UP के इस मुख्यमंत्री, ने चंदा मांगकर नीलामी में खरीदा था स्कूल
नई दिल्ली: पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, वरिष्ठ भारतीय राजनेता और उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे। इनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1954 तक रहा। बाद में ये भारत के गृहमंत्री भी बने। भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने और जमींदारी प्रथा को खत्म कराने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था।
भारत रत्न का सम्मान उनके ही गृहमन्त्रित्व काल में आरम्भ किया गया था। बाद में यही सम्मान उन्हें 1947 में उनके स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान देने, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा भारत के गृहमंत्री के रूप में उत्कृष्ट कार्य करने के उपलक्ष्य में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रदान किया गया।गोविंद बल्लभ पंत का जन्म 10 सितम्बर 1887 को अल्मोड़ा जिले के श्यामली पर्वतीय क्षेत्र स्थित गांव खूंट में महाराष्ट्रीय मूल के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनकी मां का नाम गोविन्दी बाई और पिता का नाम मनोरथ पन्त था। बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिश उनके दादा बद्री दत्त जोशी ने की। 1905 में उन्होंने अल्मोड़ा छोड़ दिया और इलाहाबाद चले गये। म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में वे गणित, साहित्य और राजनीति विषयों में सबसे तेज थे।
अध्ययन के साथ-साथ वे कांग्रेस के स्वयंसेवक का कार्य भी करते थे। 1907 में बी.ए. और 1909 में कानून की डिग्री हासिल की। उन्हें कॉलेज की ओर से “लैम्सडेन अवार्ड” दिया गया।1910 में उन्होंने अल्मोड़ा आकर वकालत शूरू कर दी। वकालत के सिलसिले में वे पहले रानीखेत गए फिर काशीपुर में जाकर प्रेम सभा नाम से एक संस्था का गठन किया जिसका उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरुकता उत्पन्न करना था।
1909 में पंतजी के पहले पुत्र की बीमारी से मृत्यु हो गई और कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भी मृत्यु हो गई। उस समय वह केवल 23 साल की थी। परिवार के दबाव पर 1912 में पंत जी का दूसरा विवाह अल्मोड़ा में हुआ। पंत जी काशीपुर में सबसे पहले ‘नजकरी’ में नमक वालों की कोठी में एक साल तक रहे। साल 1912-13 में पंतजी काशीपुर आए उस समय उनके पिता जी ‘रेवेन्यू कलक्टर’ थे। श्री ‘कुंजबिहारी लाल’ जो काशीपुर के वयोवृद्ध प्रतिष्ठित नागरिक थे, का मुकदमा पंत’ जी द्वारा लिए गए सबसे ‘पहले मुकदमों’ में से एक था। इसकी फीस उन्हें 5 रुपए मिली थी।
1916 में पंत जी ‘राजकुमार चौबे’ की बैठक में चले गए। चौबे जी पंत जी के अनन्य मित्र थे। उनके द्वारा दबाव डालने पर दोबारा शादी के लिए राजी होना पडा तथा काशीपुर के ही श्री तारादत्त पाण्डे जी की पुत्री ‘कलादेवी’ से उन्होंने शादी की। उस समय पन्त जी 30 साल के थे। गोविन्द बल्लभ पंत जी का मुकदमा लड़ने का ढंग निराला था, जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे, पंत जी उनका मुकदमा नहीं लेते थे। काशीपुर में एक बार गोविन्द बल्लभ पंत जी धोती, कुर्ता तथा गांधी टोपी पहनकर कोर्ट चले गए। वहां अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने आपत्ति की।
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9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड करके उत्तर प्रदेश के कुछ नवयुवकों ने सरकारी खजाना लूट लिया तो उनके मुकदमें की पैरवी के लिए अन्य वकीलों के साथ पन्त जी ने जी-जान से सहयोग किया। उस समय वे नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य भी थे। 1927 में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ व उनके तीन अन्य साथियों को फांसी के फन्दे से बचाने के लिए उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा किन्तु गान्धी जी का समर्थन न मिल पाने से वे उस मिशन में कामयाब न हो सके।
1928 के साइमन कमीशन के बहिष्कार और 1930 के नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया और मई 1930 में देहरादून जेल की हवा भी खायी। 17 जुलाई 1937 से लेकर 2 नवम्बर 1939 तक वे ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा यूपी के पहले मुख्यमन्त्री बने। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर सौंपा गया और वे 1 अप्रैल 1946 से 15 अगस्त 1947 तक संयुक्त प्रान्त यूपी के मुख्य मन्त्री रहे।
जब भारत का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्व सम्मति से उपयुक्त पाया गया। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनामित राज्य के भी वे 26 जनवरी 1950 से लेकर 27 दिसम्बर 1954 तक मुख्यमन्त्री रहे। 7 मई 1961 को दिल की बीमारी की वजह से पंत जी की मृत्यु हो गयी। उस समय वे भारत सरकार में केन्द्रीय गृह मन्त्री थे। उनके निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री उनके उत्तराधिकारी बने।