना भी था कि जाने दो कोशिश मत करो, आप नहीं जान पाओगे कि मोदी क्या चीज है।
इस तरह मोदी एक से दो बन चुके हैं। एक चुनाव से पहले सपनों के सौदागर मोदी दूसरे अपनी व्यक्तिगत कारगुजारियों से हताश करने वाले प्रधानमंत्री मोदी यही उनकी सरकार का अच्छा या बुरा सबसे बड़ा हासिल है। ताबड़तोड़ विदेश यात्राओं से उनकी अपनी छवि भले बनी हो, लेकिन विदेश नीति का सत्यानाश हो चुका है। नाकेबंदी के मसले पर कोई कारगर फैसला न ले पाने के कारण नेपाल जैसा पड़ोसी हाथ से निकल चुका है। इस बीच आरएसएस और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी भारत को अपनी मर्जी का हिंदू राष्ट्र बनाने की नीयत से लगातार मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों पर हमले करते रहे हैं जिनसे नतीजे में दादरी में एक मुसलमान अखलाक की उन्मादी भीड़ ने हत्या की और असहिष्णुता की बहस का जन्म हुआ। देश भर में लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, फिल्मकारों के पुरस्कार वापस करने से दुनिया भर में जाहिर हुआ कि अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं और लोकतंत्र के धार्मिक कट्टरपंथ की बलि चढ़ने का वास्तविक खतरा बढ़ा है। अब मोदी के एक तरफ वे कारपोरेट कंपनियां हैं जिन्होंने चुनाव में उनकी छवि बनाने के पैसा पानी की तरह बहाया और अब अपने मुताबिक नीतियां बनवाना चाहती हैं। दूसरी ओर आरएसएस है जिसे धार्मिक आधार पर राष्ट्र बनाना है, इन दोनों के बीच में मोदी हैं जिनके लिए अपने को विश्व स्तर के भूतो न भविष्यति किस्म के राजनेता के तौर पर स्थापित करना सबसे अहम है। इस सरकार के पांच साल पूरा होते न होते वे कहां होंगे कोई नहीं जानता?