दस्तक-विशेष

क्या वे “वर्किंग वूमन” नहीं हैं?

नारी कालम : सुमन सिंह

“और जी कैसे हो, कब आये?”

हिमाचल प्रदेश के एक गांव में यह आवाज सुनाई दी जहां इस बार गर्मी की छुट्टियों में जाना हुआ। आवाज़ की तरफ मुड़ने पर दिखाई देता है ऊंची-नीची पथरीली पगडंडी पर हरी पत्तियों के बड़े से गट्ठर तले पतला-दुबला शरीर।
“ठीक हूँ। अपना बताओ?”
“हम भी बढ़िया….आओ कभी…हैं..चाय-चुई पीने।” बोझ के नीचे दबे-दबे वह आत्मीय आमन्त्रण दे बैठती हैं। मुझे याद हो आती है पहले कभी पी वह निछान दूध वाली खूब मीठी चाय। इतनी मीठी कि घंटों उसकी मिठास तालू से चिपकी रह जाय। चाय की चुस्कियों के साथ दुनिया-जहान की बातें।
“आप आइये।” मेरे निमंत्रण पर खिलखिला देती हैं वो।
“आयेंगे, आयेंगे। अभी तो हमारे को बहुत काम है…फिर आएंगे।” मैं कल्पना करने लगती हूँ बोझ के तले वे निश्छलता से मुस्कराई होंगी और उनका सुन्दर, सुचिक्कन चेहरा दमक उठा होगा।
पहली मुलाकात में ही उन्होंने मुस्कराकर बड़ी सहजता से अपना बना लिया था। उनको कभी खेत बीजते देखा तो कभी सर पर कनस्तर भरा पानी सम्हाले download (1)ढलान उतरते देखा। कभी वह पशुओं को हांकती पानी पिलाने जातीं तो कभी गाय दुहती नज़र आतीं। कभी ‘बान’ के पेड़ की पतली टहनियों पर पैर जमाये पत्तियाँ काटती दिखाई देतीं। पूछने पर बतातीं जब बारिशें नहीं होतीं तो ये बान की पतियाँ बड़ी सहारा होती हैं। दुधारू पशुओं के लिए खासकर। उनकी तरह ही गाँव की सारी औरतें और लड़कियाँ भी इसी तरह अपनी गृहस्थी में लीन दिखती है। गृहस्थी के साथ-साथ ये कामकाजी भी हैं, नौकरियां करती हैं जिसके लिए उन्हें बस से लंबा सफर करना पड़ता है।
शिक्षा का समान अधिकार यहाँ काफी हद तक फलीभूत होते देखा जा सकता है। लड़के-लड़कियों में लगभग कोई भेद नहीं। रसोई, खेत और पशुओं तक के सारे काम दोनों ही समभाव से करते हैं। देखने सुनने में यह सब बहुत ही साधारण और सहज लगता है। ये स्त्रियाँ क्या अनोखा कर रही हैं जिसका उदाहरण दिया जाय…क्या खास है इनमें।
खास है इनकी सहज जीवंत मुस्कान…..ये मुस्कराती हैं…..कठिन से कठिन समय में भी धीरज नहीं खोतीं….जिजीविषा से भरी-पूरी ये अभावों की शिकायतों में उम्र नहीं घटातीं। हर जगह पहाड़ की औरतें हिमाचल जितनी खुशकिस्मत नहीं है। कई जगहों पर पुरुष चाय की दुकानों में बैठे ताश खेलते दिन काट देते हैं और वे सारे काम करती हैं।
कई इलाकों में शराब का अभिशाप लगा है जहां वे ईश्वर से गुहार, टोने-टोटकों से लेकर आंदोलन तक के उपायों से जूझ रही हैं। मैदानी इलाकों में उनका योगदान कम नहीं है लेकिन वहां उन पर पितृसत्ता के रचे धर्म, रिवाज और परंपरा के प्रतिबंध ज्यादा है, सामाजिक जीवन में दखल न के बराबर है।
मुझे याद आती हैं महानगरों की हैंडबैग लटकाए, हाथ में मोबाइल फोन थामे, पहली नजर में चमकीली लगने वाली स्त्रियां जो अपनी न पूरी होने वाली अनंत अपेक्षाओं की बातें करती रहती है। तब उनका अनोखापन समझ में आने लगता है। ध्यान जाता है शहरों में उम्र बढ़ने के साथ स्त्रियां भारी होने लगती हैं। बढ़ती चर्बी उन्हें बेडौल ही नहीं करती बहुत सी बीमारियां भी साथ में देती है, फिगर को बनाए रखने की व्याकुल कोशिश में डाइटिंग से लेकर जिम जाने तक के उपाय आजमाए जाते हैं लेकिन इन देहाती महिलाओं को परिश्रम और जिंदगी के प्रति सकारात्मक नजरिया तुलनात्मक रूप से फिट रखता है।
शहरों में घर से बाहर निकल कर स्कूल, अस्पताल, और हर प्रकार के सार्वजनिक और निजी दफ्तरों में काम करने वाली स्त्रियों को वर्किंग वूमन कहा जाता है। उन्हें आगे बढ़े हुए तबके के रूप में एक खास दर्जा हासिल है।
अजीब यह है कि इन स्त्रियों को जो जंगल, पहाड़, खेत में कहीं ज्यादा असुरक्षित और कठिन परिस्थितियों में लगातार काम करती दिखाई देती हैं किसी ने वर्किंग वूमन नहीं कहा यानि उनके श्रम को अलग से रेखांकित नहीं किया जबकि कृषि आधारित देश की अर्थव्यवस्था में उनका योगदान बहुत बड़ा है।
उन्होंने आज तक घर और खेतों में अपने योगदान को पहचाने जाने की मांग भी नहीं उठाई। उनकी एतिहासिक चुप्पी और सहन करने की क्षमता ही सब कुछ है आप जिसका जो चाहे मतलब निकालने के लिए स्वतंत्र हैं।
इन दिनों औरतें हर कहीं अपनी पहचान और अधिकारों के लिए जद्दोजहद करती दिखाई दे रही हैं और नारीवाद का बोलबाला है। संसद, टीवी चैनलों, सोशल मीडिया से लेकर सभी संभव सार्वजनिक मंचों पर शहरों की औरतें ही छाई हुई हैं जो अंग्रेजी की छौंक लगी हिंदी या खालिस अंग्रेजी में पुरुषों से बराबरी और उनसे आगे निकलने के दावे करती दिखाई देती हैं। बिडंबना यह है कि नारीवाद की सभी किस्मों के दायरे से गांव की औरतें बाहर हैं जबकि सबसे अधिक आबादी उन्हीं की है। क्या उन्हें साथ लिए बिना कोई वाद कामयाब हो सकता है?

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