चैनल डायरी- “जिहाद शब्द हटते ही खबर का जूस निकल जायेगा!”
(आईबीएन7 से 21 जनवरी 2015 को बर्खास्त किए गये एसोसिएट एडिटर पंकज श्रीवास्तव ने पिछले साल सितंबर 2014 में न्यूजरूम के करीब 20 दिनों का हाल डायरी की तरह लिखा था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि खबरें तय करते समय किस तरह के दबाव और पूर्वाग्रह काम करते हैं। यह सब उन्होंने अपने निजी कंप्यूटर में लिखा था। छापने से पहले संपादकों को छोड़कर बाकी लोगों के नाम हटा दिये गये हैं।)
4 सितंबर (बृहस्पतिवार) 2014
दिन में करीब 11 बजे थे जब टीवी पर नजर गई। आईबीएन7 के पर्दे पर बड़ा-बड़ा लिखा दिख रहा था ‘लव जिहाद नहीं क्रिकेट जिहाद’। स्क्रीन पर मैदान से लौटते बल्लेबाज……..के विजुअल थे.. साथ में स्पोट्र्स रिपोर्टर की चैट थी। वो हैरानी और गुस्सा जता रहा था कि क्रिकेट के मैदान में ये कैसे हो सकता है। मैंने समझने की कोशिश की कि हुआ क्या है.. एंकर के नथुने फूल रहे थे..उसके गुस्से का लब्बो-लुआब ये था कि ‘लव जिहाद’ के बाद ये ‘क्रिकेट जिहाद’ भी शुरू हो गया। तभी दोनों खिलाड़ियों की बातचीत स्क्रीन पर चमकने लगी। वो कह रहा था कि तुम इस्लाम कबूल कर लो, सीधे जन्नत में जाओगे। चैनल इसे ही ‘धर्मपरिवर्तन की कोशिश’ बताकर स्क्रीन में नीचे पट्टी चला रहा था। दिमाग घूम गया। ये एक निजी बातचीत है जिसमें एक मुसलमान से बौद्ध बन गये एक क्रिकेटर को दूसरा मुस्लिम क्रिकेटर फिर से इस्लाम कबूल करने की सलाह दे रहा है। यह जानकारी सिरे से गायब है। फिर भी यह धर्मपरिवर्तन की कोशिश कैसे हो गई? क्या वो मौलवी है जो कलमा पढ़ा रहा है? नहीं, तो फिर ये धर्मपरिवर्तन की कोशिश कैसे हो गई? सलाह और कोशिश का फर्क नहीं मालूम क्या..? लगता है कि न्यूज चैनलों ने नफरत फैलाने की सुपारी ले ली है।
‘क्रिकेट जिहाद’ शब्द तमाम चैनलों में चमक रहा था। इस शब्द को जन्म देने वाला आज खुद गर्व से इठला रहा होगा जिसने बाकी चैनलों को इस शब्द के इस्तेमाल को मजबूर कर दिया है। बहुत बेचैनी हो रही थी। सोचा सिंह को फोन लगाऊं। चैनल के आउटपुट की जिम्मेदारी उसी पर है, यानी पर्दे पर क्या जाए और कैसे जाए। पुराना कॉमरेड है। लेकिन पिछले छह साल में उसके किसी हाव-भाव में इस अतीत की झलक नहीं मिली। दूसरों ने याद दिला दिया हो तो बात दीगर है। ख़ैर, फोन लगाया। उसने सारी बात सुनी, पर क्या कर सकता था। तय पाया गया कि सबकुछ सुमित अवस्थी की देखरेख में हो रहा है। सुमित ने करीब 15 दिन पहले डिप्टी मैनेजिंग एडिटर बतौर ज्वाइन किया है और पहले दिन, पर्दे पर जी न्यूज से लाए गये एक एंकर के साथ अवतरित हुए, मोदी के कामकाज पर सर्वे के साथ। कमान उन्हीं के हाथ में है।
खैर, देखता हूं दफ्तर पहुंचकर। इस तरह तो खबर नहीं जाएगी..सिंह ने कहा। दफ्तर जाते वक्त यही सब बातें दिमाग में घूम रही थी। इस हाल में एक्सीडेंट के खतरे रहते हैं। अभी दो दिन पहले ही रात में लौटते वक्त कार एक डिवाइर पर चढ़ गई थी। वो तो डिवाइडर की ऊंचाई ज्यादा नहीं थी, वरना काफी नुकसान होता। ये वही दिन था जब मोदी सरकार के सौ दिन पर आए सर्वे के आंकड़ों को लेकर खेल हुआ था। साढ़े 12 से कुछ ज्यादा हो रहा था जब नोएडा फिल्मसिटी पहुंचा। करीब दो चक्कर लगाने के बाद कार की पार्किंग का इंतजाम हो पाया। दफ्तर की ओर बढ़ते हुए यही सवाल खाये जा रहा था कि पहुंचकर कैसे शांत रहूंगा। क्या शिफ्ट इंचार्ज से बात करूं। उससे क्या फायदा होगा। वह तो परम मोदीभक्त है। क्या पता क्रिकेट को जिहाद से जोड़ने का आयडिया उसका ही हो। उससे कुछ कहा तो फट पड़ेगा। तो फिर.. सीधे सुमित से बात करूँँ। मन में विचार आया। सुमित पहले भी चैनल में पोलिटिकल एडिटर बतौर काम कर चुके हैं। उससे पहले रिपोर्टर की तरह जब यूपी आते थे तो कई जगह टकराये थे। खासतौर पर राहुल गांधी या सोनिया गांधी के अमेठी-रायबरेली दौरे पर। हंसते-मुस्कुराते ही मिले। कोई निकटता नहीं थी, लेकिन कोई झगड़ा भी नहीं।
पर क्रिकेट जिहाद का आयडिया सुमित का ही हुआ तो…अब तो चैनल हेड ही है। बुरा मानेगा तो नुकसान पहुंचा सकता है। मन में मंथन चल रहा था। लेकिन बिना कहे रह पाओगे। नहीं। तय हो गया। दफ्तर पहुंचते ही अपने कंप्यूटर के पास बैग रखा तो आँखें सुमित को खोज रही थीं। सुमित झा के केबिन में थे। तेज कदमों से उधर का रुख किया। ‘बुरा ना मानें तो एक बात कहूं। ये क्रिकेट जेहाद कहकर हम लोग नफरत फैला रहे हैं। ये जिहाद कैसे हो गया। सलाह दी है केवल। वो पहले मुसलमान ही तो था।’
सुमित से हाथ मिलाते-मिलाते ये सारे वाक्य निकल गये थे। सुमित थोड़ा विचलित नजर आए। बोले-‘नहीं नफरत फैलाने का इरादा नहीं है। इरादा है कि लोग देखें। वैसे इन दोनों में पहले भी झगड़ा होता रहा है। इनफैक्ट वो चिढ़ा रहा था। ‘जब झगड़ा था तब तो और नहीं कह सकते कि धर्मपरिवर्तन की कोशिश की। चिढ़ाने वाले की बात कोई क्यों मानेगा’ ‘अच्छा जिहाद को इन्वर्टेड कॉमा में लिख देते हैं…’ ‘नहीं, पर हमारा जिहाद पर जोर ही क्यों है…’ ‘तो आप ही बताइये क्या कहें’ ‘जो भी कहें, जिहाद ना कहें…मैदान में धर्मपरिवर्तन की बात या ऐसा ही कुछ कह सकते हैं..’ ‘ऐसा है, जिहाद हटाते ही खबर का जूस निकल जाएगा..’ ‘पर ये जूस नहीं जहर है सर…टीआरपी जरूरी है पर नफरत फैलाने की कीमत पर’…
सुमित की ओर देखा तो वहां बदलाव का कोई लक्षण नहीं देखा। केबिन से बाहर आया तो एक सवाल और मथने लगा। सुमित के साथ पूरी बातचीत के दौरान कुमार खामोश रहे। कुमार यानी टीवी के सबसे पुराने पत्रकारों में से एक। कभी भी खबरों को पेश करने के तौर-तरीकों पर संपादक से उलझते नहीं देखा। ना नए पत्रकारों में इस पेशे को लेकर इज्जत भरते। अंदाज़ा लगाया कि मुझसे चार-पांच गुना तनख्वाह तो होगी ही। ‘तो क्या कभी इतनी तनख्वाह मिली तो मैं भी चुप हो जाऊंगा.?’..अंदर से सवाल गूँजा। कोई जवाब नहीं दे पाया। आज का दिन गजब जा रहा है। कई वरिष्ठ लोग परेशान घूम रहे हैं। बालकनी में तीन -चार एक साथ सिगरेट पीते हुए गम गलत कर रहे थे। पता चला कि 3 सितंबर की रात के साढ़े सात स्पेशल में बनारस से चौपाल दिखाई गई थी। विषय वही-मोदी के सौ दिन। रिपोर्टर थे लखनऊ ब्यूरो के एक संवाददाता । शायद कुछ संतुलन बरतते हुए उन्होंने कुछ ऐसे लोगों से भी सवाल पूछ लिये जो प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज पर सवाल उठा रहे थे। इस प्रसारण के कुछ देर बाद ही वरिष्ठों के फोन खड़कने लगे। उमेश उपाध्याय का निर्देश आया कि चौपाल में जो-जो बोला गया वो सब लिखित में चाहिए। ये इतनी जल्दी कैसे हो सकता था। एक-एक लाइन सुनिये और उतारिये, जबकि रात की पाली में इक्का-दुक्का लोग ही हैं। सीईओ आलोक अग्रवाल भी कोप दिखा रहे थे। ये चौपाल आईबीएन7 खबर.कॉम पर भी थी। तय हुआ कि हटा दी जाए। वाकई अच्छे दिन आ गये हैं। अंबानी के चैनल में मोदी के खिलाफ कुछ बोले जाने पर रोक है। याद आ रहा है कि एबीपी के संपादक शाज़ी ज़मां के एक सवाल के जवाब में चुनाव के पहले मोदी ने कहा था-‘जो डरते हैं, उन्हें पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए। तो क्या मोदी की ओर से डराकर थाह ली जा रही है।’ ‘मरे गधों पर लाठी चारज’—प्रिय कवि और अपने पहले संपादक वीरेन डंगवाल का ये वाक्य याद आ गया।
5 सितंबर (शुक्रवार)
दफ्तर में घुसते ही कुछ मुस्कराते चेहरों से पता चला कि आज ‘टीटीएम’ का दिन है। ‘टीटीएम’ यानी ताबड़तोड़ मालिश। यह ऐसी खबरों को कहा जाता है जो किसी को खुश करने के लिए दिखाई जा हैं। पर मोदीराज में इसका एक मतलब ‘ताबड़तोड़ मोदी’भी हो गया है। यह सिर्फ आईबीएन7 का नहीं, सभी चैनलों का हाल था। शिक्षक दिवस पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन गायब हो गये थे। हर तरफ सिर्फ मोदी थे। उनके भाषण का प्रसारण यूं तो शाम तीन बजे होना था, लेकिन सुबह से सिर्फ इसकी तैयारियों का बखान था। कैमरों से उत्साही बच्चों और शिक्षकों का हुजूम फूटा पड़ रहा था। हालांकि इतने बड़े आयोजन में समस्याएं कम नहीं रही होंगी। स्कूलों में टीवी लगाने से लेकर जनरेटर तक की व्यवस्था में तमाम परेशानियां आई होंगी, लेकिन एक भी खबर ऐसी नहीं थी। क्या लोगों ने वाकई ऐसी शिकायत दर्ज नहीं कराई होगी। ऐसा तो हो नहीं सकता। फिर दिख क्यों नहीं रहा? जल्दी ही वजह समझ में आ गई। शिफ्ट इंचार्ज ने सिंह की ओर जुमला उछाला-‘सर, विरोध की बाइट नहीं चलेंगी। मतलब…मतलब साफ है, समझ जाइए, उसने मुस्कराते हुए कहा।’ ‘क्या पोलिटिकल रियेक्शन भी नहीं जाएगा?’ ‘नहीं, कोई नेता कुछ बोले तो जा सकता है, लेकिन जनता की ओर से नहीं.’ मोदी भक्त शिफ्ट इंचार्ज को ऐसे निर्देशों की ‘आकाशवाणी’ हो जाती थी। कोई ऊपर से लगातार कह रहा था कि मोदीविरोधी खबर नहीं दिखाई जाए। यहां तक कि लोगों का असंतोष भी न सामने आऩे पाए। लेकिन वह ऊपर वाला कौन था। कोई नहीं जानता। ऐसी कोई नीति है तो स्पष्ट क्यों नहीं की जाती। पर सब कुछ बिना कहे हो रहा है। इमरजेंसी में सुना था कि पत्रकारों को झुकने को कहा गया और वे लोट गये, लेकिन इस बार तो कुछ कहने की जरूरत भी नहीं पड़ रही है। मैंने थोड़ा चिढ़ाने के लिए सवाल उछाला-‘अरे वो कार्तिक ने समर्पण किया कि नहीं?’। सब मेरी ओर देखकर हंसने लगे। कार्तिक यानी रेलमंत्री सदानंद गौड़ा का बेटा जिस पर बलात्कार का आरोप लगा है। अदालत ने वारंट जारी कर दिया है। लेकिन चैनलों में हेडलाइन तो छोड़िये कोई खबर ही नहीं। ठीक 3 बजे मोदी मंच पर आ गए। सीधा प्रसारण शुरू हो गया। कभी ऐसा होता था कि जब पीएम भाषण देते थे, तभी प्रसारण होता था। लेकिन अब पीएम के पहले कई बच्चों की ओर से शिक्षक दिवस पर तैयार किये गये भाषण भी प्रसारित हो रहे थे। बिना ब्रेक के। विज्ञापन का दबाव डालने वाला कोई नहीं था। ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि मोदी भाषण और बच्चों के सवालों का जवाब देकर चले नहीं गये। इसके बाद शुरू हुआ भाषण पर विश्लेषण। आज किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं थी। इस दौरान न्यूजरूम में भी ‘अहो-अहो’ की गूंज होती रही। शिफ्ट इंचार्ज आने वाले हर ट्वीट को चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ रहा था। कोई ऐसा ट्वीट न चल जाए, जो विरोध में हो, इसपर उसकी पूरी नजर थी। कुछ इरादा हम जैसे लोगों को चिढ़ाना भी था जो उसकी नजर में मोदी के पीएम बनने से ‘फ्रस्ट्रेट’ थे। तिवारी जी भी गजब जोश में थे। यूं तो साहित्य वगैरह में भी दखल रखते हैं, लेकिन जाति और धर्म के मामले में साक्षात मनुस्मृति हैं। हर कदम को जाति की कसौटी पर कसने वाले…। आजकल अपने बुजुर्ग पिता की बात को ब्रह्मवाक्य की तरह पेश करते हैं जो मोदी पर कुर्बान हैं और केजरीवाल जैसों को मौका मिले तो मुंह नोच लें। इस मोदीस्तुति से जिन्हें परेशानी थे, वे चिन्हित थे। मैंने किसी संदर्भ में कहा कि राष्ट्रनिर्माण में जुटे हो। बस, सुमित अवस्थी को आता देख तिवारी मेरी और सिंह की ओर इशारा करते हुए चिल्लाये-‘अरे हमें तो अल्ट्रा लेफ्ट वालों को देखकर बड़ी दया आती है। मोदी ने क्या गति कर दी है। अब तो ये भी कह रहे हैं कि राष्ट्रनिर्माण में जुट जाइये।’ सुमित किसी बच्चे की तरह किलकारी मारते हुए हँसा। त्रिपाठी और उसके हाथ, दे-ताली के अंदाज में एक दूसरे की तरफ लपके। अट्टाहास गूंजने लगा। सुमित चैनल का डिप्टी मैनेजिंग एडिटर है, फिलहाल सबसे ऊपर। एक संपादक को इस स्तुति से निजी रूप में भी कोई तकलीफ नहीं। क्या ये संयोग है, मैं सोचने लगा। अवस्थी, उपाध्याय, तिवारी, मिश्र, शुक्ल…खुशी से झूमने वाला पत्रकारों की पूरी जामत ब्राह्मण है, क्या यह भी संयोग है…?
6 सितंबर (शनिवार)
चैनल का पूरा रंग-ढंग बदल रहा है। आज साढ़े सात बजे के स्पेशल शो में चांद पर एलियन होने की रिपोर्ट थी। कहीं ऐसी खबर थी कि नासा ने अपोलो के बाद दोबारा चंद्रयान क्यो नहीं भेजा! बस इसे आधार बनाकर तीन-चार साल पुरानी स्क्रिप्ट निकाली गई। उन दिनों टीआरपी की तलाश में एलियन, सांप, बिच्छू की शरण ली गई थी। लेकिन लग रहा है कि पुराना दौर लौटेगा। संकेत कुछ ऐसे ही हैं। ना-ना करके भी सनसनी बेचने की ओर बढ़ा जा रहा है। सुमित अवस्थी के पास पत्रकारिता को लेकर कोई विजन है, ऐसा लगता नहीं। मोदी की आलोचना कर नहीं सकते, बीजेपी की आलोचना कर नहीं सकते। एलियन ही बचेगा करने को। वैसे, अभी रात आठ बजे ‘प्रश्नकाल’ में तीतर-बटेर की लड़ाई करना ही तय हुआ है। साईं से लेकर तलाक तक किसी मुद्दे पर लोगों को बैठाओ और लड़ाओ। जो जितना चीखे, वह उतना बढ़िया गेस्ट। शांति से जवाब देने वालों को ‘बैड टीवी’ बताकर दोबारा ना बुलाने का निर्देश स्पष्ट है। शाम को कई चैनल दिल्ली में सरकार बनाने की जद्दोजहद से जुड़ी खबरें दिखा रहे थे। आईबीएन7 से यह मुद्दा ही गायब है, क्योंकि जाने-अऩजाने केजरीवाल का नाम लेना पड़ेगा। जबकि अंबानी की टीम ने आते ही सार्वजनिक सभा (टाउन हॉल) की थी, उसमें साफ संकेत थे कि केजरीवाल को दिखाने से बचा जाए। ऊपर के इस संकेत को आदेश समझकर पूरी संपादीय टीम लोटी जा रही है। ज़्यादातर का मिज़ाज भी ऐसा ही है। वे दिल से चाहते हैं कि केजरीवाल बरबाद हो जाए। उन्हें पता है कि केजरीवाल ईमानदार है, लेकिन उसे तबाह होना ज़रूरी है ताकि बीजेपी पर अंगुली ना उठ सके। कांग्रेसियों से उन्हें कोई परेशानी नहीं। उसकी चादर को बीजेपी की चादर की तुलना में कभी भी मैली बताई जा सकती है।
आज सिंह से काफी निऱाशा हुई। नौ बजे के बाद जब दफ्तर से निकलने की तैयारी कर रहा था तो उसने बुलाकर एक कार्यक्रम बनाने को कहा। स्मिता शर्मा ने मेरठ जाकर करीब डेढ़ घंटे का शूट किया है। उसे देखकर कार्यक्रम बनाना था। मैंने बताया कि मेरी जिम्मेदारी स्क्रिप्ट की है, ये मेरा काम नहीं। वो नाराज हो गया। मैंने बताया कि मैं चैनल का एसोसिएट एडिटर हूं, एसोसिएट प्रोड्यूसर का काम मत लीजिए। उसने झल्लाकर कहा कि आशुतोष चले गये हैं, भूलिये नहीं। अब ऐसा नहीं चलेगा। मैं हैरान था कि आशुतोष के जाने की बात क्यों की। क्या संपादक बदलते ही एसोसियेट एडिटर चाय की दुकान का छोटू हो जाएगा। ‘छोटू, बिस्कुट दे’, ‘गिलास धो’, ‘झाड़ू लगा’…। मेरी जिम्मेदारी कॉपी एडिटिंग है तो वही करूंगा। हालांकि आधे से ज्यादा बार कॉपी मिलती नहीं। कोई खबर बता दी जाती है जिसे स्क्रिप्ट की शक्ल खुद देता हूं। लेकिन डेढ़ घंटे की फुटेज देखकर प्रोग्राम बनाना..? फिर यह काम आउटपुट के लोगों से क्यों नहीं कही जा रही..वहां कई वरिष्ठ लोग बैठे, कई जूनियर हैं…मुझे क्यों..?.क्या सिंह की कोई खुन्नस है…
यकीन नहीं हो रहा कि सिंह एक कॉमरेड का बेटा है। उसके पिता की शोहरत थी कि आठ घंटे की शिफ्ट के बाद कलम बंद कर देते थे। श्रमजीवी पत्रकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी। और ये, विश्वविद्यालय के दिनों में लाल सलाम करने वाले का ऐसा व्यवहार। ऐसा पहले भी एक-दो बार हुआ है। ऐसा करते वक्त सिंह की आंखों में अपरिचय झांकता है। खैर, मैंने साफ मना कर दिया। नहीं करूंगा ये काम। हालांकि ये तीखा झगड़ा किसी को नजर नहीं आया। मैंने बहुत कोशिश की कि आवाज ऊंची ना होने पाए और कामयाब रहा। सिंह झल्ला गया था। सिंह के व्यवहार से काफी अपमानित महसूस कर रहा हूं। नौकरी बदल लेनी चाहिए..पर मिलेगी कहां। नौकरी ना रही तो दो बेटियों की पढ़ाई, घर का खर्च, मकान की किस्त..सब कैसे होगा? वैसे, सिंह तो आउटपुट का काम देखता है और मेरे बॉस हैं झा। तो ये हुकुम क्यों चला रहा है? शायद विनम्रतावश मैंने ही उसे बॉस होने का अहसास कराया है। कभी-कभी गंभीरता से सोचता हूं कि खाने के डिब्बे का कारोबार शुरू करूं। मनीषा बहुत अच्छा खाना बनाती हैं। नाम भी सोचा है-‘एडिटर्स डिब्बा’..खबरों में मिलावट के दौर में शुद्ध भोजन की गारंटी।
7 सितंबर (रविवार)
छुट्टी। छुट्टी। छुट्टी।
8 सितंबर (सोमवार)
शनिवार को सिंह से हुए झगड़े का असर दिख रहा है। ना उसने बातचीत की ना मैंने। आज कोई स्क्रिप्ट देखने को भी नहीं कहा। अपने काम से ऊब हो रही है। काश कहीं रिपोर्टर की नौकरी मिल जाए जिसमें देश भर में घूम-घूम कर खबरें करनी हों। लेकिन कौन देगा ऐसी नौकरी। चैनलों का धंधा बहस और मजमेबाजी से चल रहा है। ग्राउंड रिपोर्टिंग में खर्च होता है। अखबारों का हाल भी बहुत बेहतर नहीं। श्रीनगर की बाढ़ सबसे बड़ी खबर है। इस बीच अरविंद केजरीवाल ने धमाका किया बीजेपी उपाध्यक्ष शेर सिंह डागर का स्टिंग दिखाकर। कुछ चैनलों ने लाइव काटा, जबकि कुछ हिचकते हुए खबर दिखा रहे हैं। पूंजी के दबाव ने चैनलों का गला कस दिया है। आईबीएन 7 के लिए तो यह खबर दिखाना गुनाह है। लेकिन धीरे-धीरे सभी चैनलों की मुख्य खबर यही बनती जा रही है। आईबीएन 7 पर भी दबाव बढ़ता जा रहा है।
सुमित अवस्थी ने देर शाम एक उपाय निकाला। निर्देश दिया कि एक छोटी सी खबर चले, लेकिन उसमें यह भी बताया जाए कि आप भी कांग्रेस विधायकों को तोड़ने की कोशिश करती रही है। संदीप दीक्षित ने ऐसा कहा है, यह जानकारी भी दी। लेकिन सबसे दिलचस्प तो है अवस्थी की श्राद्धप्रियता। कल से पितृपक्ष शुरू हो रहे हैं। उसका निर्देश है कि बड़े पैमाने पर श्राद्ध का कवरेज करना है। पटना से रिपोर्टर को ओबी वैन के साथ रवाना कर दिया गया है। वहां विष्णुपद मंदिर से लाइव होगा।
इस बीच गणपति विसर्जन की धूम रही। सारे चैनल जैसे गणेश की सूंड़ बनकर झूम रहे थे। हैदराबाद में विसर्जन से लौटते वक्त एक टैंपो पलट गया, लेकिन सारे लोग बच गये। विजुअल सबके पास थे। जल्द ही सारे चैनलों पर टॉपबैंड चमकने लगा—‘गणेश ने बचाया।’ इन मूर्खों से कौन पूछे कि जब हैदराबाद में बचा लिया तो जम्मू-कश्मीर में फंसे लाखों लोगों को बचाने के लिए शंकर सुवन क्यों नहीं जाते? इस देश का भगवान ही मालिक है। अंधविश्वासों को बढ़ाने में आधुनिक तकनीक का ऐसा इस्तेमाल पत्रकारों के लिए डूब मरने की बात है, लेकिन अवस्थी करियर के शिखर पर है। हर हाल में टीआरपी चाहिए। उमेश उपाध्याय कह चुके हैं कि अच्छा चैनल और टीआरपी एक ही बात है, तो अवस्थी चैनल को अच्छा बनाने में जुटा है। यूं भी ज्यादातर ब्राह्मण संपादकों की श्राद्ध के प्रति अतिरिक्त श्रद्धा है। उन्हें कौन बताये कि वे पत्रकारिता का भी श्राद्ध ही कर रहे हैं।
9 सितंबर (मंगलवार)
पितृपक्ष पर पहली बार चैनल में इतनी सक्रियता दिख रही है। हेडलाइन और जगह-जगह से लाइव। गया से खासतौर पर। स्क्रीन पर पंडित जी लोग जमे हैं। शाम साढ़े सात बजे आधे घंटे का स्पेशल भी पितृपक्ष पर चला। पितृपक्ष से जुड़ी कहानियां सुनाई गईं। रंगे-पुते चेहरों के साथ एंकर बता रहे थे कि पितृपक्ष पर श्राद्ध के बाद जो खाद्यसामग्री निकाल कर रखी जाती है उसे कौए या कुत्ते की शक्ल में पुरखे ही आकर खाते हैं। सर पीट रहा हूं। हजारों साल से जिस अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष चला उसके खिलाफ अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी पूरी ताकत से लड़ रही है। आकाशीय तरंगों और उपग्रहों का इस्तेमाल दरअसल ब्राह्मणवाद की पुनस्र्थापना के लिए किया जा रहा है। चैनलों में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो नानक से लेकर कबीर तक को पढ़ लिखकर बड़े हुए हैं। लेकिन पूंजी ने सबको कांख में दाब लिया है। इन अपराधियों की लिस्ट में मेरा भी नाम दर्ज है। लेकिन क्या ये लड़ाई सिर्फ पत्रकारों के बूते है। जैसी राजनीति होगी, संस्कृति भी वैसी हो होगी, और पत्रकारिता भी। वैकल्पिक पत्रकारिता हो सकती है, लेकिन विकल्प हो तो..!
आठ बजे के प्रश्नकाल के लिए मुद्दा मिल गया था। ‘केश रंगने वाली गुरुद्वारों में कीर्तन कर सकती हैं या नहीं, बहस इस पर है।’ दोनों पक्ष डटे हैं। लेकिन लोगों को मज़ा नहीं आ रहा है। शिकायत थी कि ये लोग सिखों की तरह लड़ ही नहीं रहे। बहस में प्रख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा भी हैं, लेकिन एंकर उन्हें भाव देने को तैयार नहीं। एक-आध सवाल पूछा, लेकिन उनका शिष्ट और संतुलित जवाब उन्हें ‘बैड टीवी’ बता रहा है। वैसे इस महिला एंकर ने मैत्रेयी का नाम भी सुना होगा, मुझे शक है। याद आया एक पुरुष एंकर भी। एक दिन ऐसी ही बहस में वो इतिहासकार मुशीरुल हसन से सवाल पूछने के बजाय बीजेपी के सुधांशु त्रिवेदी से इतिहास पर प्रवचन करा रहा था। हां, इतिहासकार बिपिन चंद्रा की मौत पर भी हैरान था कि ‘ये थे कौन’? आज काम काफी था। कई स्क्रिप्ट निकालनी पड़ीं, लेकिन सिंह से अबोला जारी है। वो चायखाने के मालिक का मिज़ाज त्यागने को तैयार नहीं, और मैं छोटू बनने से रहा।
10 सितंबर (बुधवार)
दो ही खबरें छाई हैं। कश्मीर की बाढ़ या फिर लवजिहाद। बाढ़ की कवरेज काफी कुछ सेना पर निर्भर है। संचार व्यवस्था ध्वस्त है। रिपोर्टरों से संपर्क में भी मुश्किल आ रही है। न्यूज रूम में एक ख़ास तरह का उत्साह दिख रहा है। ‘कहां गये वे अलगाववादी जो सेना पर पत्थर फिंकवाते थे’- सोशल मीडिया में छाया यह प्रचार न्यूज रूम में कई लोगों पर हावी है। शिशु मंदिर से पढ़कर निकले बालक पूरे रंग में हैं। लेकिन ये बाढ़ क्यों आई इस पर चर्चा लगभग गायब है। ऐसी तमाम जानकारियां हैं कि श्रीनगर में पानी निकासी के तमाम रास्तों पर इमारतें बना दी गई हैं। कुछ ऐसा ही विकास केदारनाथ में भी हुआ था। लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन जैसी कोई चीज नहीं है, तो फिर संपादक कैसे दिमाग लगा सकते हैं। बात निकलेगी तो विकास के मॉडल पर सवाल उठेगा। ग्रोथ रेट पर असर पड़ेगा।
उधर, लवजिहाद के मुद्दे पर हो-हल्ला मचाने का सिलसिला जारी है। संपादक को समझ में आ गया है कि इस मुद्दे पर टीआरपी मिलेगी। स्पेशल शो बनवाया गया। अब मुद्दा गरबा में मुसलमानों को रोकने का है। वजह वही लवजिहाद का खतरा। आठ बजे प्रश्नकाल का यही मुद्दा था। मीडिया ने एक चीज साबित कर दी है कि लवजिहाद जैसी कोई चीज वाकई है। यह एक असंदिग्ध शब्दपद है। समाज पूरी तेजी से ‘हम’ और ‘वे’ में बंट रहा है औऱ मीडिया इसकी गति को कई गुना बढ़ा रहा है। चैनल के तुरंत सर्वे में 88 फीसदी लोगों ने इस रोक को सही बताया है। ये सवाल सिरे से नदारद है कि मुसलमानों ने गरबा में शामिल होने की मांग कब और कहां की है? चैनल देखकर ऐसा लग रहा है कि मुसलमान इसे मौलिक अधिकार बनाने की मांग कर रहे हैं! काश कोई ढंग का संपादक होता तो इन्हीं स्थितियों में सेक्युलर मिज़ाज की गुंजाइश निकाल सकता था।
11 सितंबर (गुरुवार)
चैनल में मोदीभक्ति उफान पर है। 1893 में आज ही के दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की धर्म संसद को संबोधित किया था। सुबह मोदी ने ट्वीट किया कि स्वामी जी के विश्व संदेश का अनुसरण किया जाता तो अमेरिका में 9/11 भी ना होता। चैनल इस विचार पर कुर्बान हो गया। विवेकानंद से जुड़े मोदी जीवन के प्रसंगों पर पैकेज बनने लगे। शाम को साढ़े सात बजे स्पेशल भी। विवेकानंद के बहाने मोदीगान। कहीं कोई सवाल नहीं। मेरा बार-बार पूछने का मन करता रहा कि अमेरिका में 9 -11 ही ना होता या अयोध्या और गुजरात भी ना होता? ये सवाल तो बीजेपी और संघवालों से पूछा जाना चाहिए कि भाई विवेकानंद को पढ़ा भी है या सिर्फ फोटो पर माला चढ़ाते हो..पर कौन पूछने देगा। उलटा योगी के अपमान को चैनल ने मुद्दा बना रखा है। यूपी में 13 सितंबर को उपचुनाव के लिए वोट पड़ने हैं। मैनपुरी में रामगोपाल यादव आखिरी दिन के प्रचार में थे। योगी की रैली पर रोक के जवाब में उन्होंने कहा कि डकैतों को डकैती की इजाजत कैसे दी जा सकती है? जाहिर है, कुछ विवाद खोजने में जुटे चैनलों का अगला सवाल यही था कि क्या योगी डकैत हैं। रामगोपाल ने जवाब दिया कि ‘छवि तो ऐसी ही है।’ बस फिर क्या था। ‘सांसद योगी को डकैत कहना सही या गलत’ का एसएमएस पोल होने लगा। आठ बजे का प्रश्नकाल इसी पर हुआ। इससे पहले योगी ने जिस तरह आग उगली, वो कभी प्रश्नकाल का विषय नहीं बना। शाम को खबर आई कि चुनाव आयोग ने नोएडा में दिये गये भाषण के लिए योगी को फटकारा है। एक वरिष्ठ ने टिकर पर बैठे लड़के को निर्देश दिया- ‘इतना ही ना लिखो। लिखो, कि योगी को फटकार कर छोड़ दिया।’ पुलकित संघी आत्माएं पूरे न्यूज रूम में किलोल करती घूम रही हैं।
कई दिन बाद छुट्टी के बाद एक ‘वरिष्ठ जी’ लौट आये हैं, लेकिन मैं जानता हूं कि मसला सिर्फ वायरल का नहीं है। बहुत खिन्न हैं। बनारस से आई चौपाल में मोदी विरोधी बातों के प्रसारण के लिए उन्हें खरी-खोटी सुनाई गई है। बेचारे सफाई ही देते रह गये कि 20 में 17 बाइट मोदी समर्थकों की थीं। ऊपर बैठे उपाध्याय का उल्लासनृत्य जारी है। सीधे अंबानी की मीडिया टीम का हिस्सा है। भाई सतीश उपाध्याय बीजेपी का अध्यक्ष है, अंबानी की कंपनी में काम कर चुके पूर्व आईएएस नजीब जंग राज्यपाल हैं। मोदी ने सबको हटाया, लेकिन नजीब जंग दिल्ली के राज्यपाल बने हुए हैं। क्या साठगांठ है..राजनीति, अफसरशाही और पत्रकारिता का। सबकी पूंछ एक कॉरपोरेट कंपनी के हाथ। अच्छी खबर यह है कि राजदीप ने हेडलाइन्स टुडे ज्वाइन कर लिया है। अरुण पुरी का कोई और धंधा नहीं है। ये ग्रुप चाहे तो काफी हद तक पत्रकारिता कर सकता है, उधर टाइम्स नाउ में अर्णव का हुनर ही कपड़े उतारना है। यानी हेडलाइन्स टुडे और टाइम्स नाउ की ही लड़ाई होगी। चमचई की पत्रकारिता करके सीएनएन आईबीएन नंबर एक-दो की लड़ाई में कैसे रह पाएगा जैसे राजदीप के समय था?
मैनेजिंग एडिटर विनय तिवारी भी एक दिन पहले रिलीव होकर हेडलाइन्स टुडे चले गये हैं। उनका विदाई पत्र अच्छा लगा। लखनऊ के एक क्लर्क के बेटे विनय ने काफी हद तक पत्रकारिता को लेकर ईमानदारी दिखाई। उनके आने के बाद चैनल में पुलिस की ओर से प्लांट खबरें रुक गईं। दोषी की जगह ‘आरोपी’ कहने का वाजिब तरीका लोगों ने फिर से सीखा। खैर, ‘उपाध्याय युग’ में अब तक का सीखा सबकुछ भुलाना पड़ेगा। पैसा ले और भांड़गीरी कर। बस।
12 सितंबर (शुक्रवार)
जम्मू-कश्मीर की बाढ़ में राहत और बचाव के बहाने चैनलों में राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने की होड़ है। ऐसा जताया जा रहा है जैसे भारतीय सेना वहां कोई अहसान कर रही है। अब इनसे कौन पूछे कि अहसान तो गैरों पर किया जाता है। क्या कश्मीर को आप भारत का हिस्सा नहीं मानते? उधर सोशल मीडिया में घोषित सांप्रदायिक मिजाज वाले बहस चला रहे हैं कि कहां हैं अलगाववादी? दुर्भाग्य यह कि चैनल के तमाम वरिष्ठ-गरिष्ठ लोग उनके आयडिया में संभावना देखते हैं। आज प्रश्नकाल में इसी विषय पर बहस हुई। “कहां गये कश्मीर के अलगाववादी”। जामिया के एक लड़के ने तीखे सवाल उठाकर मीडिया को घेरा, लेकिन एक जनरल साहब भी थे। उनके लिए कश्मीरी लोगों की दुख तकलीफ से ज्यादा सेना का आपरेशन ही अहमियत रखता है। शो में एक पाकिस्तान से भी थे। ऐसा जरूरी समझा जाता है ताकि तीखी बहस हो। बहस क्या शोर-शराबा हो। बहस में किसकी रुचि है?
तो क्या वरिष्ठ लोग नहीं जानते कि पत्रकारिता क्या है। शायद जानते हैं, लेकिन टीआरपी लाने का यह आसान तरीका है। ना ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत ना संसाधन झोंकने की। नौकरी यूं ही चलती रहेगी। साफ है कि लोगों का ध्यान खींचने या ताली बटोरने के लिए लघुत्तम समापवत्र्तक (एलसीएम) को ही मानक बनाना पड़ता है। वीर रस के मंचीय कवि भी तो यही करके ताली बटोरते हैं। वैसे, यही सब तो चुनावों में भी होता है। तो क्या लोकतंत्र लोगों को बौना बनाता है? लोगों का तो पता नहीं, लेकिन आज के दौर में तो चुनाव लड़ने वाले कोई जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं होते। वे भीड़ के पीछे चलने को अभिशप्त हैं।
13 सितंबर (शनिवार)
पुण्य प्रसून वाजपेयी ने आजतक पंचायत में उद्धव ठाकरे के इंटरव्यू के दौरान जो कहा, वो बेचैन करने वाला है। उन्होंने सवाल-जवाब के दौरान उद्धव से कह दिया कि वे चाहते हैं कि उद्धव मुख्यमंत्री बनें। क्या सचमुच एक वरिष्ठ पत्रकार को सार्वजनिक रूप से ऐसा कहना चाहिए। वैसे, प्रसून को समझना मुश्किल है। इसमें कोई शक नहीं कि हद दर्जे के ईमानदार पत्रकार हैं। बड़ों-बड़ों को ना सेटने वाले मूडी इंसान, लेकिन वैचारिकी क्या है, समझना मुश्किल। आरएसएस वालों से भी काफी अच्छे संबंध लगते हैं, और एक जमाने में माओवादी नेताओं से भी सीधे फोन पर बात करते थे। यह वो समय था जब मैं स्टार न्यूज छोड़कर समय चैनल शुरू करने जा रही उनकी टीम का हिस्सा बना था। उन्होंने पश्चिम बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी भेजा था। शायद न्यूज चैनल के इतिहास में पहली बार ‘नक्सलबाड़ी के इतिहास और वर्तमान’ पर आधे घंटे का कोई कार्यक्रम चला हो। उन दिनों जमीन अधिग्रहण के खिलाफ ममता बनर्जी के आंदोलन को खूब जगह दी गई थी। प्रसून के साथ वो छह महीने जैसी आजाद पत्रकारिता सहारा में की गई,वो फिर ना हो सकी, लेकिन सिर्फ छह महीने। प्रसून के मूड का ही मामला था कि इस्तीफे तक मामला पहुंच गया, लेकिन मैंने इस्तीफा क्यों दिया? इसीलिए कि प्रसून से लगाव महसूस होता था। लगता था कि अलग ढंग से सोचने वाला संपादक मिला है, लेकिन आरएसएस के साथ उनकी नजदीकी परेशान करती है। हो सकता है कि यह सिर्फ खबर निकालने तक हो। मिलेंगे तो पूछूंगा।
चैनल के लोगों की आज पार्टी थी। नोएडा के एक बार में उमेश उपाध्याय भी आये। जो भी हो पार्टी में खूब रंग जमा। इसे विनय तिवारी की विदाई पार्टी घोषित किया गया था। विनय मौजूद थे। भावुक थे। लोगों से जमकर गले मिले, फोटो खींचे गये, लेकिन विनय मेरे पास आये तो कुछ ऐसा बोला जो इन दिनों सुनने में नहीं आता। विनय ने शोर के बीच कान में कहा कि मुझसे मिलकर उन्हें हमेशा अच्छा लगता था। यह बात उन््होंने कभी कही नहीं, लेकिन मेरे जैसे लोग पत्रकारिता में बहुत कम बचे हैं। इस सूखे में तारीफ सुनी तो भीग गया। फिर लगा कि पत्रकारिता में मेरा योगदान यह भी हो सकता है कि जैसा हूं, वैसा बना रहूं। लोगों को लुप्तप्राय प्रजाति को देखने का लुत्फ मिलता रहेगा। जो भी हो, विनय को शुक्रिया कहना तो बनता ही है। उनके साथ गर्मजोशी भरी एक तस्वीर खिंचा ली।
14 सितंबर (रविवार)
आज हिंदी दिवस है। एबीपी न्यूज हिंदी उत्सव मना रहा है। देखकर अच्छा लगा। शाज़ी ज़मां शायद बदलते दौर को समझ रहे हैं। राजनीति की अपनी भाषा भी होती है। मोदी के आने के बाद हिंदी को लेकर उदारता दिख रही है। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि हिंदी के समाचार माध्यमों को भाषा के मुद्दे पर गंभीरता से सोचना चाहिए। इससे वे हिंदी समाज की नब्ज पकड़ेंगे। लेकिन कभी सुनवाई नहीं हुई। श्यामरुद्र पाठक से लेकर सीसैट के आंदोलन तक के दौरान कोशिश की कि चैनल महत्व दे, लेकिन उमेश उपाध्याय ने साफ कह दिया कि चैनल एक्टिविस्ट नहीं है। उनसे कौन कहे कि केजरीवाल को ब्लैकआउट करना भी तो एक्टिविज्म है। जो भी हो, एबीपी ने अच्छा काम किया। पर कई बार लगता है कि हिंदी विमर्श करते वक्त पत्रकार सामाजिक विविधता का ध्यान नहीं रखते। एक पैनल डिस्कशन देख रहा था। इसमें प्रसून जोशी, कुमार विश्वास, सुधीश पचौरी और नीलेश मिश्र शामिल थे। सब ब्राह्मण। सोचिये कि पैनल में चार यादव होते, या चारों दलित होते तो क्या प्रतिक्रिया होती। तमाम पंडितजी लोग जातिवाद के जिन्न के बाहर आने का राग अलाप सकते थे। शायद ऐसा जानबूझकर ना किया गया हो, लेकिन सवर्ण स्वाभाविकता यूं ही तो नहीं है। समाचार माध्यमों के हर स्तर पर 95 फीसदी उच्च जाति के हिंदू हैं, जिन्होंने इसे ‘स्वाभाविक’ बना रखा है। जो भी हो, शाज़ी को इस पहल के लिए बधाई देने का मन कर रहा है। ‘समय’ से इस्तीफा देने के बाद मेरी नौकरी लगवाने में उन्होंने रुचि दिखाई थी। अजित अंजुम से कहा भी था बात करने को। अजित जी ने खुद फोन किया था, लेकिन मुझे तब आईबीएन7 बेहतर लगा था। सोचा था कि आजाद चैनल में काम करेंगे। घुस गई सारी आजादी। काश राघव बहल मीडिया मुगल बनने के चक्कर में कर्ज के दुष्चक्र में ना फंसते। हवस कहीं का नहीं छोड़ती। खैर, उन्हें तो सुना है 700 करोड़ मिल गए, लेकिन क्या उन्हें चैन मिला होगा ?
15 सितंबर (सोमवार)
चीनी राष्ट्रपति शी जिंगपिंग के आगमन की तैयारी के जोश में डूबा है चैनल। सिंह ने पर्दे पर बड़ा-बड़ा लिखवाया है-क्या मोदी के सामने झुक गया ड्रैगन। पुराना कामरेड इस हास्यास्पद शीर्षक को सही भी ठहरा रहा है, जबकि कुछ घोषित संघी तक शरमा रहे हैं। कामरेडों में अनुकूलन की ऐसा हुनर कहां से आ जाता है। क्या वो कुछ संतुलन नहीं बना सकता। खैर, कई दिनों का अबोला आज टूटा। उसने एक स्क्रिप्ट की जानकारी मांगी जिसका मैंने भी जवाब दिया। दीपिका पादुकोण के वक्ष को लेकर टाइम्स आफ इंडिया की टिप्पणी पर सुमित अवस्थी ने देर शाम एक उपाय निकाला। निर्देश दिया कि एक छोटी सी खबर चले, लेकिन उसमें यह भी बताया जाए कि आप भी कांग्रेस विधायकों को तोड़ने की कोशिश करती रही है। संदीप दीक्षित ने ऐसा कहा है, यह जानकारी भी दी।