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गुप्तकाल की विरासत : दशावतार मंदिर

20 dashavtar templeललितपुर। बुंदेलखंड के ललितपुर जनपद में स्थित देवगढ़ का दशावतार मंदिर गुप्तकाल की बची-खुची धरोहरों में से एक है। दांपत्य प्रेम के साथ देव प्रतिमाओं की अनोखी मुद्रा वाली यहां की कला-कृतियां शिल्पकला की बेजोड़ विरासत मानी जाती हैं। लेकिन कई शताब्दियों की शिल्पकला का यह गढ़ और ऐतिहासिक मंदिर पर्यटन विभाग की उपेक्षा झेल रहा है। दशावतार मंदिर कला और पुरातत्व का वो बेशकीमती नमूना है जिसकी हर कृति और शिलालेख गुप्तकाल की आखिरी विरासत है। यह विश्व का इकलौता मंदिर है जहां भगवान विष्णु के दशावतारों को एक ही मंदिर में पिरोया गया है। इसी वजह से इसे दशावतार पुकारा गया। दशावतार मंदिर को इसलिए भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यहां रामायण और महाभारत की देव प्रतिमाओं का अनूठा संगम है। मूर्तियों में जहां द्रौपदी और पांडव एक साथ दर्शाए गए हैं वहीं हाथी की पुकार पर सब कुछ छोड़ विष्णु प्रतिमा का भी एक-एक भाव अपने आप में नायाब है। विशेषज्ञों के मुताबिक जो पंच ललित कलाएं हैं जिनके आधार पर हमारी संपूर्ण कलाएं समाहित की जाती हैं उन सभी कलाओं का यहां की मूर्तियों में दर्शन मिलता है। यहां की मूर्तियों में भारतीय दर्शन के सभी प्राचीन धार्मिक चिन्हों- हाथी शंख पुष्प कमल आदि का भी समावेश किया गया है जो देश के दूसरे हिस्सों की शिल्पकृतियों में नहीं मिलता। कई मूर्ति शिल्पकारों का तो यहां तक कहना है कि देवगढ़ में हिंदुस्तान की सर्वश्रेष्ठ कला का नमूना देखने को मिलता है। इतिहासकारों के मुताबिक पुरातात्विक महत्व के हिसाब से जो वैष्णव कला से संबंधित मूर्ति शिल्प है उसके चंद मंदिर ही विश्व में बचे हैं जो अंकोरवाट जावा सुमात्रा और इंडोनेशिया में हैं। इनके अलावा सिर्फ दशावतार मंदिर ही इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी है।
यहां की मूर्तियों में सबसे लोकप्रिय गजेंद्र की मोक्ष मुद्रा इतनी वास्तविक और सजीव है कि उसे देखते ही पता चलता है कि भगवान विष्णु बहुत ही हड़बड़ी में आए हैं। उन्होंने पादुकाएं भी नहीं पहनी हैं। नंगे पैर हैं और ऐसे भाग रहे हैं जैसे किसी आपात स्थिति में जा रहे हों। इसके अलावा जिस हाथी का उद्धार करने विष्णु साक्षात आए उसकी मुद्रा भी बेहद अहम है। हाथी को देखने से लगता है कि वह मृतप्राय स्थिति में है और उसे भगवान विष्णु के अलावा कोई उद्धारक नहीं दिखाई दे रहा। उसके चेहरे पर पीड़ा की जो रेखाएं हैं उसे मूर्ति शिल्प के जरिये इतने वास्तविक तरीके से उकेरा गया है कि उसे देखकर प्रतीत होता है कि यह मूर्ति न होकर साक्षात हाथी खड़ा हो गया हो। इसके अलावा शेषसाही प्रतिमा पर अगर ध्यान दें तो पाएंगे कि जो एक व्यक्ति शयन की स्थिति में होता है तो बहुत ही आरामदेह मुद्रा में होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वह सारी चिंताओं से मुक्त होकर शयन कर रहा है। इसी तर्ज पर भगवान विष्णु के चेहरे के जो भाव मूर्ति शिल्पकार ने उकेरे हंै उसमें ऐसा लग रहा है कि बिल्कुल आराम की मुद्रा में भगवान हैं और लक्ष्मी जी चरण दबा रही हंै। इतिहासकारों के मुताबिक 15वीं शताब्दी के बाद की मूर्तियों में ये खासियत देखने को नहीं मिलती क्योंकि मुगलकाल से जो मूर्तिकला का क्षरण शुरू हुआ उसके बाद मूर्ति शिल्प में न वह हुनर रह गया है और न वह कौशल रह गया है और न ही वह परंपरा जीवित रह पाई जो हमारे पास ईसा से पहले 2००० 25०० सालों से चली आ रही थी। वह धीरे-धीरे मिटती चली गई और उसका स्थान चित्रकला ने लेना शुरू कर दिया। इतने महत्वपूर्ण स्थल की उपेक्षा को लेकर कला प्रेमी मुरारी लाल जैन कहते हैं ‘‘खजुराहो में लगभग 6 लाख विदेशी पर्यटक प्रतिवर्ष आते हैं। ओरछा में भी लगभग 6० हजार विदेशी पर्यटक प्रति वर्ष आते हैं।’’ ललितपुर से इन मंदिरों की दूरी मात्र 1०० और 15० किलोमीटर है। चंदेरी में भी विदेशी पर्यटकों की संख्या अब बढ़ रही है। मात्र 15० किलोमीटर की दूरी पर स्थित सांची पर पूरी दुनिया के बौद्ध धर्मावलंबी स्तूप देखने आते हैं।

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