करोड़ों साल पहले समुद्री गायों का घर था भारत
आईआईटी रुड़की ने जीवाश्म की खोज से पता लगाया
देहरादून : समुद्री गाय या डुगोंग शाकाहारी समुद्री स्तनधारियों की एक लुप्तप्राय प्रजाति हैं, जो उथले तटीय जल में समुद्री घास खाते हैं। हालांकि भारत में जंगली (जीवन) संरक्षण अधिनियम, 1972 होने के बावजूद ये दुर्लभ जानवर कच्छ की खाड़ी, मन्नार की खाड़ी, पाक खाड़ी (तमिलनाडु) और अंडमान और निकोबार द्वीप में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। यदि इनके संरक्षण के लिए ठोस प्रयास नहीं किए गए तो इन समुद्री गायों के विलुप्त होने का गंभीर खतरा है। इन खतरों में डुगोंग आवासों का विनाश और संशोधन, बड़े पैमाने पर अवैध मछली पकड़ने की गतिविधियां, प्रदूषण, जहाज पर हमला, निरंतर शिकार या अवैध शिकार और अनियोजित पर्यटन शामिल है।
दिलचस्प बात यह है कि आजकल डुगोंग की केवल एक ही प्रजाति है, जो समुद्री जल में पनपती है। पूर्व में भारत में इन जीवों की एक अद्भुत विविधता थी। गुजरात के कच्छ क्षेत्र की समुद्री गायों के जीवाश्म अवशेषों पर प्रोफेसर सुनील बाजपेयी और उनके छात्रों और सहयोगियों द्वारा आईआईटी रुड़की में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि भारत में कम से कम 4 विभिन्न प्रजातियां रहती थीं, जिनमें कुछ बहुत ही आदिम प्रजातियां शामिल थीं, जो इस क्षेत्र में लगभग 4 करोड़ 20 लाख साल पहले रहती थीं। अन्य 5 प्रजातियां जो लगभग 2 करोड़ वर्ष पहले रहती थीं।
आईआईटी रुड़की के प्रोफेसर बाजपेयी के अनुसार चल रहे अध्ययनों से पता चलता है कि वास्तविक विविधता और भी अधिक हो सकती है और भारत न केवल समुद्री गायों के लिए बल्कि व्हेल जैसे अन्य संबंधित स्तनधारियों के लिए भी विकास और विविधीकरण का एक प्रमुख केंद्र था। बड़ी संख्या में खूबसूरती से संरक्षित समुद्री गाय और व्हेल के जीवाश्म वर्तमान में आईआईटी रुड़की में पृथ्वी विज्ञान विभाग में प्रो. बाजपेयी की जीवाश्म विज्ञान प्रयोगशाला में रखे गए हैं। इसे लेकर आईआईटी रुड़की के निदेशक प्रो. अजीत चतुर्वेदी ने कहा है कि जीवाश्म साक्ष्य देखना रोमांचक है जो बताता है कि भारत अतीत में जैविक विकास और जैव विविधता का उद्गम स्थल था।