क्या है त्रिपुंड और क्यों करते हैं इसे धारण?
ललाट अर्थात माथे पर भस्म या चंदन से तीन रेखाएं बनाई जाती हैं उसे त्रिपुंड कहते हैं। हथेली पर चन्दन या भस्म को रखकर तीन उंगुलियों की मदद से माथे पर त्रिपुण्ड को लगाई जाती है। इन तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है। यानी प्रत्येक रेखाओं में 9 देवताओं का वास होता हैं।
विज्ञान की नजर में त्रिपुंड
शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है।
विज्ञान ने त्रिपुंड को लगाने या धारण करने के अनेक लाभ बताएं हैं। विज्ञान कहता है कि त्रिपुंड चंदन या भस्म से लगाया जाता है। चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है। अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है। ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है।
त्रिपुंड में देवताओं का वास
ललाट पर लगा त्रिपुंड की पहली रेखा में नौ देवताओं का नाम इस प्रकार है। अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रिया शक्ति, प्रात:स्वन, महादेव। इसी प्रकार त्रिपुंड की दूसरी रेखा में, ऊंकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा, महेश्वर जी का नाम आता है. अंत में त्रिपुंड की तीसरी रेखा में मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन, शिव जी वास करते हैं।
त्रिपुंड धारण करने के तरीके
यह विचार मन में न रखें कि त्रिपुण्ड केवल माथे पर ही लगाया जाता है। त्रिपुंड हमारे शरीर के कुल 32 अंगों पर लगाया जाता है। इन अंगों में मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पाश्र्व भाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों अरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर शामिल हैं। इनमें अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल और आठ वसुओं वास करते हैं। सभी अंगों का नाम लेकर इनके उचित स्थानों में ही त्रिपुंड लगना उचित होता है।
सभी अंगों पर अलग-अलग देवताओं का वास होता है। जैसे- मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा, मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषिकन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं।
भस्म जली हुई वस्तुओं का राख होता है। लेकिन सभी राख भस्म के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं होता है। भस्म के तौर पर उन्हीं राख का प्रयोग करना चाहिए जो पवित्र कार्य के लिए किये गये हवन अथवा यज्ञ से प्राप्त हो।