राजनीति

गुजरात चुनाव में जमीन पर नहीं दिखता हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण

पिछले दो दशकों में पहली बार गुजरात के मुसलमान इस बार यह सुकून महसूस कर रहे हैं कि इस बार विधानसभा चुनावों में हिंदू मुस्लिम विरोध का कोई मुद्दा नहीं है। हालांकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कार्ड खेलने की कम कोशिश नहीं हुई, लेकिन जमीन पर इसे उतारने में कोई खास कामयाबी मिलती नहीं दिखाई दी।
गुजरात चुनाव में जमीन पर नहीं दिखता हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण पहले चरण के चुनाव प्रचार में राहुल गांधी के हिंदू होने न होने के विवाद से लेकर कांग्रेस को औरंगजेब राज की मुबारकबाद और पाकिस्तान में मणिशंकर अय्यर द्वारा मोदी की सुपारी देने तक के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयानों ने कितना असर डाला है इसका पता तो चुनाव नतीजों से ही चलेगा, लेकिन अहमदाबाद, मेहसाणा, भरूच, सूरत, राजकोट, जूनागढ़, पोरबंदर, जामनगर, द्वारिका और अमरेली के इलाकों में जितने भी लोगों से बात हुई सभी का मानना था कि इस बार हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण कोई मुद्दा नहीं है।

अहमदाबाद में भवन निर्माण व्यवसाय से जुड़े और मुस्लिमों के बीच खासी पैठ रखने वाले शरीफ खान कहते हैं कि इस बार अहमदाबाद की घनी बस्तियों तक में हिंदू मुसलमान का कोई मुद्दा नहीं है। शरीफ खान इसकी बड़ी वजह पाटीदार आंदोलन और पाटीदारों पर हुए बर्बर पुलिस लाठीचार्ज को मानते हैं। वो कहते हैं कि आम तौर पर पाटीदार भाजपा के कट्टर समर्थक रहे हैं और संघ परिवार और भाजपा की हिंदुत्व राजनीति के सबसे बड़े झंडाबरदार रहते आए हैं।

लेकिन इस बार पाटीदारों के आंदोलन और सरकार से युवा पाटीदारों की नाराजगी की वजह से मुस्लिम विरोध की वो लहर नहीं पैदा हुई जो 2002 से लेकर अब तक पिछले सभी चुनावों में पैदा हो जाती थी। शरीफ खान के मुताबिक इस बार सोशल मीडिया में ध्रुवीकरण करने वाले संदेशों और वीडियो क्लिपों को कोई खास तवज्जो नहीं मिली।

अहमदाबाद बाद से मेहसाणा के रास्ते पड़ने वाले मुस्लिम बहुल कस्बे नंदासण में मूसा भाई कहते हैं कि इस बार जातीय अस्मिता ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को पीछे ढकेल दिया है। पाटीदार, ओबीसी और दलित आंदोलनों ने हिंदू मुस्लिम मुद्दे को बेहद कमजोर बना दिया। यह बेहद सुकून की बात है। मूसा भाई की इस बात की इस्माईल भाई और गुलाम मोहम्मद मंसूरी भी ताईद करते हैं। कभी अपक्ष(निर्दलीय) उम्मीदवार के तौर पर कड़ी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ चुके गुलाम मोहम्मद मंसूरी कहते हैं कि इस बार लोग बेरोजगारी, किसानों की दुर्दशा, मंहगी शिक्षा जैसे मुद्दों पर ज्यादा बात करते हैं।

हालांकि, भाजपा के चुनाव प्रचार में गुजरात के लोगों को 1995 से पहले का वक्त याद दिलाकर एक अप्रत्यक्ष चेतावनी भी दी जा रही है कि अगर फिर कांग्रेस सरकार राज्य में बन गई तो वो जमाना लौट आएगा जब लोगों के जानमाल की हिफाजत खतरे में पड़ जाएगी।
मेहसाणा में चाय की दुकान चलाने वाले रमेश भाई इस आशंका को गलत नहीं मानते हैं। कहते हैं कि मैं तो भाजपा को इसलिए वोट दूंगा कि कांग्रेस शासन वाली अराजकता न वापस आ जाए। यह पूछने पर कि कैसी अराजकता, रमेश भाई कुछ साफ नहीं बताते हैं। भरूच जिले के अंकलेश्वर में दवा की दुकान पर काम करने वाले सुहेल भी कहते हैं कि इस बार भाजपा कांग्रेस की संभावना 50-50 है, क्योंकि चुनाव हिंदू मुसलमान के मुद्दे पर नहीं हो रहा है। वरना एकतरफा भाजपा के पक्ष में होता, जबकि जहीर अब्बास कहते हैं कि मुसलमानों को अब भाजपा से वैसा परहेज नहीं रहा जो पहले हुआ करता था।

सूरत में कपड़ा बाजार में मजदूरी करने वाले जान मोहम्मद के मुताबिक इस बार जीएसटी, नोटबंदी जैसे मुद्दों ने हिंदू मुस्लिम के बीच सियासी दरार पाटने का काम किया है। वहीं वड़ोदरा में ध्रुवीकरण की कोशिश में कांग्रेस के जीतने पर अहमद पटेल के मुख्यमंत्री बनने के पोस्टर भी लगाए गए। ध्रुवीकरण की आशंका की वजह से अहमद पटेल को फौरन स्पष्टीकरण देना पड़ा कि वह मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नहीं हैं। 

पोरबंदर में ईद-ए-मीलाद यानी पैगंबर के जन्मदिन पर बड़ी संख्या में मुसलमान सड़कों पर निकले। खासा बड़ा जुलूस था। कई रास्ते जाम थे, लेकिन कहीं कोई तनाव या उत्तेजना नहीं दिखी। खुद मुस्लिम युवक यातायात को निकलवाने में मदद करते दिखे। बाजारों में सामान्य कामकाज बदस्तूर जारी रहा। व्यापारियों के चेहरों पर कोई शिकन नहीं थी जो आमतौर पर इस तरह के मौकों पर गुजरात में देखी जाती रही है। बाजार में रईस भाई से मुलाकात होती है। चुनावी माहौल और ध्रुवीकरण के सवाल पर कहते हैं कि लोगों का मन बदल रहा है। अब हिंदू मुस्लिम से बड़ा मुद्दा शहर की टूटी सड़कें और इलाके का विकास न होना है।

आगे रशीद भाई मिलते हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम अब उत्तेजित होने वाले नहीं हैं और हम अपने हिंदू भाईयों के साथ मिलकर अपने अपने पसंद के उम्मीदवार को वोट देंगे। अहमदाबाद में राजनीतिक विश्लेषक आर के मिश्र कहते हैं कि 2002 के चुनाव  में गोधरा और उसके बाद के दंगों की आंच ने ध्रुवीकरण किया,  2007 का चुनाव मौत का सौदागर और सोहराबुद्दीन एनकाऊंटर के मुद्दे पर मियां मुशर्रफ का तड़का लगाकर ध्रुवीकरण किया गया।

2012 के चुनाव में नरेंद्र मोदी का मुस्लिम टोपी न पहनने से सांकेतिक ध्रुवीकरण हुआ। लेकिन इस बार हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के पाटीदार ओबीसी और दलित आंदोलनों ने चुनाव का विमर्श जातीय अस्मिता में बदल दिया जो हिंदुत्व और ध्रुवीकरण की राजनीति पर भारी पड़ता दिख रहा है।

 

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