अद्धयात्म

कैसे करें दीपावली पूजन

Captureदीपावली पूजन के मुहूर्त तथा लग्न द्विजाचार्यों से ज्ञात कर लें बुधवार के दिन दोपहार 12 बजे से 1.30 बजे तक राहुकाल रहेगा जो ठीक नहीं। इस बार मकर, कुम्भ, मेष, वृष लग्नें पूजा के लिए उत्तम है, रात्रि बेला में सायं सात बजे से 9.45 तक दीपावलीपूजन श्रेष्ठ है, प्रदोष बेला में दीपावली पूजन अच्छा कहा गया है, सर्वप्रथम एक चौकी पर साफ नया वस्त्र बिछाकर पूर्व मुख होकर लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति को विराजमान करें। मूर्ति अगर चांदी-सोने या किसी धातु की है तो हर बार पूजन में लायी मिट्टी की मूर्ति को नई लाकर पूजा करनी चाहिये। पूजन के लिए जलपात्र, रोली, चन्दन, सिन्दूर, चावल, अक्षत, कलावा, फल, मिष्ठान, धूपबत्ती इत्यादि रख लें। चौकी पर छ: चौमुखे एवं 26 छोटे दीपक रखने चाहिये। मूर्ति को जल पंचामृत इत्यादि से स्नान कराकर शुद्ध वस्त्र पहनायें, रोली, चन्दन, सिन्दूर अक्षत, पुष्प अर्पित करें, धूप, दीप दिखाकर मिष्ठान, खील, बताशे, फल इत्यादि चढायें तथा आरती करें। पूजन महिलाएं एवं पुरुष एक साथ कर सकते हैं। पूजन के बाद दीपों को घर के समस्त कोनो में जाकर रखें। एक चौमुखा दीपक लक्ष्मी गणेश जी के पास जलने दें। दीपावली की रात्रि में लक्ष्मी जी समुद्र से प्रकट होकर सभी के घरों में जाकर देखती हैं, जहां साफ- सफाई पवित्रता दिखती है वहां ठहर जाती हैं।

हर बार की तरह इस वर्ष भी कार्तिक मास दस्तक दे चुका है और सभी प्रतिवर्ष की भांति दीपावली पर्व की तैयारियों को लेकर व्यस्त हो चुके हैं, घर की साफ-सफाई रंगाई-पुताई से लेकर सभी के नये कपड़े खरीदने तक की व्यस्तता दिखाई पड़ने लगी है। बाजारों में दुकानदारों के चेहरे की रौनक खरीदारों को देखकर कई गुना बढ़ने लगी है। पटाखे-खिलौने और मिठाई के स्टॉल सजने प्रारम्भ हो चुके हैं और सभी बेसब्री से भारतवर्ष के सबसे बड़े पर्व दीपावली का इंतजार कर रहे हैं। आखिर दीपावली पर्व ही ऐसा है कि हर कोई इसकी प्रतीक्षा करता है और खासतौर पर बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है। पांच दिनों तक हम इस पर्व को मनाते हैं और पांचों दिन इसमें विविधताएं देखने को मिलती हैं। धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भैयादूज के त्योहारों का समूह दीपावली कब व्यतीत हो जाती है पता ही नहीं चलता। इसके पहले दिन कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को धनतेरस तथा धन्वन्तरि जयंती के रूप में मनाया जाता है। आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरि इसी दिन समुद्र मन्थन से स्वर्णमय कलश में अमृत लेकर प्रकट हुये थे। अमृत की एक बूंद भी किसी को प्राप्त हो जाये तो उसे फिर उसका ज्वर, पीड़ा, मृत्यु कुछ नहीं कर सकती, इसलिये भगवान धन्वन्तरि से बड़ा कोई वैद्य नहीं है। आज के दिन चिकित्सक वर्ग धन्वन्तरि भगवान की प्रार्थना करता है। भगवान की पूजा कर सभी के आरोग्य एवं कल्याण की प्रार्थना करते हैं। भगवान धन्वन्तरि अमृत को सवर्णमय कलश में रखकर प्रकट हुए थे, अत: इस दिन बर्तन खरीदने का विशेष महत्व है।
कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी अर्थात होने वाले हिन्दी महीने की 13वीं तिथि, इसको धनवृद्धि के लिए शुभ माना गया ह,ै अत: इस दिन खरीदारी करना विशेष शुभ माना गया है। इसमें चांदी खरीदना लाभकारी होता है। तभी इसे धनतेरस अर्थात धन बढ़ाने वाली त्रयोदशी भी कहते हैं, इस दिन सायंकाल के समय घर की दक्षिण दिशा में मृत्यु के देवता यम के लिए तेल का दीपक रखने का विधान है। प्राचीन कथा के अनुसार ऐसा करने वाले को मृत्यु की पीड़ा प्राप्त नहीं होती तथा उसकी आय में वृद्धि होती है। धनतेरस के अगले दिन कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी या नरक चौदस का पर्व मनाया जाता है। लौकिक मन्यतानुसार इस दिन कलश के जल से स्नान करने की भी प्रथा है। शाम के समय यमराज के लिए दीपदान किया जाता है। दीपावली से एक दिन पूर्व होने के कारण इसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था। नरकासुर बड़ा ही शक्तिशाली तथा क्रूरकामी था। इसने अपने किले में सोलह हजार एक सौ कन्याओं को कैद कर रखा था और ये एक लाख कन्याओं को एकत्र कर एक साथ उनसे विवाह करना चाहता था। भगवान श्रीकृष्ण ने इस राक्षस का वध किया। नरकासुर के आतंक से दुखी कन्याओं एवं पीड़ित लोगों को नरकासुर के नरक से मुक्ति मिली और उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक आजादी का पर्व मनाया, दीप जलाकर खुशियों को दर्शाया। नरक अर्थात बुराई कुत्सित विचारधारा, पापकर्मो को छोड़ना या इनसे छूटना ही नरक चतुर्दशी का सैद्धान्तिक रूप है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में इस दिन साफ-सफाई का बड़ा ध्यान रखा जाता है। नरक चौदस के अगले दिन दीपावली का पर्व मनाया जाता है जिसे हम प्रकाशपर्व के रूप में भी जानते हैं। दीपावली अर्थात दीपों की पंक्तियां भगवान श्रीराम के चौदह वर्ष के वनवास में रहने के बाद अयोध्या लौट आने की खुशी में अयोध्या वासियों ने इसे मनाया था। वे अपने घरो में घी के दीपक जलाये थे, अयोध्यावासियों ने सांकेतिक रूप से अपनी भावनाओं का इजहार किया, आपके वन जाने से हमारे जीवन में अंधेरा आ गया था आप आ गये पुन: जीवन में प्रकाश आ गया अत: ये पर्व- तमसो मा ज्योतिर्गमय- अंधेरे से प्रकाश की ओर बढ़ने का संकेत देता है। भारतवर्ष के प्रायद्वीप वासी इस दिनों को नरकासुर भगवान श्रीकृष्ण की विजय दिवस के रूप में मनाते हैं। प्रात: जल्दी उठकर हल्दी, कुमकुम का नकली रक्त बनाकर राक्षस के रूप में कड़वे फलों को अपने पैरों से कुचलकर प्रसन्नता पूर्वक नकली रक्त एक दूसरे के मस्तक पर लगाते हैं, फिर स्नान आदि करके मन्दिरों में पूजा-अर्चना करते हैं, मिठाई-फल आदि खाते हैं, पश्चिम बंगाल मे यह त्योहार काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। इसी रात्रि को भगवती महाकाली का भी जन्म माना जाता है तन्त्र सिद्धियों के लिये यह रात्रि अति उत्तम मानी गयी है।
विशेषतया सम्पूर्ण रूप से इस दिन माता लक्ष्मी, भगवान गणेश एवं कुबेर की पूजा की जाती है। इसी दिन माता लक्ष्मी का जन्मदिन भी माना जाता है। पुराणों की कथाओं के अनुसार कार्तिक अमावस्या के दिन भगवान विष्णु ने दैत्यराज बलि से तीन पग भूमि के रूप में त्रिलोक को नाप लिया था तथा बलि को पातालपुरी भेज दिया था।
उदार राजा बलि को भगवान ने ज्ञान प्रदान किया था और ये आदेश दिया था कि दीपावली की रात्रि को वह धरती पर आकर लोगों को ज्ञान प्रदान करें। ऐसी मन्यता है कि आज भी इस रात्रि को भगवान की आज्ञानुसार राजा बलि धरती पर आकर लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं और प्रेम पूर्वक रहने की शिक्षा देते हैं। देवराज इन्द्र ने भगवान विष्णु की कृपा से राजा बलि इस दिन वापस स्वर्ग का राज्य पाया था, अत: प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग में दीपक जलवाकर खुशी मनायी। दीपावली के सन्दर्भ में ऐसी अनेक कथाएं प्रचलित हैं।
इसी दिन चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने नाम से विक्रम संवत की स्थापना की थी तथा ज्योतिषी विद्वान परामर्श से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत मनाने का निर्देश दिया था। इस दिन घरों में ही नहीं वरन व्यापारिक प्रतिष्ठानो में भी लक्ष्मी-गणेश व कुबेर का पूजन किया जाता है, कलम-दवात, तिजोरी का पूजन तथा नये बही-खाते का प्रारम्भ इसी दिन पूजन करके किया जाता है।=
दीपक बुझने को जलता है

किसी कवि ने दीपक की कठिनाइयों एवं त्याग के बारे में लिखा है-
दीपक बुझने को जलता है,
मरण सदा से ही जीवन के आंचल में पलता है।
दीपक बुझने को जलता है।
दीपदान देता सुदृष्टि को जब तक होता नहीं उजाला
अंधकार को कर प्रकाशमय बुझ जाता है जलने वाला।
बनकर मिटना विधिविधान है कभी नहीं यह टलता है।
दीपक बुझने को जलता है।
सोचा समीन ने इसे बुझा दूं बुझा नहीं पर जलने वाला।
विहन आये पर रुका नहीं कर्तव्य मार्ग पर चलने वाला।
बुझा पूर्ण कर्तव्य निभाकर रुक जाना ही तो निर्बलता है।
दीपक बुझने को जलता है।
राजेश! पूर्ण निष्काम भावयुत सेवा ही सच्चा साधन है।
परहित ही प्रभु की पूजा है यही दीप का जीवन धन है।
प्रकृति के नियमानुसार दीप क्या सूरज भी ढलता है।
दीपक बुझने को जलता है।

 

पर्व का सैद्धान्तिक महत्व

लक्ष्मी जी कामी, क्रोधी, गन्दे, दोपहर तक सोने वाले तथा अत्यन्त कृपण व्यक्ति के पास नहीं ठहरती। लक्ष्मी केवल दो ही देवों के साथ पूजी जाती है जिसमें भगवान विष्णु और भगवान गणेश जी हैं। भगवान विष्णु प्रेम तथा सात्विकता के प्रतीक हैं, वही गणेश जी बुद्धि तथा विवेक के प्रतीक हैं अर्थात जहां प्रेम सौहार्द, सात्विकता, दूसरों से भी स्नेह और दया है, धन कैसे खर्च करें ये विवेक बुद्धि है, लक्ष्मी जी वहीं पूजी जाती हैं, वहीं शोभापाती हैं, ऐसे स्थानों पर लक्ष्मी कमलासना बनकर ठहरती हैं, जीवन में खुशियां लेकर आती हैं। यह पावन पर्व केवल मिठाई खाने, पटाखे फोड़ने तक ही सीमित न रहे अपितु हमारे हृदय में भी दीपक की भांति प्रेम, उदारता तथा दूसरों के लिए अर्पण और त्याग की भावना प्रकट होने का प्रयास होना चाहिये। दीपावली के दूसरे दिन गांवों में विशेष रूप से गाय के गोबर से गोवर्धन को बनाकर पूजा की जाती है। इसके अगले दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है जिसे यम द्वितीया भी कहते हैं, इस दिन यमराज तथा उसकी बहन यमुना का जन्म माना जाता है। इसदिन यमुना में स्नान शुभ माना जाता है। इस दिन बहनें अपने भाई के माथे पर रोली-चन्दन का टीका लगाती हैं तथा भगवान से उनकी लम्बी उम्र की कामना करती हैं। भाई भी बहनों को उपहार स्वरूप धन, वस्त्र आदि प्रदान करते हैं।

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