स्वामी श्रद्धानंद सन्यास ले चुके थे, गुरुकुल के मुख्य अधिष्ठाता और आचार्य के पद से भी वह निवृत्त हो चुके थे। आचार्य के शिष्यों ने गुरुकुल की व्यवस्था को संभाल लिया था। इस दौरान गुरुकुल का उत्सव प्रारंभ हो गया। स्वामी श्रद्धानंद गंगा उत्सव के भाग लेने के लिए गंगा तट के बंगले में रुके हुए थे। उत्सव का मुख्य व्याख्यान हो रहा था। इसी बीच दर्शकों को निवास स्थान से धुंआ उठता हुआ दिखाई दिया। क्षण भर में ही यह बात चारों और फैल गई की आग लग गई। पांडाल पूरी तरह से खाली हो गया और सभी लोग कैम्प की तरफ भागे। वहां जाकर देखा तो फूस के छप्पर बारुद के ढेर की तरह धू-धू कर जल रहे थे। दर्शक पागलों की तरह चारों और भागने लगे और चीखने-चिल्लाने लगे, क्योंकि कई बच्चे आग लगने के वक्त कैंप में सोए हुए थे।
प्रश्न यह उठ रहा था कि इस भयानक दावानल में घुसकर कौन उनको बचाएगा ? यह भी नहीं सूझ रहा था कि इस आग पर काबू कैसे पाया जाए? कुछ देर तक शोरगुल और चीख-पुकार के कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। इसी बीच घटनास्थल पर स्वामीजी आ गए और सारी परिस्थितियों का मुआयना कर कार्यकर्ताओं को फावड़े, गैंती, तगारी और दूसरे सामान लेने के लिए भेजा और खुद सबको लेकर आग के नजदीक पहुंच गए। स्वामीजी ने इसके बाद वहां पर मौजूद लोगों को स्वयंसेवक दलों के रूप में विभक्त कर दिया। एक दल को उन्होंने आज्ञा दी की कपड़ों या हाथों में जैसे भी हो रेत और मिट्टी लेकर आग पर डालो। दूसरे दल को आज्ञा दी की दूसरे छप्परों में जिनमें आग नहीं लगी है, उनका सामान निकालकर बहुत दूरी पर रख दो। उनको आग से दूर ले जाओ। इतनी देर में फावड़ा, टोकरियां, बाल्टियां, घड़े सभी चीज आ पहुंची। स्वयंसेवकों का एक दल मिट्टी खोदने लगा, दूसरा दल मिट्टी को टोकरियों में भरकर आग पर डालने लगा। तीसरे दल ने बाल्टियों में पानी भरकर कतारों में आग लगने वाली जगह पहुंचाना शुरू कर दिया। कुशल प्रबंधन से कुछ ही देर में फैलती आग पर कुछ ही देर में काबू पा लिया गया और सभी की जान बच गई।