संपादकीय

चुनौती भरे दौर में दुनिया

31_12_2016-gurcharandasराहत की बात है कि साल 2016 खत्म होने की कगार पर खड़ा है। गुजर रहा साल बहुत बुरा रहा है। इस साल उन सभी मूल्यों पर हमला हुआ जिससे मुझे प्रेम है। एक आदर्श उदारवादी के रूप में मैं सभी के लिए बराबरी का अधिकार चाहता हूं। नस्लवादी और जातीय भेदभाव मुङो स्वीकार नहीं है, मैं धार्मिक आजादी का आदर करता हूं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रतियोगी बाजार पर आधार आर्थिक व्यवस्था चाहता हूं और मैं आपके असहमति के अधिकार को बरकरार देखना चाहता हूं।

इन सभी विचारों को अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव, यूरोप से ब्रिटेन के बाहर निकलने और भारत सहित दुनिया में बढ़ते राष्ट्रवाद, नस्लवाद एवं असहिष्णुता से चोट पहुंची है। इस साल मोदी सरकार ने नोटबंदी का फैसला लेकर सत्ता में आने के बाद से पहली बड़ी गलती कर दी। इस फैसले से लोगों को लाभ तो नहीं हुआ, उल्टे असहनीय पीड़ा सहनी पड़ रही है। चौथाई सदी पहले साम्यवाद के पतन के दौरान राजनीति विज्ञानी फ्रांसिस फुकुयामा ने मुक्त बाजार पर आधारित उदारवादी लोकतंत्र की विजय की घोषणा की थी।

उन्होंने इसे इतिहास का अंत करार दिया और भविष्यवाणी की कि उदारवादी व्यवस्था समूचे विश्व में फैलेगी, क्योंकि यह शांति, आजादी और समृद्धि के लक्ष्य को हासिल करने में मनुष्य की मदद करती है। हालांकि आज ऐसा प्रतीत होता है कि फुकुयामा गलत थे। उदारवादी लोकतंत्र और ग्लोबलाइजेशन पर हमले हो रहे हैं। चीन का मार्क्सवादी पूंजीवाद बिना आजादी के ही बड़ी मात्र में संपत्ति पैदा करने में कामयाब रहा है। मध्य-पूर्व में लोकतंत्र के बजाय ¨हसक इस्लामिक कट्टरता का उत्थान देखा जा रहा है। 2008 की विश्व मंदी ने बैंकिंग और वित्त जगत के विनियमन में ढील को चुनौती दी है।

फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के अनुसार मुक्त बाजारों ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा किया है। पश्चिम में पढ़ा-लिखा कामगार तबका बाहरी लोगों को निकालने के लिए विलाप कर रहा है, क्योंकि उनकी राजनीतिक प्रणाली ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया है और धर्म की क्षति ने उनके जीवन को निरुद्देश्य बना दिया है। यह सही है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित उदारवादी व्यवस्था की गणना इतिहास में एक सुनहरे दौर के रूप में की जाती रही है। यह समय अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण रहा है। इस दौरान दुनिया (खासकर चीन और भारत के उत्थान के बाद) में समृद्धि आई है।

लोकतांत्रिक देशों की संख्या जहां 1974 में 35 थी वहीं 2013 में बढ़कर 120 हो गई, लेकिन इस दौरान पश्चिम में तकनीकी परिवर्तन और चीन, भारत के साथ-साथ तीसरी दुनिया के देशों के कामगारों में कुशलता की कमी के कारण नौकरियां में गिरावट देखी गई है। एक तथ्य यह भी है कि आर्थिक प्रगति शीर्ष के एक प्रतिशत लोगों को ही लाभान्वित करती रही है।1वैसे तो 2016 के चुनावी झटकों के बावजूद वर्तमान विश्व व्यवस्था के सामने कोई बहुत बड़ा खतरा नहीं है, लेकिन यह भी सही है कि यह व्यवस्था परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। मध्य-पूर्व में कट्टरवादियों का सपना इस्लामिक राज की स्थापना करना हो सकता है, लेकिन औसत मुस्लिम इसे नहीं चाहते हैं।

वहीं बाकी दुनिया को चीन के मॉडल में कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हुई है, जिसमें तानाशाही, मुक्त अर्थव्यवस्था और तकनीकी क्षमता का मिश्रण है। जिस प्रकार चीन में विकास कमजोर पड़ रहा है और आजादी की मांग जोर पकड़ रही है, वैसे में यह मॉडल आने वाले दिनों में ध्वस्त हो सकता है। यह विडंबना है कि बहुत से भारतीय चीन की प्रशंसा करते हैं, क्योंकि उसने वह सब दिया है जो एक आम आदमी सरकार से उम्मीद करता है। मसलन-व्यक्तिगत सुरक्षा, समृद्धि और गुणवत्तापूर्ण सुविधाएं, लेकिन चीन का मॉडल आदर्श नहीं हो सकता। इसके विपरीत भारतीय लोकतंत्र प्रभावकारी है, लेकिन यह सुशासन देने में विफल रहा है।

इस निराशाजनक परिदृश्य के बावजूद भारत की आर्थिक संभावनाएं अपेक्षाकृत बेहतर नजर आ रही हैं। पश्चिम में अर्थिक ठहराव के विपरीत भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ रही है। मध्यवर्ग का न सिर्फ दायरा बढ़ रहा है, बल्कि वह सामाजिक रूप से भी ऊपर उठ रहा है। यह वर्ग किसी तरह की बाधा नहीं चाहता है। भारत की आर्थिक उत्पादकता चीन और पश्चिम से निम्न है, लेकिन इसमें आने वाले दशकों में अपनी उत्पादकता को बढ़ाने की भरपूर क्षमता है। पश्चिम और चीन की तुलना में भारत की जनसंख्या युवा है। भारत की कामकाजी आबादी 2050 तक लगातार बढ़ेगी।

विकसित देशों में 60-65 और चीन में 50 प्रतिशत की तुलना में भारत में महिला कामगारों की आबादी सिर्फ 22 प्रतिशत है। इसका अर्थ है कि भारत में महिला कामगारों की हिस्सेदारी तीन गुनी बढ़ सकती है। यह भारत को होने वाला एक दूसरा लाभ है। 1आर्थिक ठहराव ने पश्चिम को अपने से भिन्न सोच रखने वालों के प्रति अनुदार बना दिया है। भारत की ऐतिहासिक ताकत इसकी विविधता में निहित है। दो हजार जातियों और दर्जनों जनजातियों वाला देश भारत भिन्न विचार रखने वालों के साथ मिलजुलकर रहने का आदी हो गया है। हम सहिष्णु लोग हैं और यही वजह है कि भारत को हंिदूू राष्ट्र बनाने की योजना कभी सफल नहीं हो पाई है।

भारत की सबसे बड़ी कमजोरी खराब शासन और सार्वजनिक सेवाओं के वितरण में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है। मोदी और केजरीवाल की जीत में लोगों के इनके प्रति गुस्से का बहुत बड़ा हाथ था। अब इस आक्रोश का विस्तार नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर जातियों के आंदोलनों में हो गया है। इस बीच मोदी ने नोटबंदी के जरिये भ्रष्टाचार पर सबका ध्यान खींचने की कोशिश की है, लेकिन हमें लगता है कि इससे काले धन पर प्रभावकारी अंकुश नहीं लगेगा।

भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए आपको भ्रष्टाचार के स्नोत को बंद करना होता है। जैसे मलेरिया से लड़ने के लिए आपको सबसे पहले अपने आसपास साफ-सफाई करनी होती, सिर्फ रोगी को शक्तिवर्धक दवाइयां देना ही काफी नहीं होता। वास्तव में हमें प्रशासनिक, पुलिस और न्यायिक सुधार की भी जरूरत है। काले धन के स्नोत को बंद करने के लिए जमीन की खरीद-बिक्री पर लगने वाले उच्च स्टांप शुल्क और सोने पर लगने वाले सीमा शुल्क से छुटकारा पाने की जरूरत है। इसके साथ ही हमें राजनीतिक पार्टियों पर दबाव डालना होगा कि वे सभी चंदे डिजिटल माध्यम से लें।

यह स्पष्ट है कि नोटबंदी के क्रियान्वयन में कई तरह की खामियां रही हैं जिससे देश की अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुंचा है, लेकिन इसके बावजूद भारत की जनता मोदी के साथ है। यह दिलचस्प है कि आज हमारे यहां उम्मीदें बढ़ रही हैं वहीं पश्चिम में उम्मीदें धराशायी हो रही हैं। भारत ने 1991 के बाद से आदर्श उदारवादी मूल्यों पर आधारित लोकतंत्र और मुक्त बाजार के रूप में काफी प्रगति की है। यदि मोदी सांस्कृतिक असहिष्णुता को नियंत्रित कर लेते हैं तो भारत विश्व के लिए प्रेरणा बन जाएगा। लोकतंत्र और मुक्त बाजार पर आधारित भारत की प्रगति उदारवादी व्यवस्था में विश्व का भरोसा बहाल करने में मददगार बन सकती है।

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