केवल मनुष्य ही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है पशु नहीं : डा. जगदीश गांधी
केवल मनुष्य ही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है पशु नहीं!
लखनऊ : हिन्दू शास्त्रों के अनुसार परमात्मा ने दो प्रकार की योनियाँ बनाई हैं। पहली ‘मनुष्य योनि’ एवं दूसरी ‘पशु योनि’। चैरासी लाख ‘‘विचार रहित पशु योनियों’’ में जन्म लेेने के पश्चात् ही परमात्मा कृपा करके मनुष्य को ‘‘विचारवान मानव की योनि’’ देता है। इस मानव जीवन की योनि में मनुष्य या तो अपनी विचारवान बुद्धि का उपयोग करके व नौकरी या व्यवसाय के द्वारा या तो अपनी आत्मा को पवित्र बनाकर परमात्मा की निकटता प्राप्त कर ले अन्यथा उसे पुनः 84 लाख पशु योनियों में जन्म लेना पड़ता हैं। इसी क्रम में बार-बार मानव जन्म मिलने पर भी मनुष्य जब तक अपनी ‘विचारवान बुद्धि’ के द्वारा अपनी आत्मा को स्वयं पवित्र नहीं बनाता तब तक उसे बार-बार 84 लाख पशु योनियों में ही जन्म लेना पड़ता हैं और यह क्रम अनन्त काल तक निरन्तर चलता रहता हैं। केवल मनुष्य ही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है पशु नहीं।
मनुष्य की कितनी वास्तविकतायें हैं?
मनुष्य की तीन वास्तविकतायें हैं – वह एक भौतिक प्राणी है, वह एक सामाजिक प्राणी है एवं वह एक आध्यात्मिक प्राणी है। मनुष्य को परमात्मा ने निपट भौतिक प्राणी ही नहीं बनाया है वरन् मनुष्य को भौतिक प्राणी बनाने के साथ ही साथ उसे सामाजिक एवं आध्यात्मिक प्राणी भी बनाया है। परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को किसी परिवार में जन्म देकर उसे एक परिवार (लघु समाज) का अंग या सदस्य बनाया है। छोटी उम्र में तो बालक अपने परिवार (या लघु समाज) का सदस्य होता है तथापि वह बड़ा होकर संसार के व्यापक समाज का सदस्य होता है साथ ही मनुष्य ‘आध्यात्मिक प्राणी’ भी है क्योंकि परम पिता परमात्मा ने मनुष्य को शरीर के साथ ही साथ उसे आत्मा भी दी है।
मनुष्य क्या वातावरण का दास है? हाँ!
एक बालक शुद्ध, दयालु एवं ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित पवित्र आत्मा लेकर इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। बालक के तीन विद्यालय होते हैं:- (अ) पहला विद्यालय ‘परिवार’, (ब) दूसरा ‘स्कूल’ तथा (स) तीसरा ‘समाज’। बाल्यावस्था में बालक अपने बड़ों का अनुसरण करना सीखता है। मनुष्य वातावरण का दास है। वह परिवार, स्कूल तथा समाज में जैसा देखता व सुनता है वैसा उसका अच्छा या बुरा चरित्र निर्मित हो जाता है। किन्तु बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे-वैसे उसमंे ‘‘विचार करने की क्षमता’’ का भी विकास होता जाता है। यद्यपि बचपन से बालक में जैसी आदत डाल दी जाँये वैसा व्यक्ति ही वह बन जाता है। किन्तु यह भी सही है कि गलत आदतों के विकसित होने के बावजूद भी कोई भी व्यक्ति ‘स्वयं विचार करके’ तथा ‘ईश्वर की प्रार्थना’ की सहायता से ‘अपने चिन्तन, दृष्टिकोण एवं आदतों’ को भी बदल सकता है और संसार का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन सकता है।
क्या विकृत व्यक्ति भी अपनी आत्मा का विकास कर सकता है? हाँ!
शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली एक सतत् प्रक्रिया है। माता-पिता, शिक्षक तथा समाज द्वारा दी गई गलत शिक्षा के कारण यदि किसी व्यक्ति का जीवन विकृत हो जाये तब भी क्या ‘मनुष्य’ अपनी चिन्तनशील बुद्धि से विचार करके अपने चिन्तन और दृष्टिकोण में कभी भी परिवर्तन कर सकता है? हाँ! उद्देश्यपूर्ण शिक्षा एवं अध्यात्म के द्वारा ‘विचारवान मनुष्य’ अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। उद्देश्यपूर्ण शिक्षा और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और उद्देश्यपूर्ण शिक्षा का एक ही काम है मनुष्य को ‘प्रभु की इच्छा’ का ज्ञान कराकर सही मायने में शिक्षित करना’। क्योंकि जिस व्यक्ति को प्रभु की इच्छा या प्रभु की शिक्षाओं का ज्ञान नहीं होता वह अशिक्षित ही है। अतः माता-पिता तथा शिक्षकों को भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ ‘बाल्यावस्था से ही बालक को प्रभु इच्छाओं और आज्ञाओं का ज्ञान भी कराना चाहिये’ ताकि मानव जीवन संतुलित रूप से विकसित हो सके।
क्या केवल मनुष्य को विचारवान बुद्धि मिली है पशु को नहीं? हाँ!
पशु और मनुष्य इन दोनों योनियों में केवल इतना फर्क है कि परमात्मा ने पशु को (जो केवल एक भौतिक प्राणी है) उचित-अनुचित का विचार करने की बुद्धि नहीं दी है, जबकि परमात्मा ने मनुष्य को विचारवान बुद्धि दी है। मनुष्य इस विचारवान बुद्धि के माध्यम से उचित-अनुचित का विचार कर सकता है। पशु उचित-अनुचित का विचार नहीं कर सकता। मनुष्य अपनी विचारवान बुद्धि का उपयोग करके अपने जीवन की तीनों वास्तविकताओं अर्थात (अ) भौतिक, (ब) सामाजिक एवं (स) आध्यात्मिक वास्तविकताओं’ में संतुलन स्थापित कर सकता है। केवल मनुष्य ही कोई भी कार्य करने के पूर्व उसके ‘अंतिम परिणाम’ पर विचार कर सकता है। पशु यह विचार नहीं कर सकता है।
परमात्मा ने यह सारी सृष्टि किसके लिए बनायी है? मनुष्य के लिए!
सृष्टि के रचनाकार परम पिता परमात्मा ने यह सम्पूर्ण सृष्टि ‘मनुष्य’ के लिए बनाई है। परमात्मा ने जब यह सृष्टि बनायी तब प्रथम स्त्री एवं पुरूष के रूप में ‘मनु-शतरूपा’ या ‘एडम-ईव’ को एक साथ स्वयं अपनी आत्मा से उत्पन्न किया। इस प्रकार परमात्मा द्वारा सृजित धरती के प्रथम मानव परिवार की स्थापना हुई। जो अब बढ़कर 7 अरब से अधिक व्यक्तियों का भरा पूरा विश्व परिवार बन चुका है। सृष्टि का रचयिता हमारा परम पिता परमात्मा सम्पूर्ण सृष्टि के समस्त प्राणि मात्र की सेवा करता है तथा हम सभी उसी एक परमात्मा की संतान हैं इसलिए हमारा धर्म अर्थात कत्र्तव्य है कि हम भी अपनी आत्मा के पिता परमात्मा की तरह श्रेष्ठ भावना से मेहनत एवं ईमानदारी से अपनी रोटी कमाते हुए आत्मा का विकास करें और सम्पूर्ण मानव जाति की सेवा करें।