2014 में सत्ता में आने के बाद से बीजेपी के दो सबसे बड़े नेता पीएम नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने एक प्रथा जारी रखी। दोनों नेता विधानसभा चुनावों में हर जीत के बाद बीजेपी मुख्यालय पहुंचते हैं और उपलब्धियों के लिए एक दूसरे को बधाई देते हैं। हालांकि, मंगलवार को पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे आने के बाद, पार्टी नेता इस हार के लिए इन दोनों को वजह मानने से इनकार करते नजर आए। पार्टी पदाधिकारी से लेकर विधायकों और सांसदों तक, सभी ने जोर देकर कहा कि विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और नतीजों को मोदी सरकार पर जनादेश के तौर पर नहीं देखा जा सकता। बीजेपी महासचिव और राजस्थान चुनाव प्रभारी मुरलीधर राव ने कहा, ‘हकीकत तो यह है कि अमित शाह और मोदीजी की कोशिशों से पार्टी ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में बेहतर प्रदर्शन किया।’
हालांकि, इससे उलट बीजेपी अंदरखाने में कानाफूसी शुरू हो गई है। द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कम से कम दो सीनियर बीजेपी नेताओं ने माना कि कम से कम मोदी और शाह को मिलकर इस हार का दोष अपने ऊपर लेना चाहिए। एक राष्ट्रीय पदाधिकारी ने कहा, ‘जैसे की वे हर जीत के लिए पूरा क्रेडिट लेते हैं, उन्हें दोष भी लेना चाहिए। अगर बीजेपी नेतृत्व को लगता है कि पीएम की लोकप्रियता कायम है तो वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। यह बात छत्तीसगढ़, एमपी और राजस्थान में उनकी रैलियों में आई भीड़ से जाहिर होती है।’
बता दें कि पार्टी की आधिकारिक लाइन यही है कि इस हार से बीजेपी अगली लड़ाई के लिए और ज्यादा मजबूत हुई है। वहीं, पार्टी के एक नेता का मानना है कि इन अहम राज्यों में 2014 में खासी सीटें जीतने वाली बीजेपी के लिए ताजा नतीजे ‘अच्छे संकेत’ नहीं हैं। नेता ने कहा, ‘हम कांग्रेस मुक्त भारत का शोर मचा रहे हैं लेकिन इन चुनावों के साथ कांग्रेस और ज्यादा प्रासंगिक हो उठी है, जिससे 2019 की लड़ाई बहुत मुश्किल हो गई है।’ स्थानीय नेताओं ने इस हार के लिए स्थानीय एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को जिम्मेदार ठहराया है, लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश के सीएम के नजदीकी सूत्रों के मुताबिक, दोनों की ‘परफॉर्मेंस और लोकप्रियता’ की वजह से ही बीजेपी अपने विरोधियों को कड़ी टक्कर दे सकी।
बीजेपी सूत्रों ने केंद्रीय नेतृत्व की ओर से ‘बहुत ज्यादा दखल’ की बात भी की है। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि कुछ महीने पहले ही राज्यों के पार्टी अध्यक्ष बदले गए। उनका यह भी कहना है कि केंद्रीय नेतृत्व ने स्थानीय नीतियों और घोषणापत्र को नजरअंदाज करते हुए अपनी रणनीति राज्यों पर ‘थोप’ दीं। उनका कहना है कि इस हार की एक और बड़ी वजह यह है कि पार्टी किसानों की समस्या पर कांग्रेस के रुख की बराबरी करने में नाकाम रही। छत्तीसगढ़ के कम से कम 3 सांसदों का मानना है कि किसानों के लिए कर्जमाफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य से जुड़ा कांग्रेस का वादा किसानों को लुभाने में कामयाब रहा।