जिहाद का असली चेहरा
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जर्मनी, तुर्की और स्विट्जरलैंड में इस्लामी जिहादी हमलों को ईसाइयत पर आक्रमण बताया और कहा कि जब ईसाई समाज त्योहार मना रहा था उस समय आइएसआइएस तथा अन्य इस्लामी आतंकवादियों के हमले उनके विश्वव्यापी ईसाई-विरोधी अभियान का हिस्सा है। इस बयान पर जहां यूरोप में बहस शुरू हुई है वहीं भारत के एक समूह, विशेषकर सेक्युलर वर्ग ने इसकी आलोचना करते हुए वही पुराना राग अलापा है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता। ट्रंप ने जिहाद का असली चेहरा राजनीतिक चाशनी लपेटे बिना बेनकाब किया है और उस सत्य को बोलने का साहस दिखाया है जिसे अन्य लोग राजनीतिक वोट बैंक के लोभ में बोलने से हिचकते हैं।
इस्लाम और ईसाइयत का संघर्ष ईसा सदी आठवीं से शुरू हो गया था। ईसाई और यहूदी राज्यों पर मुस्लिम हमले हुए और जबरन धर्मातरण का भीषण दौर चला। मुस्लिम हमलावरों ने ईसाई और यहूदी समाज को ‘घिम्मी’ का दर्जा दिया जिन्हें अपनी-सुरक्षा के लिए नए मुस्लिम शासकों को कर देना पड़ता था, उनके लिए विशेष प्रकार की पोशाकें निर्धारित की गईं ताकि दूर से ही ‘घिम्मी’ पहचाने जाएं, नए चर्च बनाने पर पाबंदी लगाई गई और उन्हें अपनी प्रार्थनाएं व धार्मिक कार्य अपने घर के भीतर ही करने का आदेश दिया गया।
यद्यपि इस्लाम के प्रारंभिक दौर में संक्षिप्त समय के लिए ईसाई और यहूदी समाज के प्रति सहिष्णुता के प्रमाण मिलते हैं, लेकिन जल्दी ही कुरान के नए व्याख्याकारों ने गैर-इस्लामी समाज को शत्रु जाना और येरुशलम इस्लामी कब्जे में ले लिया गया। स्पेन रौंद डाला गया, इंग्लैंड, आयरलैंड और पेरिस तक इस्लामी फौजों के हमले हुए। 1जिहाद का जवाब ईसाई क्रूसेड से दिया गया। 15वीं सदी आते-आते स्पेन के मुसलमानों के सामने स्पेनिश साम्राज्यों के एकीकरण से जन्मी नई ईसाई एकता के प्रमुख फर्डिनांड द्वितीय का प्रबल रूप आया और एक ही विकल्प बचा या तो ईसाई हो जाएं या मृत्यु स्वीकार करें।
मध्ययुगीन संघर्षो के बाद आटोमन साम्राज्य के अंत एवं नवीन व्यवस्था में नए देशों का सीमांकन पश्चिमी ईसाई ताकतों द्वारा किए जाने से इस्लामी विश्वव्यापी प्रभाव टूट गया। इन सबकी सतत स्मृतियां वर्तमान इस्लामी-ईसाई संघर्ष की जड़ में है। जिहादियों और ईसाई वर्ग में संचित स्मृति का विष इतना अधिक है कि कुछ भी, कहीं भी, कैसा भी मतभेद एकदम हिंसा का भीषण रूप ले बैठता है। आज इस्लामी देश अमेरिका को पश्चिमी ईसाई ताकत का ऐसा केंद्र मानते हैं जो इराक-ईरान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान से लेकर सीरिया तक के वर्तमान युद्ध और राजनीतिक शतरंज में इस्लाम का खात्मा करने पर तुला है। डोनाल्ड ट्रंप ने इसी वर्तमान यथार्थ को स्पष्ट बेलाग शब्दों में व्यक्त किया।
तुर्की में रूसी राजदूत को मारने वाला सीरियाई नागरिक नहीं, बल्कि तुर्की का ही था, लेकिन उसके मन में तुर्की राष्ट्रवाद एवं अपनी जन्मभूमि के हित से ऊपर सीरिया के मुसलमानों से इस्लामियत के धागे से जुड़ी भावना थी। रूसी राजदूत को मारा इसलिए नहीं गया, क्योंकि रूस तुर्की के विरुद्ध हमला कर रहा था, बल्कि सीरिया में रूसी भूमिका का बदला लेने के लिए तुर्की के नागरिक ने ऐसा किया। जब मजहबी कट्टरता राष्ट्रीयता से ऊपर उठ जाती है तब ही ऐसा होता है।1भारत में सेक्युलर राजनेता व मीडिया राष्ट्रीयता के विरुद्ध लिखते-बोलते हैं और इस प्रकार वे इस्लामी कट्टरता का अपनी खामोशी और हिंदू विरोध के जरिये बढ़ावा देते हैं।
पाकिस्तान, आइएसआइएस, तालिबान तथा कश्मीर के भीतर पल रहे जिहादी विषपायी तत्वों के भारत से विरोध का और कोई कारण ही नहीं है, सिवाय इसके कि वे भारत को हिंदू देश मानते हैं। जैसे इस्लामी जिहादी विश्व संपदा, शक्ति और सैन्यबल के सभी केंद्रों पर पश्चिमी ईसाई प्रभुत्व देखकर चिढ़ते हैं और उस प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं, वैसे ही भारत की निरंतर प्रगति, लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था की सफलता, यहां सामाजिक बहुलतावाद और सैन्य एवं आर्थिक शक्ति के रूप में उदय को इस्लाम के लिए खतरा मानते हैं। भारत पर इस्लामी आतंकवाद एवं कम्युनिस्ट विद्रोही गुटों के हमले केवल हिंदुओं पर ही केंद्रित होते हैं। विडंबना यह है कि भारत के बाहर इस्लामी और ईसाई ताकतें एक दूसरे के आमने-सामने खड़ी हैं, लेकिन यहां भारत के हिंदुओं के विरुद्ध दोनों ने हाथ मिला लिए हैं।
इस्लाम के भारत पर आक्रमण 12वीं सदी से प्रारंभ हो गए थे। तीन हजार से ज्यादा मंदिर ध्वस्त किए, सोमनाथ का महमूद गजनवी द्वारा ध्वंस, काशी, मथुरा अयोध्या के प्रमुख हिंदू तीर्थो पर हमले, प्रयाग की लूट और जलाकर उसका नाम इलाहाबाद और कर्णावती को अहमदाबाद रखना, नालंदा, तक्षशिला के विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय नष्ट करना, 1398 में तैमूर लंग द्वारा दिल्ली का भयावह नरसंहार और लूट (दुर्भाग्य है कि उसी के नाम पर हमारे देश के धर्मातरित मुस्लिम अपने बच्चे का नाम रखने से हिचकते नहीं) से लेकर 1947 में अलग कौम और द्विराष्ट्रवाद का खोखला सिद्धांत उछाल कर देश विभाजन करवाना ये तमाम स्मृतियां इस्लाम के घोर हिंदू विद्वेष का ही प्रमाण है। जब तक मुस्लिम हिंदू विद्वेष को अपने भीतर से खत्म नहीं करता तब तक जिहाद और पाकिस्तानी घृणा को खत्म नहीं किया जा सकेगा। यद्यपि अंतत: यह घृणा न केवल पाकिस्तान बल्कि सारे मुस्लिम देशों को अपनी आग की चपेट में लेती जा रही है।
इस्लामी विश्व एक ओर ईसाई पश्चिम और दूसरी ओर हिंदू भारत के विरुद्ध खड़ा दिखता है तो इसके साथ ही वह स्वयं इसी आग में झुलस रहा है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान स्वयं मुसलमानों द्वारा ही मारे जा रहे हैं। इस परिदृश्य में भारत को अपनी नेतृत्वशील भूमिका निभाने का वक्त आ गया है। शील, करुणा के साथ सैन्य पराक्रम और आतंकवाद का संहार करना ही विश्व शांति और सद्भाव के लिए आज एकमेव उपाय है। सभ्यताओं के इस त्रिआयामी प्रकट संघर्ष में मंगोल नस्ल के चीन और पूर्वी एशियाई देशों का रुख भारत के लिए विशेष सामरिक महत्व रखता है। लगता है अमेरिका में ट्रंप, भारत में मोदी और रूस में पुतिन इस दौर में कोई बड़ी निर्णायक घटना के साक्षी, सूत्रधार और सेनापति बनने जा रहे हैं।