किसी कुत्सित धारणा के आधार पर सत्य से भिन्न बोलना समाज विरोधी है
- ‘सत्य का आग्रह’ वैदिक काल से प्राचीन है।
हृदयनारायण दीक्षित : सत्याग्रह सत्य का आग्रह है। भारत में सत्य के तमाम पहलुओं पर विचार की प्राचीन परम्परा है। वैदिक दर्शन के अनुसार काल से अप्रभावित सत्ता सत्य है। इसके लिए सुंदर शब्द प्रयोग हुआ है – त्रिकाल अबाधित। सत्य पर भूत, भविष्य और वर्तमान का प्रभाव नहीं पड़ता। यह परिभाषा दर्शन की है और श्रेय है। दैनिक जीवन में हम सबका सत्य प्रत्यक्ष सत्य है। प्रत्यक्ष का सामान्य अर्थ – आंख के सामने होता है। इस शब्द में अक्ष का अर्थ आंख है। साक्षात्कार का अर्थ भी लगभग ऐसा ही है। इसमें आंख के सामने उपस्थित आकार की महत्ता है। उपनिषद् दर्शन में ‘अक्ष’ का अर्थ इन्द्रियां हैं। सत्य आंख से दिखाई पड़ने वाला ही नहीं होता। वायु नहीं दिखाई पड़ती लेकिन वायु का अस्तित्व है। वायु सत्य है। पदार्थ दिखाई पड़ते है लेकिन उनका स्वाद आंख से नहीं दिखाई पड़ता। मीठा या कड़ुवा कषाय होना भी सत्य है। ध्वनि नहीं दिखाई पड़ती लेकिन ध्वनि ऊर्जा है। सत्य है। दैनिक जीवन में संपर्क का आधार है बोली। वाणी से प्रत्यक्ष रूपों का कथन सत्य है। सत्य से भिन्न कथन असत्य है। इन्द्रियबोध से अनुभूत सत्य की जगह किसी कुत्सित धारणा के आधार पर सत्य से भिन्न बोलना समाज विरोधी है। ‘सत्य का आग्रह’ वैदिक काल से प्राचीन है।
गांधी जी ने अपने आन्दोलन के लिए ‘सत्याग्रह’ शब्द का प्रयोग किया था। गांधी जी भारतीय चिंतन के जानकार थे लेकिन उन्होंने सत्याग्रह का शब्द प्रयोग अचानक नहीं अपनाया। वे दक्षिण अफ्रीका में आन्दोलन चला रहे थे। वे अपने आन्दोलन की शैली को कोई नया नाम देना चाहते थे। वे दुनिया के तमाम विद्वानों के विचार पढ़ रहे थे। रूसी लेखक तोलस्तोय (टालस्टाय) उनके प्रिय विद्वान थे। पैसिव रेजिस्टेंस या निष्क्रिय प्रतिरोध का विचार तोलस्तोय की प्रिय धारणा थी। गांधी जी उनसे प्रभावित थे। अन्याय के सक्रिय प्रतिकार की जगह सहिष्णुता का विकास करते हुए निष्क्रिय प्रतिरोध मनोदशा तक जाने का विचार गांधी जी को सर्वथा नया लगा था। गांधी जी ने स्वयं लिखा था “इसमें कोई संदेह नहीं कि तोलस्तोय ने जो कुछ लिखा है उसमें कुछ नया नहीं है परन्तु पुरातन सत्य को प्रस्तुत करने का उनका ढंग स्फूर्तिदायक और ओजपूर्ण है। उनका तर्क अकाट्य है। सबसे बड़ी बात यह है कि वे अपने उद्देश्यों व उपदेशों के अनुसार आचरण करने का प्रयास करते हैं। (संपूर्ण गांधी वांग्मय 90/390) निष्क्रिय प्रतिरोध या अनाक्रमता। नई बात नहीं थी। भारत के राष्ट्रजीवन में करूणा, क्षमा, सहिष्णुता आदि मूल्यों के आचरण से प्राप्त उपलब्धि का नाम अनाक्रमता है। अनाक्रमता उदात्त भाव का परिणाम है, विधायक मूल्य नहीं।
मूल सत्य अन्तर गुहा में है। ईशावास्योपनिषद् के ऋषि की प्रार्थना है “हिरण्यपात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है। हे देवो! इस आवरण को खोलो, हटाओ। मैं सत्य दर्शन का अभिलाषी हूं। पैसिव रेजिस्टेंस या निष्क्रिय प्रतिरोध वास्तविक प्रतिरोध नहीं होता। जीवन कर्म प्रधान है। सक्रियता प्रकृति की गति है, तप है और परिणामदाता भी। निष्क्रियता कोई मूल्य नहीं है। पैसिव रेजिस्टेंस अंग्रेजी का शब्द है। इसी का हिन्दी अनुवाद निष्क्रिय प्रतिरोध था। संभवतः गांधी जी भी इस हिन्दी अनुवाद से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने ‘दक्षिण अफ्रीका के इतिहास’ नामक ग्रंथ में लिखा था, “उस समय तक हम लोगों में कोई यह नहीं जानता था कि कौम के इस विचार अथवा आन्दोलन को क्या नाम दिया जा सकता है? मैंने उस समय इस आन्दोलन का परिचय पैसिव रेजिस्टेंस नाम से दिया।” गांधी जी अपने आन्दोलन का नामकरण पैसिव रेजिस्टेंस कर चुके थे लेकिन किसी नए नाम की खोज में भी थे। आश्चर्य है कि वे भारतीय इतिहास और परंपरा के भीतर से अपने आन्दोलन का नामकरण क्यों नहीं कर पाए? लेकिन उन्होंने अपनी इस इच्छा को छुपाया नहीं। तोलस्तोय से प्रभावित होने के बावजूद वे देशी नामकरण की ही इच्छा रखते थे।
सत्य का विमर्श भारत की प्राचीन परंपरा है। शास्त्रार्थ गोष्ठियां और वाद विवाद इसके उपकरण रहे हैं। गांधी जी ने ‘इण्डियन ओपीनियन’ में लिखा “स्वदेशभिमान की एक शाखा यह भी है कि हम अपनी भाषा का मान रखें, उसे ठीक तरह से बोलना सीखें। विदेशी भाषा के शब्दों का उपयोग कम करें।” यहां स्वभाषा को राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ा गया है। विदेशी भाषा के शब्दों का प्रयोग कम से कम करने का आग्रह है। उन्होंने पैसिव रेजिस्टेंस के लिए उपयुक्त शब्द देने की अपील की। उपयुक्त शब्द सुझाने वाले को कुछ किताबों का पुरस्कार देने की भी घोषणा की। मगनलाल गांधी का सुझाव था कि ‘सदाग्रह’ शब्द श्रेष्ठ होगा। मगन लाल के अनुसार “यह आन्दोलन एक बड़ा सद् आग्रह है। यह आग्रह सद् अर्थात शुभ है।” सद् का सामान्य अर्थ शुभ नहीं होता। सद् का अर्थ सत्य है। सत्य शुभ होता है। शुभ सत्य का गुण है। इस तरह मगनलाल का सुझाव पैसिव रेजिस्टेंस नाम से बेहतर था। ध्यान देने योग्य बात है कि गांधी जी अपने आन्दोलन के नामकरण को लेकर भी खुले मन से विचार कर रहे थे।
प्रत्येक रूप, विचार और कर्म का नाम प्रकृति अनुरूप अच्छा लगता है। पैसिव रेजिस्टेंस के स्थान पर सदाग्रह नाम गांधी जी को अच्छा लगा लेकिन वे अपने सात्विक संघर्ष के लिए कुछ दूसरी तरह के नाम पर गौर कर रहे थे। पहले उन्होंने मगनलाल के सदाग्रह पर ध्यान दिया। उन्होंने अपने मन की यह बात भी लिखी, “मैं जिस अर्थ का समावेश करना चाहता था वह उसमें नहीं आ पाया था। इसलिए मैंने द का त बनाकर उसमें य जोड़ा और सत्याग्रह नाम बनाया। मैंने सत्य को शांति में निहित माना। किसी भी वस्तु का आग्रह करने रखने से बल उत्पन्न होता है। मैंने इसीलिए आग्रह में बल का समावेश माना।” (वही 29/85) मगनलाल जी ने सद् से सदाग्रह बनाया था। ऋग्वेद में सद् संपूर्णता का पर्यायवाची है – एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। ऋग्वेद में अन्यत्र इसे ‘तदेकं’ भी कहा गया है – अनादीवातं स्वद्यया तदेकं। यहां तदेकं का अर्थ ‘वह एक’ है। वह एक सत् भी है। वैदिक अनुभूति में असत् से सत् प्रकट होने की बात भी कही गई है। असत् असत्य नहीं है। असत् का अर्थ अव्यक्त या अप्रकट है। अव्यक्त असत् से सत्-व्यक्त प्रकट हुआ। व्यक्त इन्द्रिगोचर है। आंख, कान, स्पर्श आदि इन्द्रियों के माध्यम से वह बोधगम्य है। गांधी जी ने सार्वजनिक जीवन में सत्य के आग्रह को आन्दोलन बनाया था। पैसिव रेजिस्टेंस से सदाग्रह और सदाग्रह से सत्याग्रह तक पहुंचने की गांधी जी की यात्रा उपयुक्त शब्द खोज की दिलचस्प कथा है।
गांधी जी के सत्याग्रह की अपनी व्याख्या भी रोचक है। उन्होंने ठीक ही सोचा था कि आग्रह में बल होता है। आग्रह वस्तुतः संकल्पबद्ध इच्छा है। उपनिषदों में कई अवसरों पर संकल्पबद्ध इच्छा को महत्व दिया गया है। कहा गया है कि मनुष्य जैसा सोंचता है वैसा ही हो जाता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। प्रगाढ़भाव से की गई इच्छा मनः संकल्प से मिलकर नई शक्ति पैदा करती है। आग्रह में बल की वृद्धि का गांधी विचार उचित ही है। सत्याग्रह का बल सारी दुनिया ने देखा था। गांधी जी तोलस्तोय के प्रशंसक थे। वे अपने ऊपर तोलस्तोय की किताब ‘किंगडम आॅफ हैवेन इज विध इन यू’ का प्रभाव मानते थे। गांधी जी ने किताब के नाम का अर्थ समझाया “ईश्वर का राज्य तुम्हारे भीतर है। विलायत जाने तक मेरी श्रद्धा हिंसा पर थी। अहिंसा पर अश्रद्धा थी। यह किताब पढ़कर मेरी अश्रद्धा चली गई।” उन्होंने तोलस्तोय की प्रशंसा की “उनके जीवन में दो महत्वपूर्ण बातें थीं। वे जैसा कहते थे, वैसा ही करते थे। उनकी सादगी अद्भुत थी।” सादगी निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम नहीं होती। सक्रिय प्रतिरोध के माध्यम से समाज बदलने में लगे कार्यकर्ता भी सादगीपूर्ण होते हैं। तोलस्तोय की तुलना में गांधी जी अधिक सादगीपूर्ण थे। सत्य का आग्रह प्राचीन भारतीय विचार है। निष्क्रिय प्रतिरोध एक काल्पनिक मनोदशा है अच्छा ही हुआ कि गांधी जी निष्क्रिय प्रतिरोध से ऊपर उठे और सक्रिय प्रतिरोध के उदात्त जीवनमूल्य सत्याग्रह से जुड़े।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वर्तमान उत्तर प्रदेश अध्यक्ष हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)