राष्ट्रीय

गंगा की सफाई को जागरूकता भी चाहिए

आशा त्रिपाठी

अविरल, अविछिन्न, कल-कल करती गंगा की सफाई सरकारी, कानूनी और राजनीतिक मुद्दा तो बन रहा है, पर इस मुद्दे के सामाजिक सरोकार दूर-दूर तक नहीं दिखते। परिणामस्वरूप, गंगा की सफाई के तमाम दावों के बावजूद नतीजा ढाक के तीन पात ही है। अदालतें कई बार गंगा को प्रदूषण से बचाने में बरती जा रही कोताही पर केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों को फटकार लगा चुकी हैं। मगर गंगा की सफाई का संकल्प बार-बार दोहराए जाने के बाद भी स्थिति जस की तस है। जबकि स्वच्छ गंगा के बिना काफी हद तक जीवन की कल्पना बेमानी होगी। खासकर गंगोत्री से गंगासागर के बीच। बावजूद इसके सरकारी अभियान का फ्लाप होना न सिर्फ दुखद है, बल्कि चिन्तनीय और अफसोसजनक भी है। आखिर यह बात समझ में नहीं आती कि गंगा के सहारे जीवन यापन करने वाले तकरीबन 21 सौ किलोमीटर तक गंगा तट के बाशिन्दे इसे साफ-सुथरा रखने की स्वयं वीणा क्यों नहीं उठाते। वे कानून और सरकार के सहारे क्यों बैठे रहते हैं। जबकि गंगा तट पर रहने वालों के लिए यह सिर्फ नदी नहीं, वरदान है। गंगा सहारे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी हुई है। गंगा सभ्यता, संस्कृति के साथ-साथ जनमानस की आर्थिक समृद्धि की भी द्योतक है। बावजूद इसके गंगा के प्रति उदासीनता दुखद है। यूं कहें कि सरकार चाहे कुछ भी कर ले जब तक गंगा की सफाई के लिए जनता स्वयं जागरूक नहीं होगी, तबतक इस दूभर कार्य को अंजाम देना आसान नहीं है।

बार-बार राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) द्वारा केंद्र और राज्य सरकारों से यह पूछना कि आप कोई भी ऐसी जगह बता दें जहां गंगा की दशा में कोई सुधार आया हो, शर्मनाक है। गंगा कार्य योजना को शुरू हुए तीस साल से अधिक हो गए। इस दौरान करीब पांच हजार करोड़ रुपए खर्च भी हुए। मगर हालत यह है कि हर साल गंगा में गंदगी और बढ़ी हुई दर्ज होती है। इसकी सफाई का काम केंद्र और राज्य सरकारों को मिल कर करना था। इसमें सत्तर फीसद पैसा केंद्र को और तीस फीसद संबंधित राज्य सरकारों को लगाना था। मगर हालत यह है कि औद्योगिक इकाइयों और शहरी इलाकों से निकलने वाले जल-मल के शोधन के लिए आज तक न तो पर्याप्त संख्या में संयंत्र लगाए जा सके हैं और न ही औद्योगिक कचरे के निपटारे का मुकम्मल बंदोबस्त हो पाया है। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला जहरीला पानी जगह-जगह गंगा में सीधे जाकर मिल जाता है। कई बार राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की फटकार पर औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ कड़े कदम उठाने का मंसूबा जरूर बांधा गया, पर उसका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ पाया है। दरअसल, गंगा कार्य योजना में केंद्र और राज्यों के बीच जरूरी तालमेल अब तक नहीं बन पाया है। परिणाम आज सबके सामने है। गंगा जल इतना दूषित है कि वह आचमन के लायक तक नहीं है। इसके लिए कौन दोषी है?

जुलाई 2017 के मध्य में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने हरिद्वार से उन्नाव तक गंगा तट से पांच सौ मीटर की दूरी तक कचरा डालने पर पचास हजार रुपए का जुर्माना लगाने का आदेश दिया है। एनजीटी ने एक विस्तृत फैसले में केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह गंगा सफाई अभियान पर अब और पैसा खर्च न करे। यह फैसला केंद्र और राज्य सरकारों के कामकाज पर भी सवालिया निशान लगाता है। मगर फैसले का त्रासद पहलू यह है कि सुनवाई पूरी होने में इकतीस साल से ज्यादा का वक्त लग गया। अब क्रियान्वयन पर कितना वक्त लगेगा? देश में नदियों की बदहाली को लेकर मुद्दा लंबे समय से जेरे-बहस है। लेकिन जिस ईमानदारी और विश्वसनीयता से कार्य होना चाहिए था, वह कहीं दिखाई नहीं देता। सरकारें गंगा को लेकर चिंतातुर भले दिखती हों, मगर हकीकत यह है कि गंगा की सफाई को लेकर जितनी राशि पिछले तीन दशक में खर्च हुई है वह अपने आप में भ्रष्टाचार की एक अलग कहानी है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आखिरकार एनजीटी को खर्च रोक देने का आदेश देना पड़ा है। एनजीटी ने हरिद्वार से उन्नाव तक सौ मीटर की दूरी को ‘नो-डेवलपमेंट जोन’ घोषित करते हुए पांच सौ मीटर की दूरी तक कचरा वगैरह डालने की मनाही की है। यह लंबाई करीब पांच सौ किलोमीटर है। कचरा फेंकने वाले को पचास हजार रुपए का जुर्माना देना होगा। न्यायाधिकरण ने इसके लिए एक निगरानी समिति का गठन किया है।

हरिद्वार उत्तराखंड व उन्नाव यूपी में है। दोनों सरकारों से कहा गया है कि वे दो साल के अंदर जलमल शोधन संयंत्र लगा लें तथा जलमल निकासी की समुचित व्यवस्था कर लें। साथ ही छह महीने के भीतर जाजमऊ के चमड़ा कारखानों को उन्नाव या कहीं दूसरी जगह स्थानांतरित करने के लिए भी कहा गया है। याचिकाकर्ता ने 1985 में यह अपील दाखिल की थी, जिसे 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने एनजीटी को सुनवाई के लिए भेज दिया था। एनजीटी ने याचिकाकर्ता की सीबीआई या कैग से जांच की मांग पर कुछ नहीं कहा, लेकिन माना कि इस पर अब तक सात हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च हो चुका है। असल में गंगा सफाई का काम सबसे पहले राजीव गांधी के कार्यकाल में करीब नौ सौ करोड़ रुपए के बजट से ‘गंगा कार्य योजना’ नाम से शुरू हुआ था। मौजूदा केंद्र सरकार ‘नमामि गंगे’ नामक एक विस्तृत परियोजना चला रही है, जिसका बजट बीस हजार करोड़ रुपए रखा गया है। जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई नाम से अब एक अलग मंत्रालय है। मगर, गंगा सफाई की वास्तविकता क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। एनजीटी का फैसला सरकारों के लिए एक गंभीर चेतावनी है। अगर अब भी सरकारों की आंख खुल जाए और वे पारदर्शिता व जिम्मेदारी के साथ गंगा सफाई अभियान को सफल बनाने में जुट जाएं तो देर से ही सही एक महत्त्वाकांक्षी योजना हो साकार सकता है। आखिरकार गंगा की सफाई का मामला करोड़ों लोगों के जीवन, रोजगार व आस्था से भी जुड़ा है।

आपको बता दें कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का सवाल मोदी सरकार के लिए परेशानी का विषय है। गंगा को प्रदूषण-मुक्त बनाना भाजपा का एक खास चुनावी मुद्दा था। वाराणसी से सांसद चुने गए प्रधानमंत्री खुद इसमें काफी दिलचस्पी दिखाते रहे हैं। अपनी सरकार बनने के बाद मोदी ने उमा भारती की अगुआई में इसके लिए एक विभाग ही गठित कर दिया। उमा भारती गंगा की सफाई को लेकर बड़े-बड़े दावे करती रही हैं, मगर डेढ़ साल में उनके मंत्रालय ने कथित रूप से एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे हरित अधिकरण संतुष्ट हो सके। गंगा किनारे के शहरों की बहुत सारी औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला दूषित पानी बगैर शोधन के सीधे गंगा में जाकर मिल जाता है। कायदे से सभी औद्योगिक इकाइयों को अपने परिसर में जलशोधन संयंत्र लगाना चाहिए, मगर इस पर आने वाले खर्च से बचने के लिए उनके प्रबंधक-मालिक नियम की अनदेखी करते रहते हैं। राज्य सरकारों के ढुलमुल रवैए की वजह से उन औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठाया जा सका है। राज्य सरकारें ऐसी औद्योगिक इकाइयों के बारे में वास्तविक ब्योरा तक देने से बचती रही हैं। मगर केंद्र का गंगा सफाई महकमा इतना शिथिल क्यों है कि प्रधानमंत्री के संकल्प के बावजूद वह अब तक कोई बड़ा अभियान नहीं छेड़ पाया है। बहरहाल, अब देखना यह है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एजीटी) के नए फैसले के बाद क्या कुछ नया हो पाता है।

Related Articles

Back to top button