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चीनी साम्राज्यवाद को समझने की जरूरत

चीन ऋण पर ब्याज दर बढ़ाएगा जिससे बांग्लादेश ऋण कुचक्र में उलझेगा। फलत: चीन उक्त प्रोजेक्ट में इक्विटी खरीदेगा और फिर अपनी कम्पनियों के सुपुर्द कर देगा। ये कम्पनियां एक भारी-भरकम कमर्चारी वर्ग के साथ बांग्लादेश पहुंचेगी जिससे बांग्लादेश में एक चीनी बस्ती का निर्माण हो जाएगा। तत्पश्चात पूंजी, कम्पनी और लोगों की सुरक्षा हेतु सैन्य टुकड़ी भी पहुंचेगी और इस तरह से बांग्लादेश में चीनी बस्ती के साथ-साथ एक सैन्य अड्डा भी बन जाएगा। क्या इसके बाद बांग्लादेश इस हैसियत में होगा कि चीन को वहां से बाहर निकाल पाए? बांग्लादेश ऐसा पहला या अकेला देश नहीं होगा बल्कि श्रीलंका, पाकिस्तान व नेपाल में यही हो चुका है। उल्लेखनीय है कि श्रीलंका अपने न्यूनतम आर्थिक विकास दर के कारण हम्बनटोटा सहित कई परियोजनाओं हेतु लिए गये ऋण को चुका पाने में असमर्थ है।

 

-डॉ़ रहीस सिंह

चीन ने जब से वैश्विक आर्थिक ताकत का खिताब हासिल किया है, वह लगभग विश्व बैंक की तरह की ‘मुक्त ऋण की खिड़की’ जैसी विशेषता का प्रदर्शन कर रहा है, जैसा कि कुछ वैश्विक संस्थाओं और आर्थिक शोधों में स्वीकार भी किया गया है। यद्यपि चीन इसे ‘रोड एवं बेल्ट इनीशिएटिव’ की तरह ही ‘रोड ऑफ पीस’ या ‘मिशन ऑफ एशियन पीस’ नाम दे सकता है लेकिन जिस प्रकार के तथ्य और परिणाम सामने आ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि चीन नवउपनिवेशवादी व्यवस्था को अंजाम दे रहा है। क्या चीन की इस नीति को विशेषकर छोटे देश समझ नहीं पा रहे हैं अथवा विकास की प्रदर्शनवादी होड़ के चलते समझना नहीं चाहते? दक्षिण एशिया के छोटे देश जिस तरह से चीनी ऋण-जाल में फंसते चले जा रहे हैं, क्या वे आने वाले समय में भारत के लिए समस्या साबित नहीं होंगे? क्या भारत चीनी मंतव्यों को समझने और उसे काउंटर करने की युक्तियों पर आगे बढ़ पा रहा है? पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से भारत के पड़ोसी भारत से छिटक कर दूर हुए हैं, क्या वह चीन की इसी नीति का परिणाम है? यदि हां तो भारतीय राजनय इसके लिए किस सीमा तक जिम्मेदार माना जा सकता है?
चीन अपनी ‘चेक डिप्लोमैसी’ के जरिए दक्षिण एशियाई देशों में ही नहीं बल्कि पूर्वी एशिया के देशों से लेकर अफ्रीका तक अपनी घुसपैठ बना रहा है। चीन इन देशों के अधिसंरचनात्मक विकास की चाहे जितनी खुशनुमा तस्वीर पेश करे लेकिन इन देशों की स्थिति खराब होना शुरू हो चुकी है और ये देश ऐसे वित्तीय कुचक्र में फंसते हुए दिख रहे हैं, जिनसे बाहर आ पाना नामुमकिन है। विशेष तथ्य यह है कि चीन इन देशों को कर्ज देते समय सच भी नहीं बोलता, जो सही अर्थों में उसी प्रकार के षडयंत्र जैसा ही है जैसा कि 18वीं-19वीं शताब्दी में यूरोपीय देशों ने दुनिया भर के देशों के साथ किया था। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2016 में जब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग बांग्लादेश यात्रा पर गये थे तो उन्होंने बांग्लादेश को 24.45 बिलियन डॉलर के प्रोजेक्ट के लिए ऋण देने पर सहमति दी थी। यह ऋणराशि बांग्लादेश के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 20 प्रतिशत के बराबर थी। अब चीन इस भारी-भरकम सॉफ्ट ऋण को कॉमर्शियल ऋण में बदलने जा रहा है। इसके दो पक्ष हैं। एक यह कि चीन ने बांग्लादेश के साथ धोखा किया और दूसरा- चीन अब आगे क्या करेगा? ध्यान रहे कि चीन द्वारा दिया गया कर्ज ‘गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट’ (जी टू जी) था लेकिन अब चीन के अधिकारी कह रहे हैं कि पेइचिंग ने यह वादा नहीं किया था जबकि बांग्लादेश सरकार के अधिकारियों का कहना है कि जब नेताओं के स्तर पर विशेषकर राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में ऋण सम्बंधी किसी समझौते पर हस्ताक्षर होते हैं तो वह तो वह सॉफ्ट ऋण ही होता है। अब संभावना इस बात की है कि चीन ऋण पर ब्याज दर बढ़ाएगा जिससे बांग्लादेश ऋण कुचक्र में उलझेगा। फलत: चीन उक्त प्रोजेक्ट में इक्विटी खरीदेगा और फिर अपनी कम्पनियों के सुपुर्द कर देगा। ये कम्पनियां एक भारी-भरकम कमर्चारी वर्ग के साथ बांग्लादेश पहुंचेगी जिससे बांग्लादेश में एक चीनी बस्ती का निर्माण हो जाएगा। तत्पश्चात पूंजी, कम्पनी और लोगों की सुरक्षा हेतु सैन्य टुकड़ी भी पहुंचेगी और इस तरह से बांग्लादेश में चीनी बस्ती के साथ-साथ एक सैन्य अड्डा भी बन जाएगा। क्या इसके बाद बांग्लादेश इस हैसियत में होगा कि चीन को वहां से बाहर निकाल पाए?

बांग्लादेश ऐसा पहला या अकेला देश नहीं होगा बल्कि श्रीलंका, पाकिस्तान व नेपाल में यही हो चुका है। उल्लेखनीय है कि श्रीलंका अपने न्यूनतम आर्थिक विकास दर के कारण हम्बनटोटा सहित कई परियोजनाओं हेतु लिए गये ऋण को चुका पाने में असमर्थ है। फलत: चीनी ब्याज अब इक्विटी में बदल रहा है, फलत: श्रीलंका के घरेलू प्रोजेक्ट्स में चीन की हिस्सेदारी बढ़ रही है। विशेष बात यह है कि चीन यह मान रहा है कि श्रीलंका की परियोजनाएं आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं हैं। लेकिन फिर भी चीन इनमें लगातार रुचि ले रहा है। सवाल उठता है कि क्यों? क्योंकि इन परियोजनाओं में हिस्सेदारी से चीन को श्रीलंकाई आर्थिक संसाधनों से जुड़ने के साथ-साथ हिन्द महासागर में अपनी सामरिक ताकत को बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो रहा है। यही कार्य-कारण सम्बंध नेपाल में भी देखे जा चुके हैं। वहां चीन भले ही ट्रैक-2 कूटनीति के माध्यम से सांस्कृतिक एवं प्रजातीय एकता का वातावरण निर्मित करने में सफल हो रहा हो लेकिन उसके उद्देश्य कुछ और हैं। ध्यान रहे कि चीन द्वारा प्रदत्त ऋण पर ब्याज चुकता न कर पाने के कारण नेपाल के एक बड़े बांध में चीन की कंपनी ने 75 प्रतिशत हिस्सेदारी (इक्विटी) खरीद ली है। पाकिस्तान को चीन ऑल व्हेदर फ्रैंड की संज्ञा देता है और पाकिस्तान उसका एक अच्छा सिपहसालार होने की प्रतिबद्धता पूरी करता है लेकिन सही अर्थों पाकिस्तान की औपनिवेशिक बस्ती ही बनता जा रहा है। उसने पाकिस्तान के एक प्रोजेक्ट के लिए 46 बिलियन डॉलर का ऋण दिया है, जो उसके सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत है। यही नहीं इस ऋण पर पाकिस्तानी मीडिया ने भी चिंता व्यक्त की थी। उसका मानना था कि पाकिस्तान इतने बड़े कर्ज और उसकी ऊंची ब्याज दरों का भुगतान कैसे कर पाएगा। हालांकि चीन ने चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपेक) के तहत बनाये जा रहे ग्वादर बंदरगाह व उसके आस पास के विकास के लिए शून्य ब्याज दर पर धन उपलब्ध कराया है। लेकिन सच तो यह है कि जिस बलूचिस्तान प्रांत में यह बंदरगाह स्थित है, उसका विकास नहीं हो पायेगा बल्कि उसकी कम्पनियां इस क्षेत्र के तांबे और सोने की खदानों पर काम कर रही हैं जिसके आने वाले समय में गम्भीर परिणाम होंगे।

चीन इसी प्रकार के निवेशों को बढ़ाने के लिए कंबोडिया, म्यामार, लाओस, थाईलैंड आदि से लेकर अफ्रीकी देशों को भी अपना शिकार बना रहा है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों को ऋण जाल में फंसा कर वह दक्षिण चीन सागर में अपनी स्थिति मजबूत करना करना चाहता है ताकि वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र में स्ट्रैटेजिक ट्रैंगल अथवा क्वाड्रिलैटरल को काउंटर कर सके। अफ्रीकी देशों में पहुंचकर वह अमेरिकी ताकत को काउंटर करना चाहता है। उल्लेखनीय है कि लम्बे समय तक म्यांमार में अपना सिक्का जमाए रहा लेकिन बराक ओबामा द्वारा चीन के म्यांमार में एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। हालांकि अभी भी चीन म्यांमार में खासे प्रोजेक्ट्स चला रहा है और इनके लिए म्यांमार लगभग 16 बिलियन अमेरिकी डॉलर के चीनी ऋण के नीचे दबा हुआ है। कम्बोडिया की स्थिति तो बेहद खराब है। उस पर कुल अंतर्राष्ट्रीय ऋण लगभग 70 प्रतिशत ऋण चीन का है। चीन जिबूती में सैन्य बेस तथा अवसंरचनात्मक विकास कर रहा है और इसके लिए उसने जिबूती को 14 बिलियन डॉलर का कर्ज दिया है। दरअसल मंडेब स्ट्रेट (जलडमरूमध्य) और स्वेज नहर के कारण जिबूती रणनीतिक एवं व्यापारिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है या यूं कहें कि हिन्द महासागर में वैश्विक शक्ति-संतुलन में यह निर्णायक भूमिका निभा सकता है। कुल मिलाकर चटगांव, हम्बनटोटा, ग्वादर, मंडेब चीनी स्ट्रैटेजिक डेस्टिनेशंस हैं जिनके जरिए वह अपनी आर्थिक एवं साम्राज्यिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने कोशिश कर रहा है। भारत को अपने पड़ोस को गम्भीरता से देखना होगा और कम से कम मुनरो सिद्धांत की प्रतिष्ठा हेतु प्रयास करने की जरूरत होगी। ध्यान रहे कि हम्बनटोटा से भारत के तटीय सामरिक स्थान बेहद नजदीक हैं। काश्गर से ग्वादर भारत को हिमालय की तरह से घेरने की रणनीति का हिस्सा है। संयुक्त राष्ट्र की एक कमेटी द्वारा की गयी अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि ‘वन बेल्ट वन रोड’ के कारण दक्षिण और मध्य एशियाई देश वित्तीय संकट में पड़ सकते हैं। कुल मिलाकर चीन आर्थिक ताकत बनने के बाद एकाधिकारिक लाभांशों को हासिल करने के साथ-साथ दो मकसद और पूरे कर रहा है। प्रथम- दक्षिण एशिया के देशों को भारत का भय दिखाकर अपनी ओर आकर्षित करना तत्पश्चात चेक डिप्लोमैसी के जरिए भारत की रणनीतिक घेरेबंदी की रणनीति पर आगे बढ़ना। द्वितीय-निवेश के नाम पर भारत के पड़ोसी देशों के प्राकृतिक संसाधनों तक अपनी अर्थव्यवस्था की पहुंच सुनिश्चित करना और धीरे-धीरे इन देशों को औपनिवेशिक चरित्र में परिवर्तित करना। फिर तो चीनी ऋण जाल के अंतिम परिणाम बेहद खतरनाक होंगे! 

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