चाह ना जाने क्या-क्या कराती रही
आध्यात्म : आचार्य गोपाल तिवारी
दुनिया में जब भी हम कहीं किसी को दुखी पाते हैं तो प्राय: देखा जाता है कि उसके दुख का कारण उसकी किसी इच्छा का पूरा न हो पाना है। इच्छा के कारण बड़े से बड़े मजबूत दिल का व्यक्ति भी कमजोर पड़ने लगता है। दुनिया में इच्छा अर्थात चाहत ही व्यक्ति को सर्वाधिक कमजोर बनाती है और अपेक्षा ही सबसे ज्यादा को दुखी करती है। हम किसी से कोई अपेक्षा पाल लेते हैं और वो जब पूरी नहीं होती तो दुख होता है। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में ‘अनपेक्ष’ कहकर इसी तथ्य को समझाने का प्रयास करते हैं कि जहां आपने किसी दूसरे से अपेक्षा की है कि अमुक व्यक्ति मेरे लिए ऐसा व्यवहार करे या अमुक व्यक्ति को मेरे साथ ऐसा करना चाहिए था और जब वैसा व्यवहार नहीं होता तब हम अपने आपको दुखी पाते हैं। सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि दूसरों से अपेक्षा क्यों? जब हम ये जानते हैं कि जिससे अपेक्षा की जायेगी वहीं परेशानी का कारण बनेगा। प्राय: अपेक्षा हम उससे करते हैं जिनसे हम प्रेम करते हैं। जैसे पुत्र को मेरे साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए, मेरी पत्नी को मेरी बात माननी चाहिए, जब मैं उससे इतना प्यार करता हूं तब वो मुझसे क्यों प्यार नहीं करती। जब मैं उसकी हर बात मानता हूं तब वो मेरी बात क्यों नहीं मानती। मैं तो उसके बिना जी नहीं सकता मगर उसे तो मेरी परवाह ही नहीं है, इत्यादि विचार अपेक्षा के ही परिणाम हैं। हम जिससे जितना ज्यादा प्यार करते हैं, उससे उतनी ज्यादा अपेक्षाएं भी रखते हैं। प्राय: वो अपेक्षाएं अपने प्रति ही होती हैं लेकिन किसी की अपेक्षा किसी से पूरी नहीं होती है क्योंकि दुनिया में अपेक्षा का कारण होता है अमुक व्यक्ति हमारे काम आ सकता है। दुनिया अगर हमारे काम आ जाती तो शायद ही कोई भगवान की ओर जाता। दुनिया में कभी किसी को शान्ति मिली ही नहीं, तभी तो संतजन कहते हैं-
मत किसी से तू यहां पर दिल लगा।
ये दिल लगाने की नहीं दुनिया जगह।।
ये मन संसार में एक सीमा तक ही लग सकता है क्योंकि एक सीमा के बाद ये स्वीकार करना प्रारंभ कर देता है कि जिस शांति व सुख के लिए हम दुनिया की ओर जा रहे हैं वह सुख-शांति मिल ही नहीं रही क्योंकि शांति जैसी चीज दुनिया में है ही नहीं। कभी कोई दुनिया में शांत हुआ है। सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी, औरंगजेब जैसे शासक जो दुनिया को पाना चाहते थे लेकिन क्या वो दुनिया को पाकर शांत हुए। इसके विपरीत अशोक, गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक, राजा भर्तृहरि जैसे राजा संसार की असारता को समझ शांति को पा गये क्योंकि इन्हें पता चल गया कि- जिसकी मुझे तलाश है वो खुद मेरे पास है।
दुनिया की तमाम चीजों को संग्रह करते रहो लेकिन उनमें से कोई भी ऐसी नहीं जो आपको सुखी कर सके। आप लोगों ने वो कहानी तो सुनी होगी कि एक कबूतर जंगल में मस्ती के साथ विचरण करता था। उसे संग्रह करने का शौक न था,वहअपने आप में सतुष्ट रहता था। एक दिन उसे एक कबूतरी से प्रेम हो गया। दोनों साथ रहने लगे। अब कबूतर समय से अपने घोसले को लौटने लगा। कुछ समय साथ रहने के बाद दोनों का परिवार बढ़ा और अनेक बच्चे हुए। एक बार कबूतर भोजन की तलाश में निकला। एक दिन जब वह दाने लेकर लौटा तो देखा कि उसका पूरा परिवार शिकार के जाल में फंसा हुआ है। ये देखकर विलाप करने लगा और परिवार के दुख से दुखी हो जीवन को परिवार के बिना शून्य मानकर उसी जाल में खुद जा फंसा और मारा गया। यही हमारी हकीकत है, दुनिया दुखों की मांग हम इसी तरह करते हैं ये एक सनातन सत्य है कि दुनिया में भगवान के सिवा अगर आपने कुछ भी चाहा तो दुख के सिवा कुछ मिलना नहीं है। दुनिया देखने में सुखदायी प्रतीत तो होती है लेकिन सुखदायी होती नहीं है। परिणाम में दु:ख ही दु:ख मिलता है। जैसे कि रेगिस्तान में एक प्यासे को दूर चमकता हुआ पानी दरिया दिखाई देता है। वो प्यास की तलाश में उधर जाता है और जाकर देखता है कि वहां पानी जैसी कोई चीज नहीं अपितु रेत ही पानी की तरह प्रतीत हो रही है। ऐसे ही उसे चारों तरफ रेत दूर से देखने पर पानी की तरह प्रतीत तो होती है लेकिन होती तो नहीं, चाहे खूब उसकी तलाश कर लो, पानी है ही नहीं तो मिलेगा कहां से। वैसे ही संसार में खूब सुख प्रतीत तो हो रहा है, चाहे वह भोजन से, दोस्त-रिश्तेदारो से, पैसे से, पुस्तकों से किसी से भी क्यों न हो किन्तु वह सुख एक क्षणिक कल्पना मात्र है या मन को वियोहित करने वाला मात्र है।
असार: संसार: दुखरूपी वियोहक:।
एक झूठ है फरेब है धोखा है जिन्दगी।
इस जिन्दगी का कैसे भरोसा करे कोई।
लेकिन एक जगह दुख पाने के बाद भी उसके मूल पर चिंतन नहीं करते अपितु दूसरा रास्ता खोजने लगता है। सुख के रूप में कभी पत्नी से मन लगाया, कभी बेटे से, कभी पोते से, शरीर की स्थिति बदलती रहती है। नित्य चारों ओर विशाल परिवर्तन देखते हुए भी अपनी मन: स्थिति को परिवर्तित करने का प्रयास नहीं करता। औरों को काल का आज बनते देख भी अपनी मौत को लेकर निश्ंिचत रहता है। दुनिया की तमाम सम्पत्ति-सुख इकट्ठा करना चाहता है। एकमात्र सुखी होने के लिए और इसी को इकट्ठा करना अपना परम कर्तव्य समझता है।
ये जितना माल खजाना है जो तुमने अपना माना है।
सब छोड़ अकेला जाना है करता है इकट्ठा क्यूं बाबा।
संग्रह करते-करते वह यह भी परवाह नहीं करता कि उसके द्वारा संग्रह की हुई वस्तुओं में से किसी से भी वह सुखी व शांत हुआ है फिर उससे भी ज्यादा संग्रही व्यक्ति जिन्होंने समूचे देश के देश संग्रह कर लिये क्या वो शांत हुए। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। अपार सम्पत्ति के बावजूद घोर अशांति व दुख के सागर में ही अनेकों शक्तिशाली राजा पूरा जीवन भटकते रहे। दुनिया की तमाम सम्पत्ति को हथियाने के बाद भी अशांतिपूर्ण ढंग से काल कवलित हो गये। जिस वस्तु को पाकर हम सुखी होना चाहते हैं वह वस्तुत: दु:ख के सिवाय कुछ है ही नहीं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार-
येहि संस्पर्शसा भोगा दु:खयोनय एवते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तैषुरमतेबुध:।।
जितने भी सुख हैं वे सब स्पर्श से सुख देने वाले हैं। हम किसी विषय-वस्तु का स्पर्श करते हैं उसी स्पर्श से ही हमें सुख की अनुभूति होती है। जैसे किसी को देखने से हमें सुख मिल रहा है। अब स्थूल रूप से देखा जाये तो वहां पर कोई स्पर्श नहीं हो रहा है किन्तु गौर करें तो पता लगेगा कि वहां पर आंखों का स्पर्श हो रहा है। अगर मन में किसी चीज की कल्पना करके हमें सुख का आभास हो रहा है तो हमें मानसिक रूप से उस विषय का स्पर्श होता है लेकिन ये स्पर्श क्षणिक है। समय पाकर बदलने वाला है जिससे हमें सुख मिल रहा है समय पाकर उसी से हमें दुख मिलना प्रारंभ हो जायेगा। ये दुनिया की कोई भी वस्तु सुख रूप है नहीं हम उसे सुखद मानकर दौड़ रहे हैं लेकिन निरंतर दौड़ लगाने के बाद भी हमें कभी भी वो सुख प्राप्त नहीं हो पाता है कभी नहीं, कहीं नहीं।
स्वामी रामतीर्थ से अमेरिका में एक सम्मेलन के दौरान किसी ने पूछा कि किसी को अगर संसार की सारी दौलत दे दी जाये तब तो उसे शांति मिल जायेगी। स्वामी जी ने कहा कि जीरो, उस व्यक्ति ने दुबारा पूछा अगर किसी को सारी दुनिया की ताकत मिल जाये तब तो निस्संदेह वह शांत हो जायेगा, स्वामी ने कहा- कुछ नहीं जीरो। उस व्यक्ति ने कहा अगर कोई दुनिया का सबसे खूबसूरत हो जाये तब तो नि:संदेह उसे शांत हो जाना चाहिए। स्वामी जी बोले- जीरो। अब वो व्यक्ति अधीर होकर बोला, मान लो कोई एक व्यक्ति ही सबसे ताकतवर, सबसे सम्पत्तिवान, सबसे रूपवान हो जाये तब स्वामी जी स्मित हास्य में बोले कुछ नहीं जीरो +जीरो +जीरो =जीरो ही रहता है। जब तक वो इन चीजों में शांति खोज रहा है तब तक तो किसी भी कीमत पर शांत नहीं होना है क्योंकि उसकी शांति वहीं पर खत्म हो जाती है जब वह अपने से अतिरिक्त किसी की इच्छा करता है।
एक बार स्वामी विवेकानंद जी से किसी ने कहा -आई वांट पीस ( मैं शांति चाहता हूं) स्वामी जी ने कहा- ये, आई हटा दो और वांट हटा दो फिर शांति ही रहेगी। आई हटाने से तात्पर्य मैं और मेरापन हटाने से है और वांट अर्थात चाहना इच्छा को हटाने से। ये अहंकार और इच्छा (चाह) ही हमें शांति से दूर रखे हुए है।
जिसकी तुझे तलाश है, वो खुद मेरे अपने पास है।
ये उस हिरन की भांति है जो कस्तूरी की गंध की खोज में परेशान होकर भटकता घूम रहा है और फिर थक-हारकर कुछ न पाकर लेट जाता है और लेटते समय अपनी गर्दन मोड़कर अपनी कुक्षि की ओर कर लेता है। जैसे ही कुक्षि पर गर्दन जाती है उसे कस्तूरी की सुगंध आ जाती है और हिरन मस्त होकर उस दिव्य सुगंध का आनंद लेते हुए सोता रहता है और जैसे ही जागता है फिर उसे कस्तूरी की खोज विचलित कर देती है। वह रोज कस्तूरी को महसूस तो करता है मगर कभी हासिल नहीं कर पाता कारण उसने कस्तूरी की गंध को अपने से अलग माना हुआ है। गर्दन मोड़ते ही वह उससे दूर हो जाता है, वैसे ही हम अपने आपको उस ईश्वर से दूर किये हुए हैं। दिल और दिमाग को सही दिशा प्रदान करने की आवश्यकता है।
दिल के आईने में तस्वीरें हैं यार।
जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।।
जिसकी तुझे तलाश है वो खुद मेरे अपने पास है।
मंजिल तेरी वहीं थी कदम उठा था जहां से पहले।।
हमने इच्छाओं में अपने आपको इतना फंसा लिया है कि उनकी पूर्ति में ही दिन-रात दौड़ रहे हैं। ये इच्छा ही बहुमुंखी बनाये हुए है। हिरन की भांति दिनरात इसी से परेशान हो रहे हैं। किसी ने सही कहा है-
चाह न जाने क्या-क्या कराती रही। चाह पैसे से आने में आती रही।
चाह आने से रुपया बनाती रही। चाह रुपयों से नोटों पे आती रही।
चाह नोटों से कोठी बनाती रही। चाह ना जाने क्या-क्या कराती रही।
चाह कोठी पे मोटर बुलाती रही। चाह मोटर से होटल पे जाती रही।
चाह होटल में बोतल खुलाती रही। चाह न जाने क्या-क्या कराती रही।
ये चाह (इच्छाएं) ही तो हैं जो व्यक्ति को परेशान करती हैं। अनवरत चाह को पूरा करने के लिए व्यक्ति राह बनाता रहता है और अपनी वास्तविक राह से भटक जाता है।
चाह पाली जिन्होंने वो पीले हुए। चाह ओढ़ी जिन्होंने रजीले हुए।
चाह जर (धन) से लगी जी जरा हो गया।
चाह हरि से लगी जी हरा हो गया।
चाह हमको हमेशा यही चाहिए। गर वो चाह लें फिर क्या चाहिए।
ये पूर्णकालिक सत्य है कि भगवान को पाये बिना या फिर अपने आपको जाने बिना हमारी चाह कभी पूरी नहीं हो सकती। दुनिया की कोई वस्तु ऐसी हो ही नहीं सकती जो हमें शांत करने के लिए पर्याप्त हो। जब सिकंदर जैसा व्यक्ति भी विश्वविजेता बनने के बाद शांत नहीं हो पाया और कुछ अपने साथ मरणोपरांत ले नहीं जा सका, इसलिए हमें अति महत्वाकांक्षी नहीं होना चाहिए और अपनी चाह को भगवान के साथ जोड़ देना चाहिए यही परम शांति का उपाय है।