जरूरतों की साझेदारी पर सजगता भी जरूरी
भारत और अमेरिका के बीच जो रिश्ते हैं उन्हें मोटे तौर पर बेहतर, सहयोगी, अन्योन्याश्रित हितों पर आधारित दिखाया जाता है, लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि दोनों देशों के बीच कहीं कुछ ऐसा है जो अन्योन्याश्रिता व बेहतर तालमेल पर प्रश्न चिन्ह लगाता रहता है। यह अलग बात है कि राजनयिक आदर्श और मर्यादाएं ऐसा स्वीकारने से रोकती हों। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा एफ-16 विमानों को देने के निर्णय के रूप में देखा जा सकता है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि भारत को अमेरिका की और अमेरिका को भारत की जरूरत नहीं है, सच तो यह है कि दोनों की जरूरतें स्वाभाविक साझेदारी की मांग करती हैं। इसलिए सवाल यह उठता है कि भारत अमेरिका पर पूर्ण विश्वास कर द्विपक्षीय रिश्ते को मजबूत करने पर विशेष ध्यान दे या फिर परिस्थितियों का आकलन करते हुए आगे बढ़े? अमेरिका के जो अपने आर्थिक और रणनीतिक हित हैं और कम से कम मध्य पूर्व एवं एशिया-प्रशांत में इनसे उपज रही जो स्थितियां हैं, भारत उन्हें किस नजरिए से देखे?
पिछले दिनों अमेरिकी रक्षा मंत्री एस्टन कार्टर का भारत आगमन हुआ जिसके दौरान भारत अमेरिका ने कुछ आधारभूत रक्षा समझौतों से जुड़े ‘मेमोरेण्डम ऑफ अण्डरस्टैंडिंग’ पर हस्ताक्षर किए। एस्टन ने नयी शुरुआत ‘मेक-इन-इंडिया’ को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्राथमिकता सूची वाली योजना बताते हुए की। यही नहीं उन्होंने भारत-अमेरिका सम्बंधों को अलग धरातल पर पेश करने की कोशिश की। उनका कहना था कि अन्य देशों से भारत बेहद अलग तरीके से रक्षा प्रणालियों की खरीद करता है। लेकिन हमारे (अमेरिका) बीच दूसरे तरह का संबंध (स्थापित) होने वाला है। कार्टर की तरफ से ही घोषणा की गयी कि भारत और अमेरिका दुनिया के इस हिस्से और अन्य हिस्सों को भी सुरक्षित बनाने के लिए कई गतिविधियां साथ मिलकर चला रहे हैं। भारत के रूप में हमारे पास बहुत अच्छा सहयोगी हैं। भारत और हमारे हित कई महत्वपूर्ण मायनों में एक हैं।
प्रेस वार्ता के दौरान दोनों मंत्रियों द्वारा बताया गया कि एक-दूसरे की सैन्य सुविधाओं को साझा करने के लिए ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ पर सैद्धांतिक सहमति बन गई है। इस समझौते के सम्पन्न होने के बाद भारत और अमेरिका की सेनाएं सैन्य आपूर्ति, रिपेयर और दूसरे कार्यों के लिए एक-दूसरे के आर्मी बेस, एयर बेस और नौ-सैनिक बेस का उपयोग कर सकेंगे। हालांकि रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने यह स्पष्ट किया है कि इस समझौते का मतलब भारत की धरती पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती नहीं है। इसके साथ ही भारत और अमेरिका द्विपक्षीय रक्षा समझौते को मजबूती देते हुए अपने-अपने रक्षा विभागों और विदेश मंत्रालयों के अधिकारियों के बीच ‘मैरीटाइम सिक्योरिटी डायलॉग’ स्थापित करने पर भी सहमत हुए हैं। दोनों देशों ने नौ-वहन की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानून की जरूरत पर जोर दिया है। हालांकि इसके पीछे दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती दखलअंदाजी को जिम्मेदार माना जा रहा है। उल्लेखनीय है कि साउथ ब्लॉक में प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के बाद दोनों देशों ने पनडुब्बी से संबंधित मुद्दों को कवर करने के लिए नौसेना स्तर की वार्ता को मजबूत करने का निर्णय लिया और आश्वस्त किया कि दोनों देश निकट भविष्य में ‘व्हाइट शिपिंग’ समझौता कर समुद्री क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ाएंगे। भारत और अमेरिका रक्षा वाणिज्य एवं प्रौद्योगिकी पहल के तहत दो नई परियोजनाओं पर सहमत हुए हैं। इसमें सामरिक जैविक अनुसंधान इकाई भी शामिल है।
एलईएमओए साजो-सामान सहयोग समझौते का ही एक रूप है, जो अमेरिकी सेना और सहयोगी देशों के सशस्त्र बलों के बीच साजो सामान सहयोग, आपूर्ति और सेवाओं की सुविधाएं मुहैया कराता है। प्रस्तावित समझौते के बारे में पर्रिकर ने कहा कि मानवीय सहायता जैसे नेपाल में आए विनाशकारी भूकंप के समय अगर उन्हें ईंधन या अन्य सहयोग की जरूरत होती है तो उन्हें ये सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। हालांकि पहले भारत का मानना था कि साजो-सामान समझौते को अमेरिका के साथ सैन्य गठबंधन के तौर पर देखा जाएगा। दरअसल एलएसए तीन विवादास्पद समझौते का हिस्सा था जो अमेरिका भारत के साथ लगभग एक दशक से हस्ताक्षर करने के लिए प्रयासरत था। समझौतों में दो अन्य भी शामिल हैं- एक संचार और सूचना सुरक्षा समझौता ज्ञापन और बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट। अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि साजो सामान समझौते से दोनों देशों की सेनाओं को बेहतर तरीके से समन्वय करने में सहयोग मिलेगा जिसमें अभ्यास भी शामिल है और दोनों एक-दूसरे को आसानी से ईंधन बेच सकेंगे या भारत को कलपुर्जे मुहैया कराए जा सकेंगे।
विशेष बात यह है कि उक्त समझौते अमेरिकी पहल का हिस्सा अधिक हैं और अमेरिका लम्बे समय से इनके लिए प्रयासरत भी थे लेकिन भारत को अभी तक कुछ पहलुओं पर संकोच था। अब जब दोनों देश समझौते के लिए तैयार हैं, तो एक स्वाभाविक सवाल भी उठता है कि इनमें अमेरिकी हितों का दायरा ज्यादा बड़ा है या भारत का? दरअसल अमेरिका के साथ भारत के वैदेशिक सम्बंधों को केन्द्र में रखकर जब बात की जाती है तो भारतीय हितों का दायरा उतना बड़ा नहीं होता जितना कि होना चाहिए। इसका एक पक्ष तो यह है कि अमेरिका के लिए भारत का हथियार बाजार, जिसकी डिमांड पोटैंशियल बहुत ज्यादा है, बेहद अहम है और कमोबेश यही अमेरिका के भारत की ओर आकर्षित होने की प्रमुख वजह है। या दूसरे शब्दों में कहें तो भारत-अमेरिका रक्षा सम्बंध बहुत हद तक इसी कार्य-कारण से निर्देशित हैं। दूसरा पक्ष एशिया-प्रशांत और हिन्द महासागर में चीन की बढ़ती ताकत है जिस पर अमेरिका के विदेश विभाग की एक अध्ययन टीम हिलेरी क्लिंटन के समय में भी अपनी राय दे चुकी है। उसका सुझाव था कि यद्यपि भारत प्रशांत क्षेत्र का सदस्य नहीं है लेकिन उसकी इस क्षेत्र में बहुत उपयोगिता अत्यधिक है। अमेरिका यह भलीभांति जानता है कि यदि प्रशांत क्षेत्र में चीन की शक्ति को काउंटर करना है तो भारत का सहयोग आवश्यक होगा। यही कारण है कि हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच रक्षा सम्बंधों को नई दिशा मिली है लेकिन सही मायनें में ये मालाबार युद्धाभ्यास के इर्द-गिर्द ही नजर आते हैं जो कि नितांत पेशेवर है। यही नहीं दोनों देशों की सेनाओं, नौ-सेनाओं तथा वायु सेनाओं के बीच ऐसे ही अन्य साझा अभियानों को बतौर दलील पेश करने की परम्परा को कायम किया गया है। इस बीच अमेरिकी रक्षा कंपनियों से हमारी खरीद 9 अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर चुकी है। कहने को तो दोनों देशों में आतंकवाद को लेकर खुफिया तालमेल बढ़ा है, लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ और है।
भारत को अब यह मानकर चलना चाहिए कि भारत इस समय ऐसी स्थिति में पहुंच रहा है जहां पर यह एशिया विशेषकर ट्रांस-पेसिफिक क्षेत्र में, अधिक सक्रिय एवं निर्णायक भूमिका निभा सकता है। स्वाभाविक है कि ऐसे में भारत को किसी एक देश की बजाय कई देशों के साथ साझेदारी करनी होगी। यानि अमेरिका के साथ-साथ रूस (जिसके साथ भारत दशकों तक अत्यंत करीबी सैन्य संबंध रख चुका है), जापान, फ्रांस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, इजराइल, ईरान, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका और हिंद महासागर ….आदि देशों के साथ। विशाखापत्तनम से भारत इसकी शुरुआत करता हुआ भी दिखा, जहां भारतीय नौसेना आयोजित इंटरनेशनल फ्लीट रिव्यू में 54 देश शामिल थे। एक विशिष्ट तथ्य यहां यह भी है कि विश्व व्यवस्था के बदलाव को लेकर भारत का दृष्टिकोण अमेरिका से बिल्कुल भिन्न है क्योंकि भारत वैश्विक समीकरणों में जिस तरह के परिवर्तनों की वकालत करता है वे अमेरिकी नजरिए से भिन्न हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि भारत को अपनी विदेश-रक्षा नीति के खांचे तय करने होंगे और उन्हीं से अमेरिका व अमेरिकी उद्देश्यों को देखते हुए अपने लिए एक राह बनानी होगी। ध्यान रहे कि अमेरिका, पाकिस्तान को 15 वाइपर अटैक हेलीकॉप्टर और मिसाइलें देगा। यह पिछले एक दशक का अमेरिका और पाकिस्तान का सबसे बड़ा सौदा है। 8 एफ-16 विमानों की पाकिस्तान को बेचना भारत को मुंह चिढ़ाने जैसा ही है क्योंकि ये विमान अत्यधिक गति वाले होने के साथ-साथ नाभिकीय हथियार ले जाने में सक्षम हैं। बहरहाल जरूरतों की इस साझेदारी में निहित तमाम गूढ़ व तकनीकी पक्षों पर भारत को विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी। ’