कांग्रेस की यह कैसी राजनीति, आतंकियों-नक्सलियों से वार्ता और संघ से किनारा
नई दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी से राजनीतिक अखाड़े में लगातार पिछड़ रही कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी पार्टियां अपनी बंद आंखें खोलने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उन्हें जमीनी हकीकत का अहसास नहीं है। अगर उनकी आंखें खुली होती तो वे विज्ञान भवन में चल रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम का न्योता नहीं ठुकरातीं।
हालांकि ‘संघ’ ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उसने भारत का भविष्य कार्यक्रम में कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी पार्टियों में किसे-किसे न्योता भेजा था, लेकिन आमंत्रित किए जाने से पहले ही इन पार्टियों ने संघ के प्रति अपनी नफरत भरी मंशा उजागर कर दी। इस तरह से ये पार्टियां संघ को ही नहीं बल्कि उसका समर्थन कर रहे देश के एक बड़े जनमानस को राजनीतिक रूप से अछूत मान लिया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने तो राहुल को सलाह दी कि ‘संघ’ के अंदर जहर भरा हुआ है, यह सभी जानते हैं। इसलिए उसे चखने की जरूरत नहीं है। आखिर ये विपक्षी पार्टियां जो कश्मीर के आतंकवादियों का खुला समर्थन कर रहे हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं से ही नहीं दुश्मन देश पाकिस्तान से भी वार्ता की वकालत करती है, वह अपने देश की मिट्टी से उपजे एक संगठन से बातचीत का दरवाजा कैसे बंद कर सकती है। कांग्रेस आखिर उस हुर्रियत का समर्थन कैसे कर सकती है जो कश्मीर के बच्चों और युवाओं को किताब की जगह पत्थर और बंदूखें थमा रही है। आतंकियों के अलावा ये पार्टियां नक्सलियों से भी वार्ता की पैरोकारी करती रही हैं। वे नक्सली जो गरीबों को ढाल बनाकर वसूली और हत्या का अवैध धंधा चला रहे हैं। यह ठीक है कि ‘संघ’ और भाजपा राजनीतिक रूप से कांग्रेस एवं दूसरी विपक्षी पार्टियों के विरोधी ध्रुव हैं। लेकिन कांग्रेस और राहुल को याद रखना चाहिए कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में ‘संघ’ को न्योता दिया था और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और लौहपुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल संघ के अच्छे कार्यों के प्रशंसक रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह कहते हैं, प्रजातंत्र में संवाद की अहम भूमिका है। यहां तक की राजनीतिक विरोधियों से भी बातचीत का दरवाजा खुला रखना चाहिए।
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसकी मिसाल पेश की है। जीवन भर ‘संघ’ के विरोधी रहे मुखर्जी ने हाल में ‘संघ’ के कार्यक्रम में शामिल होकर स्पष्ट संदेश दिया कि राजनीति में कोई अछूत नहीं है। इसलिए कांग्रेस सहित जिन विपक्षी पार्टियों को संघ का न्योता मिला, उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए था। राहुल को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारी संस्कृति में दुश्मन से भी सीखने की परंपरा रही है। रावण वध के बाद स्वयं प्रभु श्रीराम ने भ्राता लक्ष्मण को लंकापति से शिक्षा लेने का आदेश दिया था और जब लक्ष्मण रावण के सिरहाने खड़े हुए तो उन्हें बताया कि सीखने के लिए सिर के पास नहीं पैर के पास खड़े होते हैं। कांग्रेस न सिर्फ पाकिस्तान से वार्ता की वकालत करती है बल्कि कई बार तो उसके नेता सारी कूटनीतिक शिष्टता की सारी हदें भी पार कर जाते हैं। मसलन, नवंबर, 2015 में मणिशंकर अय्यर ने पाकिस्तान में एक चैनल को दिए गए इंटरव्यू में यह कहकर बड़ा विवाद खड़ा किया था कि भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत तभी होगी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर किया जाएगा। फरवरी, 2018 कराची लिटरेचर फेस्टिवल में अय्यर ने दोनों देशों में सभी मसलों के हल के लिए बातचीत की वकालत करते हुए पाकिस्तान का पक्ष लिया। उन्होंने कहा कि वार्ता करने के प्रस्ताव को पाकिस्तान ने तो स्वीकार कर लिया है लेकिन वे दुखी हैं कि भारत ने इसे मंजूर नहीं किया है।
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