
चुनाव प्रचार के दौरान कई बार अजीबो-गरीब हालात बन जाते हैं, जो हर चुनाव में कहीं न कहीं लोगों की जुबां पर आ जाते हैं। ऐसे रोचक किस्से और आपबीती न केवल गुदगुदाते हैं, मतदाताओं के जेहन में बीते चुनावों की याद भी ताजा कर देते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। 1989 के चुनाव थे। मैं चांदनी चौक सीट से चुनाव लड़ रहा था।

कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष की चल रही मुहिम के बीच दुबारा सीट बचाने की चुनौती थी। प्रचार के अत्याधुनिक साधन तो थे नहीं उस वक्त, तो सुबह-सुबह ही चुनाव प्रचार के लिए निकल पड़ता था। गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले भागदौड़ चलती रहती थी। मतदान के दो-तीन दिन पहले की बात है। प्रचार के आखिरी दिनों में ज्यादा से ज्यादा वोटर तक पहुंचने की कोशिश रहती थी। उस दिन हुआ यह कि देर शाम तक बैठकों को दौर चला।
इसके बाद लोगों से मुलाकात का जो सिलसिला शुरू हुआ वो रात दो बजे तक चलता रहा। इसके बाद घर लौटने की बारी आई। रात ढाई बजे के करीब घर पहुंचा। एक-दो सहयोगी छोड़ने आए थे। उन्हें बाहर से विदा किया और डोर बेल बजाकर गेट खुलने का इंतजार करने लगा। इस बीच मैं भूल सा गया कि अपने घर पर खड़ा हूं।
वोट मांगने की आदत ऐसी पड़ी, कि सामने खड़ी पत्नी भी वोटर नजर आईं। आव देखा न ताव, मैंने उनके पैर छुए और खुद को वोट देने की अपील कर डाली। ऐसा करते ही पत्नी भी झेंप गई। हड़बड़ाहट में उसने सवाल किया कि अरे, यह क्या रहे हो आप? उनकी आवाज सुनकर समझ गया कि गड़बड़ हो गई है।
फिर, हम दोनों मुस्कुराते हुए घर में दाखिल हुए। बहरहाल, इन सबके बीच दूसरी बात संसद पहुंचने में कामयाब रहा। बाद में कभी-कभार पत्नी चुटकी लेती कि जब मेरा आशीर्वाद मिल गया था, तो कौन चुनाव हरा सकता था।