गैर संघवाद : नारा यहां, निशाना कहीं और
दिलीप कुमार
बिहार की राजनीति में एक नए तरह का खेल चल रहा है। यह खेल सत्तारूढ़ जदयू और राजद के बीच खेला जा रहा है। इसमें खिलाड़ी तो कुछ ही हैं, लेकिन ऐसे तमाशबीनों की कमी नहीं है, जो मौका देखकर इसका फायदा उठाने की सोच रहे हैं। पिछले दिनों बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना, इस मौके को लाने वाला है। इसमें शरद यादव और नीतीश के बीच कुछ लोग दूरी भी तलाश रहे हैं तो कुछ मान रहे हैं कि लालू अपने बेटे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए यह चाहते हैं कि यहां की कुर्सी खाली हो। यह तभी हो सकता है जब नीतीश केंद्र की राजनीति में लग जाएं। प्रधानमंत्री बनने की इच्छा उनके मन में हिलोरे मारने लगें। ऐसा करने में बहुत हद तक लालू सफल भी रहे हैं। अब नीतीश कुमार लगातार केंद्र की राजनीति का राग अलाप रहे हैं। देश में गैर संघवाद की बात कह रहे हैं। अच्छी बात है, लेकिन इससे राज्य में पार्टी का बुरा हाल न हो जाए, अपने दूर न हो जाएं, यह भी देखने की जरूरत है। बिहार में इस समय बदल रहे राजनीति में भविष्य के लिए कई संकेत हैं। विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीट लाने के बाद भी लालू नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए हुए हैं। लेकिन वह मौके की तलाश में हैं कि कब सत्ता हाथ में आए। वह नीतीश को केंद्र की राजनीति में फंसाकर अपने बेटे को सूबे का मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। तभी तो केंद्र की राजनीति के लिए नीतीश कुमार को लगातार उकसा रहे हैं। वह जानते हैं, एक बार नीतीश केंद्र की राह चल दिए तो राज्य में उनके लिए बहुत कुछ नहीं बचेगा। भाजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर कुछ इसी तरह की बात कहते हैं।
पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नीतीश कुमार बिहार की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा दलों की गोलबंदी की बात कह रहे हैं। उनका मानना है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में संघवादी विचारधारा की पार्टी को विदा कर देंगे। पिछले दिनों पटना में पार्टी के हजारों प्रतिनिधियों की मौजूदगी में नीतीश कुमार ताल ठोंकते दिखे कि जिस तरह से बिहार में महागठबंधन बना, उसी तरह से पूरे देश में होगा। वैसे नीतीश कुमार इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश से कर भी चुके हैं। वहां 2017 के विधानसभा चुनाव को लेकर उनकी तैयारी अभी से चल रही है। लोकदल सहित अन्य के साथ गठबंधन से लेकर विलय तक की बात हो रही है। इसमें लालू को नीतीश ने किसी तरह का भाव नहीं दिया है। इसका साफ मतलब है कि वे अपने बलबूते पर पूरे देश में भाजपा विरोधी एक लहर पैदा करना चाहते हैं। उनकी मंशा है कि लालू उनके पिछलग्गू बने। तभी तो उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना भाजपा को ललकारते हुए कहा कि महागंठबंधन की राजनीति में वह बिहार में चारों खाने चित हुई है, अब देश में भी चित होगी।
पूरे देश में पार्टी के विस्तार की बात जो नीतीश कह रहे हैं, वह पूरी तरह से भाजपा के विरोध पर ही है। वह जानते हैं कि भाजपा केंद्र की सत्ता में है और वह पूरे देश में अपना विस्तार कर रही है। अगर वे केंद्र पर हमला बोलेंगे तो उनको समर्थन जरूर मिलेगा। खासतौर से उन दलों का जो भाजपा के विरोध की राजनीति करते हैं। याद होगा तो पहले नीतीश कांग्रेस विरोध की बात करते थे। उसी के विरोध के साथ उनकी राजनीति भी शुरू हुई थी। वे कभी भाजपा के एक घटक दल के रूप में रहे हैं। उनके साथ केंद्र से लेकर राज्य में कई सालों तक सत्ता का सुख भोगा है। बीते लोकसभा चुनाव में मोदी का विरोध करते हुए उन्होंने अकेले चुनाव लड़ा। परिणाम उनके सामने बुरे सपने की तरह आया। फिर विधानसभा चुनाव में लालू की गोद में जा बैठे, जिनका वे वर्षों से विरोध करते रहे थे। ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि मौका मिलने पर वे लालू को भी किनारे न लगा दें।
वैसे नीतीश के पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के पीछे उनकी महत्वाकांक्षा ही दिखती है। इसे लेकर उनकी पार्टी के अंदर ही बहुत सुखद स्थिति नहीं कही जा सकती है। वह इस नजरिए से कि शरद यादव उनकी पार्टी के बड़े नेताओं में से एक हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष से उन्हें हटा दिया गया। पार्टी में उनकी अब बहुत हैसियत नहीं दिखती है। नीतीश राज्य की सत्ता से लेकर पार्टी की सत्ता पर काबिज हो गए हैं। ऐसे में शरद यादव अपने आपको पार्टी में कितने दिनों तक रख पाएंगे, या फिर नीतीश का विरोध नहीं करेंगे, कहा नहीं जा सकता। वैसे इसे लेकर शरद ने अभी कोई ऐसा बयान तो नहीं दिया है, लेकिन जो स्थिति बन रही है जदयू के लिए सुखद तो नहीं रहने वाला है। नीतीश कुमार की पूरे देश में पार्टी को फैलाने और भाजपा के खिलाफ एक विकल्प खड़ा करने की जो रणनीति है, उसमें शराबबंदी को भी उन्होंने शामिल किया है। वह लगातार कह रहे हैं कि अन्य राज्यों से भी शराबबंदी को लेकर उन्हें बुलावा आ रहा है। वे जल्द ही वहां का दौरा शुरू कर इसके प्रति लोगों का एकजुट करेंगे। इसकी शुरुआत झारखंड करेंगे। फिर यूपी, ओडिशा, मध्य प्रदेश तक पहुंचेंगे। मई में झारखंड में महिलाओं की ओर से शराबबंदी के पक्ष में आयोजित सम्मेलन को संबोधित करेंगे। 15 मई को लखनऊ में इसे लेकर कार्यक्रम है। नीतीश शराबबंदी को जिस तरह से हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं, वह कितना कारगर होगा, कहा नहीं जा सकता।
अपनी भी मजबूरी समझो
शरद की अपनी मजबूरी है। उनकी जो स्थिति दिख रही है, वह बहुत सुखद नहीं कही जा सकती है। भीष्म पितामह की तरह वह सिर्फ पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। न तो चर्चा में रहते हैं और न ही सत्ता का सुख ही उनके पास है। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से उन्हें हटाया गया तो उन्होंने फिलहाल पार्टी के विरोध में कोई प्रतिक्रिया तो नहीं दी, लेकिन मन में कहीं ने कहीं कसक जरूर है। पिछले दिनों पटना में जब पार्टी के राष्ट्रीय परिषद की बैठक हुई तो उन्होंने कहा कि मैं होश संभालने से पार्टी चलाता रहा हूं। जो परिस्थितियां और चुनौतियां हैं, उसे देखते हुए जिम्मेदारी नए सिरे से दिया गया है। अब नीतीश कुमार और मेरे दोनों के कंधे पर जिम्मेदारी है। यह कैसी जिम्मेदारी है, यह तो नहीं बता सके। वह भी भाजपा पर हमलावर रहे, लेकिन नीतीश कुमार की तरह नहीं। इससे यह साफ है कि कहीं न कहीं, उनके मन में एक बात जरूर है। फिलहाल तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन देर-सबेर क्या होगा यह तो समय बताएगा। अपने भाषण में उन्होंने पार्टी के विस्तार पर चर्चा करने के साथ कार्यकर्ताओं को टास्क देने की बात कही। कहा कि इस काम के लिए कौन से दूसरे राजनीतिक दल साथ आएंगे पता नहीं, लेकिन जदयू के विचार पर क्या करेंगे। देश में नई चुनौतियां हैं। उनका मुकाबला करना है। वे जदयू के इतिहास को दूसरी पार्टियों से अलग बताने से भी नहीं चूके।
दिल्ली का सपना कब होगा अपना
केंद्र की सत्ता में बैठना तो हर दलों की हसरत होती है, लेकिन इस समय कई दलों और नेताओं में मन में यह इच्छा हिलोरे ले रहा है। कांग्रेस जिस तरह से पूरे देश में कमजोर होती जा रही है, उसका विकल्प बनने के लिए हर पार्टी एक मौका देख रही है और जदयू ने सही समय पर सही कदम उठाया है। नीतीश की जो सोच है, वह काफी दूरदर्शी है। उन्होंने केंद्र की राजनीति में जाने का निर्णय ऐसे ही नहीं ले लिया है। वह देख रहे हैं कि कांग्रेस में नेतृत्व का अभाव है। हर राज्य में वह कमजोर होती जा रही हैं। अगर उन्होंने अन्य राज्यों में जदयू को थोड़ा बहुत मजबूत कर लिया तो बिहार की तरह अन्य राज्यों में भी वह कांग्रेस को अपना पिछलग्गू या फिर बराबर पलड़े पर खड़ा कर सकते हैं। इस तरह वह आगामी लोकसभा चुनाव में एक बड़ी हैसियत के साथ कांग्रेस से मोलभाव कर सकते हैं। इसका उन्हें फायदा भी मिलेगा। भाजपा के विरोध पर छोटे-बड़े दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे तो वीपी सिंह, चंद्रशेखर जैसे नेताओं की तरह प्रधानमंत्री बन सकते हैं। मीडिया में उनके प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को लेकर जब बात आने लगी तो उन्होंने कुछ गोलमटोल सा जवाब दिया। कहा, किसी को प्रधानमंत्री बनना होगा, तो आप नाम लें या नहीं, बन जाएगा। तालमेल या आपसी एलायंस जो कुछ भी होगा, उसकी कोशिश करेंगे।
बात चली है तो दूर तक जाएगी
केंद्र की राजनीति की बात चली है तो निश्चित ही दूर तक जाएगी। अन्य दल भी दावेदार के रूप में आएंगे। यूपी में सपा के मुलायम सिंह यादव भी पीछे नहीं हैं। कांग्रेस भी इसे कभी पचा नहीं पाएगी। बिहार में कांग्रेस के कुछ नेता तो इसका विरोध भी करने लगे हैं। वे राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता के साथ प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। ऐसे में सबको एकजुट करना, सिर्फ भाजपा के विरोध के नाम पर आसान तो नहीं है। वैसे नीतीश कुमार कहते हैं, हम राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा दलों की एकजुटता की कोशिश कर रहे हैं। इसमें हमारा कोई स्वार्थ नहीं है। हम पद की बात नहीं, एकजुटता की बात कर रहे हैं। वह समय पर केंद्र में नेता तय होने की बात कहते हैं लेकिन इस पर विश्वास कौन करेगा।
शरद को साधने की कोशिश
नीतीश कुमार जानते हैं कि पार्टी में शरद यादव की महत्वपूर्ण भूमिका है। संगठन की मजबूती और विस्तार उनके बिना संभव नहीं हो सकता। लेकिन जो माहौल बनाकर राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से उनकी विदाई की गई, वह किसी भी तरह से पार्टी के हित के लिए तो नहीं दिख रहा है। वैसे उन्हें साधने के लिए नीतीश कह रहे हैं कि शरद शदव ने मुझे जिम्मेदारी दी है। वे हमेशा देश की राजनीति में अलग भूमिका निभाते रहे हैं। 2013 में शरद यादव के तीसरी बार जदयू अध्यक्ष बनने के समय का जिक्र करते हुए कहा, उसी समय हमने जो आशंका जताई थी, वह आज सच साबित हो रही है। 2013 में ही हमने कह दिया था कि भाजपा नए तेवर में प्रकट हो रही है, वह हमें मंजूर नहीं है। जिस समय जदयू ने एनडीए से अलग होने का फैसला लिया, शुभचिंतकों ने भी कई तरह की आशंकाएं जताई थीं। कोई चुनौती दे रहा था, तो किसी को परेशानी हो रही थी। लेकिन हमने चिंता नहीं की। सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और आज सबकुछ आपके सामने है।
विरोध ही विरोध
नीतीश कुमार की पूरी राजनीति केन्द्र और भाजपा के विरोध पर जाकर सिमट गई है। इसलिए तो उनके हर भाषण में भाजपा और केंद्र का नाम जरूर आता है। वह अच्छी तरह जानते हैं कि इससे ही उन्हें चर्चा मिलेगी। मीडिया अटेंशन लेगा। वह भाजपा पर हमला बोलते हुए कहते हैं, केंद्र अब राज्यों पर बोझ बढ़ा रहा है। केंद्र प्रायोजित योजनाओं में भारी कटौती हो रही है। राजीव गांधी विद्युत योजना का नाम बदल दीनदयाल उपाध्याय योजना कर दिया गया। इसमें केंद्र का अंश घटाकर 90 से 60 प्रतिशत कर दिया गया। मनरेगा और पीएमजीएसवाई पर भी ध्यान नहीं देने की बात उन्होंने कही। काला धन पर चर्चा करने से भी नहीं चूकते हैं। रोजगार और किसानों से किए गए वादे को धोखा बताते हैं। नीतीश भाजपा को शगूफे पर चलने वाली बताते हैं। लव जेहाद, गोमांस और देशभक्ति के नाम पर जनता को गुमराह करने वाली पार्टी बताते हैं। वह यह भी कहने से नहीं चूकते कि हमें देशभक्ति और राष्ट्रवादी का प्रमाण संघ से नहीं चाहिए।