दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

कहां गया विरोध पक्ष?

मोदी का सबसे बड़ा टॉनिक खुद राहुल गांधी ही हैं। जब तक मुख्य विरोधी की भूमिका में राहुल हैं, मोदी का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। इसलिए ही नहीं कि राहुल अपनी छवि एक राष्ट्रीय नेता के रूप में बनाने में पूरी तरह विफल रहे हैं बल्कि इसलिए भी कि वे अपनी पार्टी को प्रेरणादायक नेतृत्व देने में सक्षम साबित नहीं हो रहे हैं। कांग्रेस का जितना बुरा हाल आज है पहले कभी नहीं था और इसकी मुख्य वजह राहुल ही हैं जो दूल्हा बनकर घोड़े पर सवारी करने को तैयार ही नहीं हो पाते। 2014 के आम चुनाव और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल की लीडरी पर बराबर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते रहे हैं। 2014 में कांग्रेस को 80 में 5 सीटें मिली थीं जबकि 2017 में वह 403 में से मात्र 7 सीटों पर विजय पा सकी थी।

 

ज्ञानेन्द्र शर्मा

जब कांग्रेस 17 विपक्षी दलों की बैठक कर राष्ट्रपति चुनाव पर चर्चा कर रही थी तो कक्ष में भरी से ज्यादा खाली कुर्सियां लोगों का ज्यादा ध्यान खींच रही थीं। एक बड़ी कुर्सी जो खाली थी, वह कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की थी जो यह बताकर कि वे अपनी नानी से मिलने जा रहे हैं, इटली प्रस्थान कर चुके थे और किसी को पता नहीं था कि वे कब लौटेंगे। दूसरी बड़ी कुर्सी जो खाली थी, वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की थी, जो विपक्ष के साझा उम्मीदवार के नाम की घोषणा से पहले ही भाजपा के रामनाथ कोविंद को अपना समर्थन देने की घोषणा कर चुके थे और उससे टस से मस होने को तैयार नहीं थे। कई और भी कुर्सियां खाली थीं। दक्षिण के प्रमुख राजनीतिक दल भाजपोन्मुख हो चुके थे और वे अपने-अपने कारणों से विपक्ष की ओर मुंह करने को तैयार नहीं थे।
कांग्रेस ने भाजपा के दलित उम्मीदवार के जवाब में अपना दलित उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की पर इससे राजनीतिक समीकरणों पर ज्यादा कुछ असर नहीं पड़ा। हां, कुछ लोगों को जरूर जवाब मिल गया। मसलन केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान कह चुके थे कि जो कोई कोविंद का विरोध करेगा, वह दलित-विरोधी माना जाएगा। अब जबकि कांग्रेस व दूसरे विपक्षी दलों की ओर से बिहार की ही एक प्रमुख दलित नेता मीरा कुमार को मैदान में उतार दिया गया तो उनकी बोलती बंद हो गई। बोलती तो नीतीश कुमार की भी बंद हो जानी चाहिए थी लेकिन वे अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते पाला बदल नहीं कर सके और कोविंद के पाले में खड़े रहे। नीतीश की दिक्कत दलित बनाम दलित से ज्यादा दलित बनाम महादलित की थी सो वे महादलित कोविंद को छोड़कर दलित मीरा कुमार के पक्ष में खड़े होने को अंतत: तैयार नहीं ही हुए।
लेकिन पहले बात करते हैं, युवा नेता राहुल गांधी की। वे भारतीय राजनीतिक मंच से ऐन वक्त पर ऐसे गायब हुए कि सब भौचक्के रह गए। उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव की राजनीतिक उठापटक के मौके पर भी स्वदेश लौटना पसंद नहीं किया और कोई यह ठीक से जानता भी नहीं है कि वे इटली में ही हैं या आसपास के यूरोपीय देशों की ठंडक लेने निकल गए हैंं। बहरहाल अपनी पार्टी, अपनी मां और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने की कांग्रेस की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर वे जिस तरह से गायब हुए, उसने उनके चहेतों तक को अपने मुल्क की इस भीषण गर्मी में भी ठंडी सांसें लेने को मजबूर कर दिया। कोई समझाने की स्थिति में नहीं था- अजय माकन और उनके अंत:कक्ष के कई दूसरे छुटभैए भी। कोई कहता उनकी नानी बीमार हैं, उन्हें देखने वे इटली गए हैं तो कोई कहता अपनी मां सोनिया को देश के झंझावतों से निपटने के लिए भारत में ही उपलब्ध रखने के लिए वे स्वयं बाहर जाने को मजबूर हुए हैं।
इस बीच सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हुई जिसमें राहुल को बच्चों की मैगजीन ‘चंपक’ पढ़ते हुए दिखाया गया है। दो दशकों तक कांग्रेस की महती जिम्मेदारियां संभालते रहने वाले राहुल गांधी को लोग अब भी वयस्क राजनीतिक नेता नहीं मानते। उन्हें लगता है कि राहुल ने बड़ी कुर्सियों पर रहने के बावजूद कुछ नहीं सीखा। बार-बार यह खबरें सुर्खियां बनती हैं कि राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए जाएंगे लेकिन हर बार खबर गलत निकलती है और यह कह दिया जाता है अभी और इंतजार करना होगा। ऐसा लगता है कि खुद उनकी मां को यह अहसास नहीं हो पा रहा है कि राहुल ऊंचा ओहदा संभालने के लिए पूरी तरह परिपक्व हो गए हैं। नतीजा यह है कि अपनी बाीमारियों के बाद भी सोनिया को पार्टी के मुखिया का पद अपने बेटे को सौंपने में बार-बार हिचक पैदा हो रही है।
बहुत से विश्लेषक यह मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी का सबसे बड़ा टॉनिक खुद राहुल गांधी ही हैं। जब तक मुख्य विरोधी की भूमिका में राहुल हैं, मोदी का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। इसलिए ही नहीं कि राहुल अपनी छवि एक राष्ट्रीय नेता के रूप में बनाने में पूरी तरह विफल रहे हैं बल्कि इसलिए भी कि वे अपनी पार्टी को प्रेरणादायक नेतृत्व देने में सक्षम साबित नहीं हो रहे हैं। कांग्रेस का जितना बुरा हाल आज है पहले कभी नहीं था और इसकी मुख्य वजह राहुल ही हैं जो दूल्हा बनकर घोड़े पर सवारी करने को तैयार ही नहीं हो पाते। 2014 के आम चुनाव और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल की लीडरी पर बराबर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते रहे हैं। 2014 में कांग्रेस को 80 में 5 सीटें मिली थीं जबकि 2017 में वह 403 में से मात्र 7 सीटों पर विजय पा सकी थी। इतनी बुरी हार कांग्रेस ने पहले कभी नहीं देखी थी। गिरावट का यह सिलसिला आगे जारी नहीं रहेगा, कांग्रेसी खेमोंं में कहीं भी इसके प्रति कोई आश्वस्त नहीं दिखता। कांग्रेसी कार्यकर्ता निराश हैं, बेहाल हैं और असहाय हैं। उन्हें दूर-दूर तक आशा की कोई किरण नहीं दिखाई दे रही क्योंकि राहुल उन्हें नेतृत्व देने में पूरी तरह असफल साबित हुए हैं। राहुल जहां भी रहें, नरेन्द्र मोदी उनसे प्रसन्न रहते होंगे क्योंकि देश की राजनीति में उनकी विकल्पहीनता की मुख्य वजह आखिर राहुल ही तो हैं। जो लोग मोदी से नजरें फेरना भी चाहते हैं, वे एकबारगी राहुल की तरफ नजरें करते जरूर हैं लेकिन वहां से भी उन्हें जल्दी ही नजरें फेर लेनी पड़ती हैं। आम लोगों की ऐसी राजनीतिक मजबूरी शायद ही पहले कभी रही हो।
राष्ट्रपति का यह चुनाव यदि 2019 के लोकसभा चुनाव का टे्रलर है तो कांग्रेसियों के लिए और भी बुरी खबर है। यह बात बार-बार उठती है कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाया जाना चाहिए। गैर-भाजपा विपक्षी एका की बात तो होती है लेकिन उसकी कोई मजबूत भूमिका तैयार नहीं हो पाती और इसकी मुख्य जिम्मेदारी कांग्रेस की ही है क्योंकि कोई भी भाजपा-विरोधी मंच बिना उसके सक्षम नेतृत्व के खड़ा नहीं हो सकता। कांगे्रस़़़़़़़़़ विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने में अब तक बहुत कामयाब नहीं रही है। राष्ट्रपति चुनाव में 17 दलों के बीच एकता कायम हुई है लेकिन इन 17 में कई प्रमुख किरदार नदारद हैं। दक्षिण भारतीय पार्टियां पूरी तरह से कांग्रेस से विमुख हो गई हैं जबकि बिहार में नीतीश कुमार कांग्रेस के बजाय भाजपा के ज्यादा नजदीक नजर आते हैं। उ.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी इस श्रेणी में गिने जा सकते हैं। जब मोदी जी लखनऊ आते हैं तो वे उनके कान में कुछ बुदबुदाते नजर आते हैं। उन्होंने कान में क्या कहा इस पर कई तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं लेकिन इसका भेद न भी कोई जाने तो कोई फर्क नहीं पड़ता। असली फर्क तो इससे पड़ता है कि वे मोदी के कान तक अपने को ले गए और बाद में जब योग दिवस पर मोदी जी फिर लखनऊ आए तो उनके सम्मान में मुख्यमंत्री योगी के रात्रिभोज में पहुंच गए जबकि उनके बेटे अखिलेश और मायावती ने इस डिनर का बहिष्कार किया।
मुलायम सिंह जिस वजह से भी मोदी जी से गलबैंया कर रहे हों, नीतीश कुमार की मजबूरियां बहुत कुछ और कहीं ज्यादा स्पष्टता लिए हुए हैं। नीतीश कुमार एक अरसे से भाजपा के नजदीक हैं। पहले 17 साल तक वे एनडीए में रहे, फिर बिहार की राजनीति में पैर पसारने के लिए उससे अलग हुए और लालू यादव व कांग्रेस के संग हो लिए। नीतीश कुमार अपने दिल की बात छिपा नहीं पाते। वे मुलायम सिंह की तरह कान में नहीं बुदबुदाते। उन्होंने पहले नोटबंदी का खुला समर्थन किया जबकि उनकी पार्टी के वरिष्ठ सहयोगी शरद यादव इसका विरोध कर चुके थे। फिर वे सर्जिकल स्ट्राइक के समर्थन में खुलकर बोले और जरा भी हीलाहवाली नहीं की। उन्हें जब भाजपा ने दीन दयाल उपाध्याय जन्मशती समारोह की राष्ट्रीय समिति में सदस्य मनोनीत किया तो वे भाजपा के और भी कृतज्ञ हो गए। आज जब कांग्रेस उनकी टांग खींच रही है तो उनके लोग दबी जुबान से भाजपा का फिर से साथ पकड़ लेने की बात कर रहे हैं और परोक्ष रूप से लालू यादव व कांग्रेस का बिहार में साथ छोड़ देने की बात कर रहे हैं। उनकी पार्टी जनता दल (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी कहते हैं कि वे 17 साल तक भाजपा के साथ रहे और उनकी पार्टी वहां ज्यादा सहज थी। दिल्ली में बैठे तमाम राजनीतिक पंडित यह कयास लगाते रहे हैं कि बिहार में नीतीश कुमार, लालू यादव व कांग्रेस का साथ छोड़कर और विपक्ष में बैठी भाजपा का सहयोग लेकर सरकार चला सकते हैं। देर सबेर वे दिल्ली का भी रुख कर सकते हैं। केन्द्रीय सरकार में रक्षा मंत्री का पद बहुत दिनों से खाली भी पड़ा है।
जो भी हो यदि राष्ट्रपति का चुनाव और उसके नाम पर उसके इर्दगिर्द हो रही राजनीति 2019 में संभावित समीकरणों का ध्वनि विस्तारक है, उपसंहार है, ट्रेलर है तो भाजपा के घर आंगन में शंख बजने स्वाभाविक हैं।

Related Articles

Back to top button