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जीवन को मुग्ध करती है रूप, रस, गंध और ध्वनि

अस्तित्व पूर्ण है। इसका प्रकट भाग पूर्ण है और अप्रकट भी। प्रकृति इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति है। इसलिए पूर्णता का आस्वाद भी आनंददायी होना चाहिए। अभिव्यक्ति के अनेक आयाम हैं। रूप की सुंदरता में पूर्ण अनुभूति संभव है और रस में भी। रूप, रस, गंध और ध्वनि भी अपनी संपूर्णता में मुग्ध करती है। वे अपूर्णता में भी कम या ज्यादा आनंद देती है। भारतीय चिनतन में अभिव्यक्ति को कला कहा गया है। सारी अभिव्यक्तियां कला हैं भी। अरस्तू ने कला को प्रकृति की अनुकृति बताया था। उनके सहस्त्रों वर्ष पहले शतपथ ब्राह्मण में कला या शिल्प को परम सत्ता का प्रकट रूप कहा गया था, “यो वै रूपं तत् शिल्पम् – जो उसका रूप है वही शिल्प या कला है। यहां प्रश्न है कि उसका रूप किसका रूप है? उपनिषद् के ऋषि परम सत्ता का नाम रखने से बचते रहे हैं। ऐसा उचित भी है। सारे नाम ससीम हैं। नाम रूप की सीमा है। अस्तित्व परम असीम है, उसका नाम ‘उसका’ ही रहे तो ज्यादा आनंददायी है। परम की अभिव्यक्ति ही कला है। पूर्वजों ने 16 कलाओं की चर्चा की है। श्रीकृष्ण को 16 कलाओं का अवतार कहते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण पूर्णावतार कहे गए हैं। प्रश्न स्वाभाविक ही उठता है कि ये 16 कलाएं आखिरकार हैं क्या? अस्तित्व अभिव्यक्ति के अनंत रूप हैं लेकिन भारत का मन 16 कलाओं में ही रमता है। प्रश्नोपनिषद् (6.1) में भारद्वाज पुत्र सुकेशा ने इसी सम्बंध में प्रश्न पूछा था।
उत्तर वैदिक काल में निश्चित ही 16 कलाओं की जिज्ञासा रही होगी। सुकेशा द्वारा पूछा गया प्रश्न भी उनकी अपनी जिज्ञासा नहीं थी। यह प्रश्न उनसे कौशल देश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने पूछा था। सुकेशा ने पूछा “एक बार कोसल देश का राजकुमार हिरण्यनाभ मेरे पास आया था। उसने मुझसे पूछा – ‘भारद्वाज! क्या तुम सोलह कलाओं वाले पुरूष के विषय में जानते हो?’ मैंने उससे कहा – ‘मैं उसे नहीं जानता। जानता होता तो तुम्हें बता देता। तुम यह न समझना कि मैंने तुम्हारे प्रश्न को टाल दिया है। मैं झूठ नहीं बोलता। झूठ बोलने वाला कहीं भी प्रतिष्ठा नहीं पा सकता’ मेरी इस बात को सुनकर राजकुमार लौट गया। अब मैं आपके द्वारा उसी सोलह कलाओं वाले पुरूष का तत्व जानना चाहता हूं, कृपया आप मुझे बतलायें कि वह कहां है और उसका स्वरूप क्या है?” (प्रश्नोपनिषद् 6.1) प्रश्न सुस्पष्ट है। मनुष्य का शरीर लघु ब्रह्माण्ड है। अस्तित्व की सारी गतिविधियां मनुष्य शरीर के भीतर भी चला करती हैं। पिप्पलाद ने उत्तर दिया, “यहां इस शरीर के भीतर ही वह पुरूष है जिसमें 16 कलाएं प्रकट होती हैं।” (वही 6.2)
प्रत्येक मनुष्य का अन्तःकरण 16 कलाओं से भरापूरा है। हम सबके मन में स्वाभाविक ही सुकेशा जैसी जिज्ञासा होगी। आखिरकार वे 16 कलाएं क्या हैं? पिप्पलाद पहले सृष्टि चक्र समझाते हैं “उसने सृष्टि सृजन के समय विचार किया कि शरीर से किस तत्व के निकल जाने पर मैं भी शरीर से निकलने को तत्पर हो जाऊंगा और किस तत्व के स्थित रहते हुए मैं भी स्थित रहूंगा।” (वही 6.3) यहां सृष्टि का सृजन या प्रकृति स्वयंभू नहीं है। सृष्टि को बनाने वाली कोई महाशक्ति है। इसी के लिए ‘उसने विचार किया’ शब्द आए हैं। जान पड़ता है कि उसके सामने सृष्टि के गोचर प्रपंच उपस्थित हैं। वह उन्हें परिपूर्ण बनाने के लिए चिन्तनरत है। वह शरीर के भीतर अपनी उपस्थिति किसी अन्य तत्व की उपस्थिति के साथ जोड़कर सुनिश्चित करना चाहता है। सृष्टा उसका महत्व जानता है। इसलिए उसने प्राण बनाए – स प्राणमसृजत्। गीता प्रेस के अनुवाद में “परंब्रह्म परमेश्वर ने सर्वप्रथम सबके प्राण स्वरूप हिरण्यगर्भ को बनाया।” लेकिन ऋग्वेद में हिरण्यगर्भ सबसे पहले से है। हिरण्यगर्भ सृष्टि के पहले हैं। वे आधुनिक वैज्ञानिकों के ‘कास्मिक एग’ है। उनके भीतर सृष्टि का सारा भूत पदार्थ और चेतन ऊर्जा है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में वायुहीन दशा में भी प्राण स्पंदन हैं। प्राण सदा से है। प्रश्नोपनिषद् में सूर्य को प्राण कहा गया है।
आस्तिकता जीवन का सौन्दर्य है और यथार्थवाद जीवन का सत्य। शिवतत्व प्रकट करना मनुष्य का काम है। तभी सत्य शिव और सौन्दर्य की त्रयी का आनंद संभव है। पिप्पलाद ने बताया “प्राण के बाद श्रद्धा का जन्म हुआ। ठीक बात है। श्रद्धा के अभाव में प्राण का महत्व कौन जानेगा? कौन मानेगा? फिर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। फिर मन और इन्द्रियां। उसके बाद अन्न हुआ। फिर अन्न से बल-वीर्य। फिर तप परिश्रम। फिर मंत्र सूत्र, तमाम कर्म और लोक व नाम।” (वही 6.4) यही 16 कलाएं हैं। सारी कलाएं प्रत्यक्ष संसार का भाग है। गीता प्रेस के अनुवाद में बताते हैं कि “ब्रह्माण्ड और शरीर को 16 कलाओं से युक्त बनाकर जीवात्मा के साथ परमेश्वर इसी में प्रवेश कर गया।” लेकिन यह बात मूल मंत्र में नहीं है। दार्शनिक यथार्थवाद में भक्ति की धाराएं संभवतः इसी प्रकार जुड़ी होंगी। भक्ति का अपना महत्व है। भक्ति सर्वांगपूर्ण दर्शन है। यह प्रेम की पूर्णता है। ज्ञान का अपना महत्व है। भौतिक जगत् में अनंत रहस्य है। विज्ञान ने भौतिक जगत् के तमाम रहस्यों का अनावरण किया है। मनुष्य के भीतर भी एक रहस्यपूर्ण संसार है। भीतर शरीर के सूक्ष्म अंग है। अनेक महत्वपूर्ण अंग दिखाई नहीं पड़ते। मन भी नहीं देखा जा सका। भीतर ही आनंद का अज्ञात स्रोत है। यह भी विज्ञान की पहुंच से बाहर है।
भारत के बहुसंख्यक श्रद्धालु अध्यात्म का अर्थ ईश्वर उपासना लेते हैं। अध्यात्म वस्तुतः अन्तर्जगत की अदृश्य कार्यवाही है। पिप्पलाद बताते हैं “रथ के पहिए के सब अरे पहिए के नाभि से जुड़े रहते हैं। ये सब नाभि से जुड़े है। वैसे ही सभी कलाएं पुरूष या मनुष्य का ही भाग हैं। इसलिए जानने योग्य उसी पुरूष को जानना चाहिए। इसके ज्ञान से मृत्यु दुख नहीं देती।” (वही 6.6) ईशावास्योपनिषद् में भी दो ज्ञान-विद्या व अविद्या बताए गए हैं। कहते हैं कि जो विद्या (ज्ञान तत्व) व अविद्या या संसार तत्व को जानते हैं वे अविद्या या सांसारिक ज्ञान के कारण मृत्यु दुख से पार हो जाते हैं और विद्या के कारण मुक्त हो जाते हैं। पिप्पलाद ने सभी जिज्ञासाओं का सांसारिक व आध्यात्मिक ज्ञान देने के बाद कहा, “मैं ब्रह्म ज्ञान को इतना ही जानता हूं। इससे परे नहीं।” (वही 6.7) उपनिषद् काल के प्रश्नोत्तरों में दम्भ नहीं है। ऋषि अपने प्रबोधन को पूर्ण नहीं बताते। कठोपनिषद् में यही बात और भी सुस्पस्ट ढंग से कही गई है। नचिकेता के तमाम प्रश्नों के उत्तर देने के बाद यम कहते हैं “उठो, जागो, वरिष्ठजनों के पास ज्ञान प्राप्त करो – उत्तिष्ठत् जागृत प्राप्य वरान्नि बोधत। विद्वान उस ज्ञान को छुरे की धार जैसा बताते हैं।” प्रश्नोपनिषद् (6.8) के अनुसार सभी जिज्ञासुओं ने पिप्पलाद को धन्यवाद दिया, उनकी अर्चना की।
उपनिषदों में ऐसे ही प्रश्न हैं। उनके सारभूत उत्तर हैं लेकिन अनुभूत दर्शन की समस्या भी है। अनुभूति व्यक्तिगत होती है। उसका हस्तांतरण असंभव है। आनंद सबको मिलता है कभी सप्रयास और कभी अनायास। लेकिन हम आनंद प्राप्ति का प्रयोग किसी मित्र के सामने दोहरा कर नहीं दिखा सकते। आध्यात्म के सत्य हस्तांतरणीय नहीं हैं। ज्ञानी अपने अनुभव बताते हैं। अनुभव बताने का उपकरण भाषा है। भाषा की सीमा है। सत्य और आनंद पदार्थ नहीं हैं। ब्रह्म भी नहीं। सत्य, आनंद या उपनिषद् के ऋषियों का ब्रह्म असीम है। भाषा में कहते ही वह ससीम हो जाता है। आचार्य या ऋषि सत्य कहता है, श्रोता अर्द्धसत्य सुनता है। इसलिए आत्म तत्व प्रवचन से नहीं मिलता। वह कठोर परिश्रम वाले अध्ययन से भी नहीं मिलता। ऋषि, आचार्य या पुस्तकें हमारी प्रश्नाकुलता बढ़ाते हैं। उपनिषदों का यही सुंदर उपयोग है कि वे पथसंकेत का काम करते हैं। लेकिन पथ संकेत पर्याप्त नहीं होते। आत्म मार्ग में पदचिन्ह या सही मार्ग बताने वाले नाम पट्ट नहीं होते। प्रश्नोपनिषद् प्यारी है। गर्व है कि भारतीय तत्व ज्ञान में एक उपनिषद् का नाम प्रश्नों से जुड़ा हुआ है।

रविवार पर विशेष
हृदयनारायण दीक्षित

(आलेख में व्यक्त किये गये विचार लेखक के निजी विचार हैं, इससे सम्पादक/प्रकाशक का सहमति होना आवश्यक नहीं है।)

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