ज्ञान भंडार

कांग्रेस की उम्मीद का चेहरा प्रियंका

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संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 2017
कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव, उत्तर प्रदेश के पूर्व प्रभारी, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राहुल गांधी के करीबी दिग्विजय सिंह ने अपनी दिली इच्छा जाहिर करके कांग्रेस के भीतर चल रही उस हवा को तेज कर दिया है जो प्रियंका के समर्थन में चल रही थीं। हाल ही में दिग्गी राजा का लखनऊ आगमन हुआ था। आये तो थे वह समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता और मंत्री शिवपाल यादव के बेटे की शादी समारोह के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए, लेकिन यहां मीडिया ने जब उन्हेंं घेरा तो दिग्गी ने प्रियंका ‘तराना’ छेड़कर उत्तर प्रदेश की सियासत को हवा-पानी उपलब्ध करा दिया। दिग्गी ने प्रियंका को उम्मीदों भरा चेहरा बताते हुए यूपी में प्रियंका को लांच करने की बात कही और बोले, ‘मैं तो पहले से ही चाहता हूं कि प्रियंका गांधी को सियासत में उतरना चाहिए। उनका करिश्माई नेतृत्व कांग्रेस के लिए फायदेमंद होगा। इसका फायदा उठाना चाहिए।’ दिग्गी राजा का बयान उस समय में आया है, जब प्रियंका को मिशन 2017 का चेहरा बनाये जाने की बात कांग्रेस के भीतर तेजी पकड़ रही थी। कांग्रेसियों को यूपी फतेह के लिए प्रियंका उम्मीद का चेहरा नजर आ रही हैं।
प्रियंका अगर यूपी की सियासत में कूदती हैं तो उनकी इंट्री कांग्रेस के पुराने गढ़ और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की कर्मभूमि इलाहाबाद से हो सकती है। उत्तर प्रदेश में संगम तीरे बसे इलाहाबाद की जितनी धार्मिक मान्यता है, उतनी ही इसकी अपनी सियासी पहचान है। बात चाहे देश की आजादी की हो या फिर सियासत की, दोनों ही जगह इलाहाबाद के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इलाहाबाद ने कई क्रांतिकारियों और राजनेताओं को जन्म दिया है। कांग्रेस के इलाहाबाद से रिश्ते काफी पुराने हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहचान भले की कश्मीरी पंडित की थी, लेकिन उनकी कर्मभूमि इलाहाबाद ही रही। नेहरू ने यहां से सियासत शुरू की तो उनकी इकलौती बेटी इंदिरा गांधी को भी इलाहाबाद खूब रास आया। इलाहाबाद आज भी सियासी कारणों से पूरे देश में सुर्खियां बटोर रहा हैं। जब भी लोकसभा/विधान सभा का चुनाव आता है यहां राजनैतिक सरगर्मियां तेज हो जाती है। तेजी का यह दौर राहुल गांधी की विफलता के बाद कुछ ज्यादा ही मुखर होकर सामने आ रहा है। यहां से प्रियंका गांधी के समर्थन में आवाजें उठती हैं तो दबी जुबान से यहां के कांग्रेसी आलाकमान को यह अहसास कराने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं कि राहुल गांधी यूपी की सियासत में वह मुकाम हासिल नहीं कर पा रहे हैं, जिसकी कांग्रेस को दरकार है। यहां के कांग्रेसी प्रियंका गांधी में उनकी तेजतर्रार दादी इंदिरा गांधी का अक्स देखते हैं। ‘प्रियंका नहीं आंधी है, दूसरी इंदिरा गांधी है’ के यहां नारे लगाये जाते हैं।
अदने से अदना और बड़े से बड़ा कांग्रेसी भी जानता है कि इलाहाबाद ऐसा शहर है, जिससे गांधी परिवार कभी दूरी नहीं बना सका। भले ही इलाहाबाद की दोनों संसदीय सीटों (इलाहाबाद-फूलपुर) पर 1984 के बाद से कांग्रेस का खाता नहीं खुला हो, लेकिन यहां नेहरू-इंदिरा को चाहने वालों की कमी नहीं है। इसमें कांग्रेसी भी हैं और आमजन भीं। यह लोग लगातार इस प्रयास में रहते हैं कि किसी तरह से प्रियंका गांधी को यहां से चुनाव लड़ा दिया जाये। कोशिशें हर बार हुईं, लेकिन लगता है अबकी बार यह कोशिश परवान चढ़ सकती है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व यदि 2017 के विधान सभा में प्रियंका गांधी इलाहाबाद की किसी विधानसभा सीट से किस्मत अजमाते हुए नजर आएं तो किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। प्रियंका को मैदान में उतारने की योजना राहुल के खरीदे हुए रणनीतिकार बना रहे हैं। कांग्रेसी गलियारों में चर्चा तो यह भी है कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी यूपी की सियासत में अहम किरदार निभाने को कहा जा सकता है। वह यूपी चुनाव में कांग्रेस की प्रभारी बन सकती हैं। प्रियंका गांधी, शीला दीक्षित और डॉ. रीता बहुगुणा जोशी की तिकड़ी के सहारे कांग्रेस आलाकमान बीजेपी को महिलाओं के मुद्दे पर बैकफुट पर धकेलना चाहती है। पीएम मोदी जिस तरह से महिलाओं के हितों के लिए काम कर रहे हैं, उससे कांग्रेस ही नहीं बसपा और समाजवादी नेतृत्व भी परेशान है। सपा के पास महिला नेतृत्व का अभाव है। इसलिये वह ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं दिखता है, लेकिन बसपा और कांग्रेस लगातार भाजपा की हवा निकालने को मचल रही हैं।
priyankaयूपी की राजनीति में प्रियंका गांधी की इंट्री हो रही है, यह बात इसलिये और भी दावे के साथ कही जा सकती है क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अचानक इलाहाबाद को लेकर काफी गंभीर हो गई हैं। सोनिया एक महीने के अंदर इलाहाबाद का दो बार चक्कर लगा चुकी हैं। सोनिया की दोनों ही यात्राएं गोपनीय रखने की कोशिश की गई थी। पहली यात्रा के दौरान तो उनकी कुछ कांग्रेसी नेताओं से मुलाकात हो भी गई, लेकिन दूसरी यात्रा के दौरान वह किसी से नहीं मिलीं। सोनिया के इलाहाबाद दौरे को राजनैतिक पंडित प्रियंका से जोड़ कर देख रहे हैं। आने वाले समय में भी सोनिया की कई यात्राओं की बात कही जा रही है। वैसे, यह बात भूलना नहीं चाहिए कि बुरे समय में इलाहाबाद से कई बार कांग्रेस ने खोई हुई ताकत हासिल की है। अतीत पर नजर दौड़ाई जाये तो इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से अलग होने के पश्चात जब फूलपुर को संसदीय क्षेत्र का दर्जा हासिल हुआ तो 1957 में यहां से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चुनाव लड़ा था। 1962 में भी नेहरू यहां से चुनाव जीते। नेहरू के बाद उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित और वीपी सिंह ने भी यहां से चुनावों में जीत हासिल करके कांग्रेस का मान बढ़ाया था। 1984 के बाद से कांग्रेस को यहां से जीत हासिल नहीं हो पाई। नेहरू ने जब इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़ा तो उन्हीं वर्षों (1957-1962) में इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से नेहरू के सबसे करीबी लाल बहादुर शास्त्री चुनाव जीतते रहे। इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, दिग्गज कांग्रेस नेता हेमवती नंदन बहुगुणा और 1984 में अभिनेता से नेता बने अमिताभ बच्चन भी चुनाव जीतकर शोहरत हासिल कर चुके हैं। बाद में समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र, रेवती रमण सिंह और भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी को भी यहां से जीत हासिल करने का सौभाग्य हासिल हुआ। कांग्रेस से अलग होने के पश्चात 1988 में वीपी सिंह यहां हुए उपचुनाव में उतरे और निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीत हासिल की।
इलाहाबाद से इंदिरा गांधी चुनाव भले ही नहीं लड़ी थीं, लेकिन उनका लगाव हमेशा ही इस जिले से बना रहा। यही बात राजीव गांधी के साथ भी जुड़ी थी। हालांकि पिछले तीन दशकों से कांग्रेस के परिवार या उसका वफादार उम्मीदवार नहीं मिलने के कारण यहां से कांग्रेस का प्रभाव काफी कम हो गया है। हाल ही में इलाहाबाद पहुंची सोनिया गांधी से स्थानीय कार्यकर्ताओं ने प्रियंका को यहां से चुनाव लड़ाने की मांग की थी। तब सोनिया गांधी ने इस पर विचार करने का आश्वासन भी दिया था। यह माना जा रहा है कि नवंबर के मध्य तक इस बात की औपचारिक घोषणा कर दी जायेगी। नवंबर इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी माह 14 नवंबर को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का और 19 नवंबर को पूर्व पीएम इंदिरा गांधी का जन्मदिन मनाया जाता है। नेहरू-इंदिरा गांधी के जन्मदिन समारोह के दौरान प्रियंका के नाम पर मुहर लग सकती है।
प्रियंका के नाम की घोषणा की नवंबर में एक और वजह यह है कि कांग्रेस चाहती है कि प्रियंका के नाम की घोषणा जितनी देरी से होगी, उतना उनके नाम का क्रेज बना रहेगा।
प्रियंका को यूपी की सियासत में उतारने और उन्हें इलाहाबाद से चुनाव लड़ाने के पीछे की वजह प्रशांत किशोर बताये जाते हैं। इस क्षेत्र में कांग्रेस की संभावनाएं प्रबल हैं। यहां की जनता का आज भी नेहरू परिवार से भावनात्मक लगाव है। 2012 के विधान सभा चुनाव के समय भी कांग्रेस इलाहाबाद से एक सीट निकालने में पार्टी सफल रही थी। बात आगे बढ़ाई जाये तो यह अहसास सबको है कि उत्तर प्रदेश और नेहरू गांधी परिवार का रिश्ता पुराना है। इस परिवार को यूपी से जितना मिला, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। अगर देश की सियासत में इस परिवार का चार पीढ़ियों से सिक्का चला तो यूपी और उसमें भी खासकर इलाहाबाद, रायबरेली, अमेठी, सुल्तानपुर के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यूपी में इस परिवार की सियासत का परचम फहराया तो पूरे देश में इसका प्रभाव देखने को मिला। दिल्ली की सत्ता यूपी के रास्ते से होकर गुजरती है। यह बात नेहरू-गांधी परिवार से बेहतर कौन जान सकता है। यूपी में कांग्रेस कमजोर हुई तो दिल्ली से भी उखड़ गई। कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में ऐसी दुर्दशा बस एक बार इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में देखने को मिली थी। तब और कारण थे, लेकिन आज उत्तर प्रदश्ो में कांग्रेस कमजोर है तो उसकी वजह कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का कमजोर पड़ना। राजीव गांधी की असामयिक मौत के बाद सोनिया गांधी ने लम्बे समय तक कांग्रेस को संभाले रखा भी, लेकिन जब से वह पुत्र मोह (राहुल गांधी को पीएम बनते देखने का सपना) में फंस गई तब से कांग्रेस की यूपी में बुरी स्थिति हो गई।
बात प्रियंका की यूपी की सियासत में कूदने की संभावनाओं से हट कर की जाए तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर से खड़ी होना चाहती है, लेकिन उसको गांधी परिवार से वैसा सहारा नहीं मिल रहा है, जैसा इंदिरा और राजीव गांधी के समय में मिला करता था। अभी तक के जो हालात थे, उसके तहत प्रियंका गांधी को आगे बढ़ने नहीं दिया जा रहा था तो राहुल गांधी की अपरिपक्वता कांग्रेस की वापसी के अभियान में बड़ा रोड़ा साबित हो रही है। हर चुनाव में कांग्रेसी वापसी की उम्मीद करते हैं और मुंह की खानी पड़ती है। करीब दो दशकों से यह सिलसिला चला आ रहा है। उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि 2017 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए शुभ संकेत लाये, लेकिन ऐसा होगा इसकी संभावना न के बराबर है क्योंकि जब भी नतीजे आते हैं तो कांग्रेस जीत तो दूर तीसरे/चौथे स्थान पर ही संतोष करना पड़ता है। हर हार के बाद कुछ समय के लिये कांग्रेसी खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं और दिन बीतने के साथ चादर खिसकती जाती है। जब कांग्रेसियों के पास कोई विजन नहीं होता है तो जनता को बार-बार नेहरू-गांधी परिवार की कुर्बानी की याद दिलाकर भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल किया हैं, जो हमेशा कारगर नहीं होता है। कहा जा रहा है कि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को संकेत दे दिया है कि अगर उनकी रणनीति के अनुसार कांग्रेस आगे बढ़ती है तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बहुमत तो नहीं मिलेगा, लेकिन उसकी जीत का आंकड़ा तिहाई की संख्या में जरूर पहुंच जायेगा, जिसका फायदा यह मिलेगा कि यूपी में सत्ता हासिल करने के लिए कोई भी दल कांग्रेस को अनदेखा नहीं कर पायेगा। यानी 2017 में कांगे्रस का किंग (मुख्यमंत्री) भले ही न बन पाए, लेकिन राहुल गांधी किंगमेकर की भूमिका में जरूर आ जाएंगे।=

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