चुनाव पूर्व आखिरी छमाही का घमासान
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अब आई परीक्षा की घड़ी
ज्ञानेन्द्र शर्मा
चुनाव पूर्व की आखिरी छमाही शुरू होने से ठीक पूर्व 2017 की चुनाव डायरी के महत्वपूर्ण पन्ने एक झटके में खुल गए। वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव की मौजूदगी में मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल का सपा में विलय करने का ऐलान कर दिया गया तो नाराज मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने, जो प्रदेश सपा के अध्यक्ष भी हैं, बलराम यादव को मंत्री-पद से हटा कर अपना विरोध जता दिया। बलराम यादव पर इस विलय में अहम भूमिका निभाने का आरोप है परन्तु चार दिन बाद ही पार्टी के आलाकमान की बैठक में विलय का फैसला पलट दिया गया और इसे अखिलेश यादव की जीत बताया गया- वैसे ही, जैसे उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभालते समय एक और माफिया सरगना डी.पी. यादव के पार्टी में प्रवेश पर टांग अड़ा दी थी और नाम कमाया था। साथ ही यह निर्णय किया गया कि बलराम यादव को मंत्रिपरिषद में वापस ले लिया जाएगा। इससे शिवपाल यादव की बहुत किरकिरी हुई और उन्होंने अपनी नाराजगी मंत्रिपरिषद विस्तार समारोह का बहिष्कार करके व्यक्त भी कर दी।
उधर, दूसरी तरफ विधानसभा में विपक्ष के नेता और मायावती के खास सिपहसालार स्वामी प्रयाद मौर्य ने बसपा छोड़ने की घोषणा कर दी और ऐसा करते समय मायावती पर टिकट बेचने और अम्बेडकर और कांशीराम की रीति-नीति के विपरीत काम करने के आरोप जड़ दिए। जैसे ही मौर्य ने बसपा छोड़ने का ऐलान किया दो वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद आजम खान और शिवपाल यादव उन्हें बधाई देने लपक पड़े पर जब अगले ही दिन मौर्य ने सपा को गुंडों और माफियाओं की पार्टी करार दे दिया तो आजम खान ने उन्हें बसपा में लौट जाने की सलाह दी और शिवपाल यादव ने उनके मानसिक संतुलन खो देने की बात कह दी। इसके साथ ही मौर्य के सपा में जाने की अटकलों पर विराम लग गया और अब उनके पास दो ही विकल्प बचे, या तो वे अलग पार्टी बनाकर नई राह चलें या फिर भाजपा में चले जाएं। मौर्य को दरअसल अपने बारे में बड़ी गलतफहमी है। वे समझते हैं कि वे मायावती के खेमे में सेंध लगा देंगे और उनके कुछ विश्वासपात्रों व विधायकों को तोड़ लाएंगे लेकिन ऐसा होने की कोई संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती। वे कोशिश करेंगे कि मायावती के मारे हुए बसपाइयों को अपनी तरफ तोड़-जोड़ लें और फिर अपना अलग कदम तय करें। वे वास्तव में इस प्रयास में हैं कि अपना कुनबा कुछ बड़ा कर लें ताकि भाजपा में जाने से पूर्व उससे जोड़तोड़ करते समय वे जरा ऊंचे पायदान पर खड़े होकर बात कर सकें और अपने लिए हैसियत की जगह ले लें। लेकिन ऐसा नहीं है कि भाजपा के नेता यह बात अच्छी तरह से न जानते हों कि मौर्य कितने पानी में हैं। फिर भाजपा के पास मौर्य यानी कुशवाहा जाति के नेता केशव प्रसाद मौर्य पहले से हैं, जो पार्टी के हाल में बनाए गए प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य की एक मुश्किल वे हिन्दू संगठन हैं जो पिछले दिनों की याद करते हुए कहते हैं कि बसपा में रहकर मौर्य हिन्दू देवी-देवताओं को अपशब्द बोलते थे, उन्हें भाजपा में नहीं आने देंगे।
जानकार मानते हैं कि मौर्य के निकल जाने से बसपा पर कोई खास प्रतिकूल असर होने वाला नहीं है। पिछला इतिहास गवाह है कि जो भी नेता बसपा को छोड़कर गया, वह कुछ दिनों सुर्खियां बटोरने के अलावा कुछ नहीं कर पाया। हां, एक बात जरूर है कि यदि स्वामी प्रसाद मौर्य पिछड़ा वर्ग के कुछ नेताओं को अपने साथ जोड़कर और उन्हें साथ ले जाकर भाजपा में भरती हुए तो बसपा की कीमत पर भाजपा को लाभ मिल सकता है। भाजपा को वैसे भी गैर-यादव पिछड़ों के समर्थन की बड़ी दरकार है। इसी के चलते उन्होंने केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। बसपा को वैसे भी अति पिछड़ा वर्ग का वैसा समर्थन नहीं मिल रहा है, जिसकी वह अपेक्षा करती रही है। कुछ क्षेत्रों में उसे अल्पसंख्यक वोट मिल सकता है लेकिन अकेले चमार वर्ग और कुछ प्रतिशत मुसलमानों के सहारे उसकी नैया पार नहीं होने वाली। जब तक वह गैर-यादव पिछड़ों के बड़े हिस्से को अपनी तरफ नहीं मोड़ती, उसके लिए चुनाव में बहुत आशाजनक परिणाम नहीं ही मिलेंगे।