कौन कहता है, गैर-राजनीतिक होता है राष्ट्रपति
देश के सबसे बड़े और संवैधानिक ओहदे पर बैैठने वाले राष्ट्रपति पद को आमजन अक्सर गैर राजनीतिक पद मानता रहा है लेकिन ये पद वास्तव में गैर ाराजनीतिक नही बल्कि राजनीतिक ही है। जिस भी राजनीतिक दल की सरकार केन्द्र में सत्तारूढ़ होती है राष्ट्रपति की वाफादारी भी उसी के प्रति होती है। जब-जब भी सत्तारूढ़ दलों के समक्ष कोई राजनीतिक मुसीबत खड़ी होती है तब-तब राष्ट्रपति उसके पक्ष में खड़े होते रहे है। ये उनक पद की कमजोरी कहे या मजबूरी लेकिन इस तरह के प्रयासों ने साख पर बट्टा लगाने का काम किया है। खैर। इस समय राष्ट्रपति पद के एनड़ीए उम्मीदवार रामनाथ कोविद को लेकर जिस जरह से राजनीतिक गर्मा-गर्मी बनी हुई है उसे देख कर भी हम यह कह सकते है कि यह गैर राजनीतिक पद नही है। गर यह गैर राजनीतिक पद होता तो कांग्रेस और सहयोगी दल मिलकर संयुक्त रूप से अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में मीरा कुमार को मैदान में नही उतारते। यह इस पद का दुर्भाग्य कहे या सौभाग्य लेकिन जब से इस पद का राजनीतिकरण हुआ है तब से इसके मान-सम्मान में भी कमी देखी जा रही है। अतीत में समय-समय पर सत्तारूढ़ दलों ने राष्ट्रपति को खिलौना बनाकर अपनी मर्जी का खेल, खेलने का जो स्वार्थपरक काम किया है वह भी घीनोना ही रहा है। आज जो स्थिति राष्ट्रपति चुनाव को लेकर बनजी जा रही है यह और भी निराशाजनक होती जा रही है। बहरहाल हम आपको थोड़ा अतीत में लेकर चलते है। राष्टपति जैसे अहम और संवैधानिक पद के राजनीतिकरण का पहला प्रयास देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय से ही हो गया था, कालातंर में यह और बढ़ते चला गया। बतौर प्रमाण हम यहां एक वाकये से जानने की कोशिश करते है कैसे राष्ट्रपति का राजनीतिकरण हुआ। सनद रहे कि जब देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद बने तो उनका ख्याल था कि उनकी हैसियत गैर-राजनीतिक और सत्ताधारी दल से ऊपर है। उननेे इस मुद्दे पर बहस करवानी चाही तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें जो टका-सा जवाब दिया , उसका आशय यही था कि फैसला तो प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल करेगा, आपको तो सिर्फ उस पर मुहर लगानी होगी। उस दिन के बाद से शायद ही किसी ने इस बहस में गंभीरता दिखाई हो कि देश की राजनीतिक व्यवस्था से ऊपर या इतर राष्ट्रपति के अधिकार हैं या नहीं?
इसके बाद से ही राजनीतिक दलों, खासतौर से सत्ताधारी दलों ने राष्ट्रपति को सियासी मामलों में खूब इस्तेमाल किया है। इंदिरा गांधी ने देश में जो इमरजेंसी लगाई थी, उसके आदेश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने लगभग आंख बंद करके बखूबी दस्तखत कर दिए थे। अब हम समझ सकते है कि मोदी के रात में कोविंद की क्या गत होगी। अब हम मोरारजी देसाई के कार्यकाल में चलते है। जब मोरारजी की सरकार ने बहुमत खो दिया था और जनता पार्टी ने बाबू जगजीवनराम के नेतृत्व में नई सरकार बनानी चाही तो तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने उन्हें ऐसा करने की इजाजत नही दी। उनके इस फैसले के विरोध में जनता पार्टी के लोग राष्ट्रपति भवन के सामने जमा हुए और पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर ने कहा कि संजीव रेड्डी के खिलाफ माहाभियोग चलाया जाना चाहिए, क्योंकि उनका यह फैसला सियासी है और इंदिरा गांधी के प्रभाव में आकर किया गया है। सच्चाई जो भी हो मगर संजीव रेड्डी के उस विवादास्पद फैसले ने ही इंदिरा गांधी को दोबारा सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त किया था। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी का मनमुठाव भी काफी चर्चा में रहा है। कहानियां तो यहां तक है कि ज्ञानी जैल सिंह ने राजीव की सरकार को बरखास्त करने की योजना तक बना ली थी। हालाकि सच तो आज भी किसी को मालूम नही है।
ठीक इसी तरह से सन 1996 में राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाना भी एक विवादास्पद सियासी फैसला ही माना जाता है। उनने जब भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाया तब तो ऐसा लग रहा था कि सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित करके संवैधानिक परंपरा का पालन किया है पर जब बहुमत सिद्घ न कर पाने पर 13 दिन बाद ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई तो शंकर दयाल शर्मा के फैसले पर भी सवाल उठने लगे थे। खैर, इसके बाद ही नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) बनाने का रास्ता भाजपा को सूझा और बाद में एनडीए के सहारे भाजपा को छह साल तक हुकूमत करने का मौका मिला। बताते चले कि राष्ट्रपति को अपने हाथ की कठपुतली बनाने में भाजपा भी पीछे कभी नहीं रही है। बात सन 2001 के गणतंत्र दिवस की है। उस समय अपने भाषण में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को सरकार को चेतावनी देनी पड़ी कि नियंत्रित लोकतंत्र देश के लिए खतरनाक है। यह बात उन्हें इसलिए कहनी पड़ी क्योंकि भाजपा के हलकों में उन दिनों यह बहस चल पड़ी थी कि सरकार का कार्यकाल निश्चित होना चाहिए और बार-बार के मध्यावधि चुनाव से देश को मुक्ति मिलनी चाहिए। हालाकि उस समय के. आर. नारायणन के बयान की भाजपा नेताओं ने तीखी आलोचना की थी। ऐसी बहुत-सी मिसाले हैं, जो यह साबित करती हैं कि राष्ट्रपति का ओहदा सियासतबाजी की चाशनी में किस कदर लिपटा हुआ है। यह सिर्फ कागजी बातें है कि राष्ट्रपति नाम की हस्ती गैर-राजनीतिक, तटस्थ और दलगत राजनीति से उठी होती है। यूं ही कोई राजनीतिक दल गैर राजनीतिक पद के लिए चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा और सियासी हार जीत का मुद्दा नही बना लेता हैं। इतिहास में बने हालातों को मद्देनजर रखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति से ज्यादा राजनीतिक शायद ही कोई चीज हो। एक गैर-राजनीतिक सिलसिले को अंजाम तक पहुंचाने के लिए कोई राजनीतिक दल आखिर इतनी मशक्कत क्यों करेगा?
(लेखक मीडिय़ा रिलेशन पत्रिका का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर कलम चलाते है।)