कहीं गृहयुद्ध की ओर न चल पड़े नेपाल
नेपाली राजतंत्र के समाप्त होने के एक वर्ष बाद से ही नेपाल एक रास्ते की रूपरेखा बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अभी तक सफल नहीं हो पाया है। संविधान सभा ने जो संविधान बनाया है, उस पर सर्वसम्मति नहीं बनी है।
भारत और नेपाल के बीच गहन ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराएं रही हैं जो प्राय: दोनों देशों को एक दूसरे की ओर खींचती रही हैं लेकिन स्वातंत्रयोत्तर भारत के साथ सामरिक जरूरतें भी जुड़ीं जिससे नेपाल भारत के लिए सामरिक महत्व का देश भी बन गया, लेकिन पिछले लम्बे समय से नेपाल में कुछ ऐसा चल रहा है जो केवल नेपाल की ही शांति नहीं छीन रहा है बल्कि भारत के लिए भी परेशानी पैदा कर रहा है। हालांकि इसे नेपाल में भारतीय कूटनीति की असफलता माना जाए या न नहीं, यह अध्ययन के बाद ही तय हो पाएगा लेकिन मधेशियों को उनके कुछ मूलभूत एवं पारम्परिक अधिकारों से वंचित कर देना भारतीय राजनय की असफलता अवश्य मानी जानी चाहिए।
नेपाली राजतंत्र के समाप्त होने के एक वर्ष बाद से ही नेपाल एक रास्ते की रूपरेखा बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अभी तक सफल नहीं हो पाया है। संविधान सभा ने जो संविधान बनाया है, उस पर सर्वसम्मति नहीं बनी है। दरअसल संविधान के मसौदे को पढ़ने के लिए सदस्यों को सात दिन का समय दिया जाना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि बिना समय दिए ही बहस शुरू करा दी गई। सदन में विरोध हुआ तो मार्शल तैनात कर बहस जारी रखी गई। यही नहीं, जनता की राय जानने के लिए एक महीने का समय निर्धारित था, लेकिन इसके लिए दिया गया केवल एक दिन का समय। इस तरह से नए संविधान में मधेशियों और जनजातीय समुदाय को किनारे कर उसे स्वीकार कर लिया गया। जाहिर है कि मधेशी और जनजातीय समुदाय इसे स्वीकार नहीं करेगा। सैद्धांतिक तौर पर तो संविधान में देश को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है, लेकिन राज्यों को कोई अधिकार नहीं दिए गए हैं। जो सात प्रदेश बनाए गए हैं, उनके सीमांकन से इन दोनों समुदायों को अपने वास्तविक अस्तित्व के लिए खतरा महसूस हो रहा है। उल्लेखनीय है कि मधेश में दो राज्य बनाने की बात थी, लेकिन भारत की सीमा से एक कड़ी में लगे आठ जिलों का एक प्रदेश बनाया गया है। मधेश क्षेत्र के शेष जिलों को छह भागों में बांट कर पहाड़ी राज्यों में शामिल कर दिया गया है। जिसके चलते पहाड़ी राज्यों में मधेशी अल्पसंख्यक होंगे। जनजातीय बहुल थरुहट को अलग प्रदेश नहीं बनाया गया। यही नहीं, राज्यों में न तो लोक सेवा आयोेग बनाने का प्रावधान किया गया है और न ही राज्यों की न्यायपालिका को बहाली का अधिकार प्रदान किया गया है। ऐसे सभी अधिकार सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के पास रहेंगे। सवाल यह उठता है कि फिर आखिर नेपाल किस तरह का संघीय गणराज्य होगा?
दरअसल मधेशी दूसरी संविधान सभा के लिए हुए चुनाव में 2008 के चुनाव की तुलना काफी कमजोर रहे क्योंकि उन्हें पहले की 82 सीटों के मुकाबले दूसरी बार 49 सीटें ही प्राप्त हो पायीं। उनकी कमजोरी ने ही उन्हें संविधान में संघीय ढांचे और नागरिकता के मसले पर पीछे धकेले जाने की वजहें पैदा कर दीं। लेकिन क्या एक देश के शासक दल की नजर में यह एकीकृत व्यवस्था और राष्ट्र की अखण्डता की दृष्टि से बेहतर होगा? भारतीय भी मधेशियों को नेपाल के लोग ही नहीं भारतीय भी भारतीय मूल के बाशिंदे के रूप में देखने की गलती करते हैं। चूंकि नेपाली राजव्यवस्था मूलत: पहाड़ी नेपालियों को ही सही मायने में नागरिक मानना चाहती है इसलिए तराई क्षेत्र के इन नेपालियों को हमेशा दूसरे स्थान पर डालने की कोशिश की गयी। यह भेदभाव केवल भौगालिक आधार पर नहीं किया जाता है बल्कि इसका आधार भाषा और संस्कृति अथवा नृजातीयता है। कुछ समय पहले यह प्रश्न स्वयं मधेशियों ने ही उठाया था कि आखिर वे हैं कौन? भारतीय मूल के नेपाली या नेपाली मूल के भारतीय? अगर इसका सरलीकृत उत्तर तलाशा जाय तो ‘मैथिली मूल का नेपाली’ कहना अधिक तर्क संगत होगा क्योंकि यही उत्तर हर उस मधेशी का है जो अपने वतन नेपाल में रहकर भी मधेशी या विदेशी है। तार्किक उत्तर खोजने के लिए आज से लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व जाना होगा जब नेपाल के महाराजा पृथ्वीनारायण शाह द्वारा पूर्व के तीन राज्यों, जिसमें से एक मकवानपुर राज्य (किंगडम) भी था, को मिलाकर आधुनिक नेपाल की नींव रखी गयी थी। पृथ्वीनारायण शाह ने कुशल रणनीति का सहारा लेकर नेपाल का निर्माण भौगोलिक एकीकरण के द्वारा किया था। मकवानपुर के नेपाल का हिस्सा बनते ही मैथिली भी इसकी प्रजा हो गये।
इसका अर्थ तो यह हुआ कि मधेशी नेपाल में अनिवासी भारतीय नहीं बल्कि नेपाल के मूल नागरिक हैं जिनके भाग्य का निर्णय उनके शासकों ने किया था। अन्तर केवल संस्कृति का था जो भौगोलिक एकीकरण के बाद भी अपना अलग अस्तित्व बनाए रखने समर्थ थी। खास बात यह है कि भौगालिक रूप से एकीकृत नेपाल सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से एकीकृत कभी नहीं हो सका। इसका एक कारण तो यह रहा कि मिथिला या मकवानपुर राज्य के निवासी नेपाली संस्कृति या नृजातीय विशेषताओं को अपनाने की बजाय अपनी मौलिक विशेषताओं को अपनाए रहे जबकि दूसरा एवं अहम कारण यह रहा कि उन्हें राज्यव्यवस्था में प्रभावी भूमिका/शक्ति कभी भी नहीं दी गयी। इसी का परिणाम है आज विभक्त नेपाली मनोवैज्ञानिकता। मकवानपुर राज्य के लोग ‘बाहरी’ लोगों की श्रेणी में गिने गये जिनके लिए मधेशिया (जिसका अर्थ हैं मध्यदेश के लोग, हिमालय और भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य का भू-भाग), तराईवासी (तराई के निवासियों के लिए यह शब्द औपनिवेशिक काल में दिया गया), भारतीय मूल के नेपाली (अधिकांश गैर मैथिली नेपालियों द्वारा प्रयुक्त शब्द), नेपाली मूल के भारतीय (नेपाल सरकार के अतिरिक्त अन्य सरकारों द्वारा प्रयुक्त शब्द) और बिहारी जैसे शब्द प्रयुक्त किए गये और अभी भी किए जा रहे हैं। इसलिए इनके वैवाहिक सम्बंध भी बिहार और उत्तर प्रदेश के पड़ोसी जिलों के साथ-साथ अन्य भारतीय क्षेत्रों से होते रहे। यानि भारत इनके जरिए नेपाल में प्रभावशाली उपस्थिति बनाए रहे जिसे चीन का ट्रैक-2 और ट्रैक-2 भी प्रभावित नहीं कर सका, लेकिन अब स्थितियां विपरीत जाती दिख रही हैं।
बहरहाल, अब नेपाल की अर्थव्यवस्था के विकास में मधेशी बेहद महत्वपूर्ण रहे हैं क्योंकि नेपाल की कृषीय भूमि का लगभग 60 प्रतिशत मैदानी क्षेत्र में है इसका सीधा सा मतलब यह हुआ कि मैदानी लोग नेपाली कृषि उत्पादन में 60 प्रतिशत का योगदान देते हैं। जीडीपी में मधेशियों का योगदान लगभग 65 प्रतिशत, औद्योगिक इनपुट में 72 प्रतिशत, उद्योगों के संचालन में 49 प्रतिशत और राजस्व में लगभग 76 प्रतिशत है, लेकिन इसके बावजूद नेपाल का तंत्र राज्य तराई के लोगों के विकास में कोई रुचि नहीं लेता। ऐसे में यह जिम्मेदारी नेपाल के शासक और राजनैतिक वर्गों की है कि वे नेपाल की सांस्कृतिक तथा नृजातीय स्थितियों का सही से अवलोकन कर नेपाल को एक सांस्कृतिक संघवाद के ढांचे में परिवर्तित कर समस्त सांस्कृतिक समूहों को वाजिब अधिकार प्रदान करें, अन्यथा हो सकता है कि मधेशी भी वही रास्ता अख्तियार कर लें जो माओवादियों ने अपनाया था। पिछले दिनों मधेशियों द्वारा समानांतर सरकार की घोषणा कुछ इसी तरह का संकेत देती है। फिलहाल भारत को नेपाल के आंतरिक हालातों पर विशेष नजर रखने की जरूरत होगी।
मधेशी नेपाल में अनिवासी भारतीय नहीं बल्कि नेपाल के मूल नागरिक हैं जिनके भाग्य का निर्णय उनके शासकों ने किया था। अन्तर केवल संस्कृति का था जो भौगोलिक एकीकरण के बाद भी अपना अलग अस्तित्व बनाए रखने समर्थ थी। खास बात यह है कि भौगालिक रूप से एकीकृत नेपाल सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से एकीकृत कभी नहीं हो सका।
वैश्विक शांति के लिए खतरा बन रही शरणार्थी समस्या
यूरोपीय परिषद के प्रमुख डोनाल्ड टास्क का मानना है कि यूरोप की ओर बढ़ने वाली शरणार्थियों की लहर ऐसा संकट है जो वर्षों तक जारी रह सकता है। लेकिन इन दिनों यूरोप की ओर पलायनकर्ताओं की बढ़ती हुयी संख्या और उनके बारे में कोई नीति बनाने के संबन्ध में यूरोपीय नेताओं के बीच गहरे मतभेद देखे जा रहे हैं।
डॉ. रहीस सिंह
यद ही कभी यह कल्पना की गयी हो कि जब दुनिया अपने आधुनिक, सभ्य और प्रगतिशील होने का दावा कर रही होगी तब इस दुनिया के निवासी आतंकवाद, गृहयुद्ध अथवा आंतरिक संघर्षों का शिकार हो रहे होंगे और उनकी करोड़ों की संख्या अपने घर और अपने वतन को छोड़ने के लिए विवश होगी। वास्तव में यह अजीब सा विरोधाभास है जिस पर विचार करना अब जरूरी हो चुका है। इस प्रगतिशील दुनिया की एक हकीकत यह है कि सीरिया और इराक के लगभग एक करोड़ 36 लाख लोग वहां उपजी स्थितियों के कारण बेघर हो चुके हैं (संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणार्थी मामलों की संस्था की घोषणा के अनुसार)। अकेले सीरिया के लगभग 72 लाख लोग देश के अंदर और 35 लाख लाख लोग देश से बाहर शरण लेने के लिए विवश हैं। प्रश्न यह उठता है कि यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? इसके लिए सही अर्थों में किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? क्या यह केवल साम्राज्यवादी शक्तियों के हस्तक्षेपों का परिणाम है या फिर इस क्षेत्र में संगठित हुए कुछ गिरोहों और शासकों की महत्वाकांक्षाओं ने इन स्थितियों को निर्मित करने में निर्णायक भूमिका निभायी है?
एक विशिष्ट वैचारिकी इसके लिए सीधे अमेरिका को दोषी मान लेती है, इसलिए वहां मौजूद अराजकतावादी ताकतें आसानी से बच जाती हैं। ऐसा नहीं कि इसके लिए अमेरिका दोषी नहीं है लेकिन सिर्फ अमेरिका को दोष देना सम्भवत: एक पूर्व निर्मित अवधारणा से अधिक और कुछ नहीं होगा। जहां तक अमेरिका का प्रश्न है तो कुछ समय पीछे हटकर स्थितियों पर गौर किया जाए तो कुछ आवाजें सुनाई देंगी जिनमें सीरिया को लेकर अमेरिकी थिंक टैंक द्वारा ‘अनिवार्यता के युद्ध’ (वार्स ऑफ नेसेसिटी) सम्बंधी विकल्प पर पहुंचने का प्रयास हो रहा था। हालांकि अमेरिका ऐसा कर नहीं पाया लेकिन इस थिंक टैंक ने इस विषय पर विचार नहीं किया कि अमेरिका ने इराक युद्ध के पश्चात जिन स्थितियों को निर्मित किया या निर्मित करने में मदद की उसका ही यह परिणाम है, कि ‘पोस्ट वॉर पीरिएड’ में लाखों इराकी मारे गये और बेघर हुए। अफगानिस्तान में ‘वॉर अगेंस्ट टेरेरिज्म’ अथवा ‘वॉर इनड्यूरिंग फ्रीडम’ के बाद पूरा दक्षिण एशिया नयी चुनौतियों से घिर गया और वहां के लोगों की जिंदगी संकट से घिर गयी या लीबिया में गद्दाफी को मारने के बाद क्या हुआ। युद्ध की अनिवार्यता मध्य-पूर्व के संकट को समाप्त नहीं करेगी बल्कि उसे बढ़ा देगी। या फिर यह कहा जाए कि अमेरिका इस क्षेत्र में शांति चाहता ही नहीं है।
रक्षा विश्लेषकों के अनुसार सामान्य तौर पर दो प्रकार के युद्ध होते हैं- प्रथम: ‘पसंद के युद्ध’ (वार्स ऑफ च्वाइस) और द्वितीय: ‘अनिवार्यता के युद्ध’ (वार्स ऑफ नेसेसिटी)। इस विश्लेषण में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि जहां तक सम्भव हो पहले वाले किस्म के युद्ध से बचना चाहिए लेकिन दूसरे प्रकार के युद्ध को अनिच्छा से ही सही, पर अवश्य लड़ना चाहिए, लेकिन क्या अमेरिका इनमें से कोई युद्ध लड़ पाया? स्पष्टत: नहीं, लेकिन इस दौरान सीरिया में निर्मित हुई स्थितियों ने सम्पूर्ण क्षेत्र में अस्थिरता एवं भय का वातावरण उत्पन्न कर दिया। राष्ट्रपति बशर अल असद को सत्ता से हटाने के लिए जिन उपायों का सहारा लिया गया वे उपाय अंतत: उन अराजकतावादियों को और ताकत प्रदान करते गये जिनका शांति, व्यवस्था और मानवाधिकारों से कोई सरोकार नहीं है। फलत: सीरिया में पिछले चार वर्षों के दौरान जिस बेचैनी का उदय हुआ उसका ही यह परिणाम है कि आज लाखों सीरियाई यूरोप के लिए एक समस्या बनते नजर आ रहे हैं। इसलिए फिर वही सवाल कि सीरिया में जो भी नवनिर्मित हुआ, उसे खत्म करने की जिम्मेदारी किसकी है? क्या यह जिम्मेदारी अमेरिका और यूरोप की है, एशिया और विशेषकर अरब दुनिया की है अथवा उन वैश्विक संस्थाओं की जो दुनिया में शांति और प्रगति के लिए स्थापित की गयीं थीं।
सामान्यतया यह मान लिया जाता है कि अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वे इस संकट को रोकें? लेकिन सवाल यह उठता है कि क्यों? अरब देशों की क्यों नहीं जो सम्पन्नता के कई पायदान चढ़ चुके हैं? यद्यपि अमेरिका और यूरोप सीरिया में इस स्थिति के निर्माण के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि अमेरिका ने सीरिया में युद्ध की अनिवार्यता जैसी स्थिति उत्पन्न होने दी, नाटो, जो अमेरिकी बाहुबल है, ने सीरिया की समस्या का समाधान तलाशने की बजाय युद्ध की प्रतीक्षा अधिक की। चीन और रूस शुरू से ही सीरिया में ‘वार ऑफ नेसेसिटी’ को स्वीकार नहीं किया और अमेरिका ‘वार ऑफ च्वाइस’ के जरिए वियतनाम युद्ध या कुछ हद तक इराक युद्ध जैसे इतिहास को दोहराना नहीं चाहता था। परिणाम यह हुआ कि एक तरफ असद, दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोप के सहयोग वाला ‘सीरियन नेशनल कोलिशन’ एक दूसरे के खिलाफ यथाशक्ति युद्ध की स्थिति में रहे जबकि इस संघर्ष से उपजे गैप को भरने का कार्य आईएसआईएस/आईएसआईएल (इस्लामी स्टेट ऑफ इराक एण्ड सीरिया/लैवेंट) ने किया। इस खुले खेल में छुपे ग्रेट गेम ने सीरियाई संघर्ष को अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर रखने की कोशिश की लेकिन साथ ही असद विरोधी ताकतों को यथाशक्ति सहयोग देकर और ताकतवर बनाया गया, जिसमें एक आईसिस है। यह खेल केवल वैश्विक शक्तियों यानि अमेरिका-यूरोप और चीन-रूस के बीच ही नहीं खेला गया जिसका मैदान सीरिया था बल्कि मध्य-पूर्व के इस्लाम के अनुयाइयों के मध्य भी खेला गया जिसमें एक तरफ शिया दुनिया थी और दूसरी तरफ सुन्नी दुनिया।
इस टकराव की झलक इराक, सीरिया, ईरान सहित एशिया और अफ्रीका की इस्लामी दुनिया में दिखी या यूं कहें कि अभी भी कुछ जटिलताओं के साथ अभी भी विद्यमान है। इन कारणों के अतिरिक्त एक कारण और भी है और वह है सीरिया की भू-राजनीतिक जिसके अपने रणनीतिक लाभ हैं। यही वजह है कि रूस और चीन असद की सभी हरकतों को नजरअंदाज करते हुए उसके पीछे खड़े रहे उसके विरोधियों से निपटने के लिए राष्ट्रपति असद की सरकार को हथियार और गोला-बारूद मुहैया कराते रहें। दरअसल, सीरिया की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है जो एक तरह से ग्लोबल जियो-स्ट्रैटेजिक केन्द्र अथवा स्ट्रैटेजिक कोर जोन का हिस्सा है। यही वजह है कि असद ने कई बार इस धमकी का प्रयोग किया कि उसकी भौगोलिक स्थिति मिस्र और लीबिया जैसी नहीं है, बल्कि वह भू-राजनीति का केन्द्र है इसलिए अगर उसे छेड़ा गया तो परिणाम खतरनाक होंगे।
फिलहाल सीरियाई शरणार्थी यूरोप के लिए संकट बनते नजर आ रहे हैं और इस संकट का समाधान खोजना इतना आसान नहीं है। यूरोपीय परिषद के प्रमुख डोनाल्ड टास्क का मानना है कि यूरोप की ओर बढ़ने वाली शरणार्थियों की लहर ऐसा संकट है जो वर्षों तक जारी रह सकता है। लेकिन इन दिनों यूरोप की ओर पलायनकर्ताओं की बढ़ती हुयी संख्या और उनके बारे में कोई नीति बनाने के संबन्ध में यूरोपीय नेताओं के बीच गहरे मतभेद देखे जा रहे हैं। यूरोपीय आयोग के प्रमुख जां क्लोद युंकर का कहना है कि यूरोप को हर हाल में 1,60,000 शरणार्थियों के लिए जगह बनानी होगी। यही नहीं, उन्होंने एक सूची भी जारी की है जिसके अनुसार शरणार्थियों को यूरोप के सभी देशों में बांटा जा सकेगा, हालांकि बहुत से देश इसके खिलाफ हैं। इस साल के अंत तक 8,00,000 शरणार्थियों को लेने का जर्मनी का दावा है जो कि पिछले वर्ष की तुलना में यह चार गुना है। इसके विपरीत हंगरी ने सर्बिया से लगी सीमा पर बाड़ लगा दी है ताकि शरणार्थी वहां से देश में प्रवेश ना कर सकें। दक्षिणपंथी विचारधारा वाले हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान का मानना है कि यूरोप की पहचान और ईसाई मूल्यों के लिए मुस्लिम शरणार्थी एक खतरा हैं।
जो भी हो यह प्रश्न वास्तव में महत्वपूर्ण है कि सीरियाइयों की जिंदगी को तबाह करने के लिए जो भी जिम्मेदार हैं वे उनकी सुरक्षा और पोषण का कितना दायित्व ग्रहण कर रहे हैं। पश्चिमी यूरोप के देशों के लोगों का विरोध भी पूरी तरह से औचित्यहीन नहीं है क्योंकि किसी देश के नागरिक अपने द्वारा दिए गये करों से दूसरे नागरिकों की जिम्मेदारी क्यों उठाएं। फिर भी लोगों का जीवन बचाना भी एक नैतिक और मानवीय जिम्मेदारी बनती है। इस समस्या का समाधान रणनीतिक स्तर पर हो, समाधान के साथ संतुलन बना रहे जिससे इसके बाइ-प्रॉडक्ट नये संघर्षों के रूप में सामने न आ सकें।
सीरियाई शरणार्थी यूरोप के लिए संकट बनते नजर आ रहे हैं और इस संकट का समाधान खोजना इतना आसान नहीं है। यूरोपीय परिषद के प्रमुख डोनाल्ड टास्क का मानना है कि यूरोप की ओर बढ़ने वाली शरणार्थियों की लहर ऐसा संकट है जो वर्षों तक जारी रह सकता है।