दस्तक-विशेषस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित
ज्ञानी समान होकर भी एक जैसे नहीं होते

हृदयनारायण दीक्षित
स्तम्भ : संसार की समझ जरूरी है और अपना ज्ञान भी। ज्ञान के अभाव में सब कुछ असंभव। ज्ञान से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं। ज्ञान परम है। परम ज्ञान परम लब्धि है। ऋग्वेद में ‘ज्ञान’ विषयक एक मजेदार सूक्त (ऋ. 10.71) है। इसके द्रष्टा कवि ऋषि बृहस्पति आंगिरस हैं। ‘ज्ञान’ यहां एक देवता हैं। ऋग्वेद के देवता अभिभूत करते हैं। 10वें मण्डल में पशु पक्षी भी देवता हैं। कृषि भी देवता है। साहस (मन्यु) श्रद्धा और हांथ भी देवता है। जहां जहां दिव्यता वहां वहां देवता। प्रत्यक्ष वस्तुओं मनोभावों को देवता मानने और नमस्कार करने की वैदिक शैली अनूठी है। ऋग्वेद में ‘नमस्कार’ भी देवता हैं। मूर्ति, किताब, पेड़ या नदी को किए गए नमस्कार का सीधा सम्बंध हमारी अंतश्चेतना से है। ऐसे प्रतीक नमस्कार के भूखे नहीं है। वे इसका जवाब भी नहीं देते। धन्यवाद भी नहीं देते। लेकिन नमस्कार से हमारी अंतश्चेतना का रसायन बदलता है। हमारी मन और काया में रासायनिक परिवर्तन होते हैं। किसी को भी किया गया नमस्कार वस्तुतः हमारे अपने अंतःकरण को ही प्रीतिभाव से भरता है। इसी तरह ज्ञान भी एक देवता हैं। ज्ञान उपास्य देव है। उनके निकट होना ज्ञान उपासना है।
ज्ञान का इतिहास भी ज्ञान है। गीता के चौथे अध्याय की शुरूआत ज्ञान इतिहास से होती है। श्री कृष्ण ने कहा “प्राचीन काल में यह योग ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था। विवस्वान ने मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को। (गीता 4.1) आगे कहा, “यह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी राजर्षि जानते आए हैं।” (वही, 2) ज्ञान का प्रारम्भ परमसत्ता के गर्भ से हुआ है। श्रीकृष्ण परमसत्ता के प्रवक्ता हैं। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को टोंक दिया, “आपका जन्म तो बाद में हुआ, विवस्वान का पहले। तब आपने उन्हें कैसे ज्ञान दिया?” (वही, 4) तर्क स्वाभाविक है। इक्ष्वाकु ऋग्वेद में राजा हैं। मनु उनके पहले हैं। विवस्वान सूर्य के पर्यायवाची है। श्रीकृष्ण अर्जुन के समकालीन हैं। गीता महाभारत के युद्धपूर्व सम्पन्न श्रीकृष्ण अर्जुन सम्वाद है। महाभारत के शान्तिपर्व में युद्ध के बाद का विवरण है। यहां भी पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान हस्तांतरण का यही क्रम है “पूर्व काल में विवस्वान ने मनु को, फिर मनु ने इक्ष्वाकु को यह ज्ञान दिया। परम्परा चलती रही।” (शान्तिपर्व 348) लेकिन यहां शुरूवात श्रीकृष्ण से नहीं विवस्वान से होती है, गीता में यह शुरूवात श्रीकृष्ण से होती है।


नाम स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं। वे किसी वस्तु या पदार्थ का भाषिक प्रतिनिधि है। नाम और रूप मिलाकर ज्ञान बनते हैं। इसके सामाजिक बोध को सामाजिक बनाने के लिए भाषा चाहिए। भाषा सुबोध चाहिए। सुसंस्कृत भी चाहिए। ज्ञान में विश्लेषण भी चाहिए। ऋषि कहते हैं, “सूप से सत्तू स्वच्छ करने की तरह मेधावी जन भाषा गढ़ते हैं और मित्रगण आत्मीय भाव से समझ लेते हैं। ऐसे विद्वान की वाणी में लक्ष्मी का निवास होता है” (वही, मन्त्र 2) ध्यान देने योग्य बात है कि यहां ज्ञानी की वाणी में सरस्वती नहीं लक्ष्मी के निवास का रूपक है। वाणी स्वयं देवी है। वह स्वयं सरस्वती है। भाषा का ज्ञान अतिरिक्त समृद्धि है। इसलिए यहां लक्ष्मी का रूपक है। ज्ञानी की वाणी में लक्ष्मी होती है। आगे कहते हैं “ज्ञानियों ने तत्वज्ञानियों के अंतःकरण में प्रविष्ट भाषा को प्राप्त किया। उसे प्रसारित किया।” (वही, मन्त्र-3) ज्ञानी को तत्वज्ञानियों से भाषा संस्कार मिले। तब उनका प्रसार हुआ। ज्ञान सामाजिक संपदा बना।

ज्ञानी समान होकर भी एक जैसे नहीं होते। ऋग्वेद में एक समान दार्शनिक, एक समान श्रोत्रशक्ति सम्पन्न मेधावी भी ‘एक समान’ नहीं बताये गये। कहते हैं “दर्शन शक्ति सम्पन्न, श्रोत्रशक्ति सम्पन्न, एक समान ज्ञान से युक्त मित्र भी अनुभवजन्य ज्ञान में एक समान नहीं होते।” (वही मन्त्र 7) अनुभव जन्य ज्ञान महत्वपूर्ण है। बाकी सब उधार की सूचना है।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)