तप, सेवा, सुमिरन से ही मानव जीवन को समस्त दुःखों से मुक्ति
अध्यात्म : मानव की व्यक्तिगत एवं सामूहिक-समस्त प्रकार की समस्याओं पर श्रीरामचरितमानस जो प्रकाश देता है, वह युग-युगान्तर तक एक पथ-भ्रष्ट मानव का पथ-प्रदर्शन करने में पूर्णरूपेण समर्थ हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। इस विश्वास के मूल में कोरी भावुकता अथवा कल्पना नहीं है। श्रीमानस के दीर्घकालीन अध्ययन और गुरु-कृपा से जो सिद्धान्त मेरी समझ में आए हैं और उन पर मैंने तथा मेरे अनेक मित्रों ने प्रयोग करके जो आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त की है, इस विश्वास की आधारशिला है। मानसकार ने स्वयं जीवन-परिवत्र्तन का दावा उतनी ही दृढ़तापूर्वक किया है, जितनी दृढ़ता से कोई वैज्ञानिक हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के उचित परिमाण एवं ठीक विधि से मिलने पर पानी बनने की बात करता है। हम लोगों के द्वारा भी श्रीमानस के इन आधारभूत सिद्धान्तों को समझकर ठीक विधि से किये गये प्रयोग अभी तक सफल रहे हैं, इसलिये हम लोगों को इन धार्मिक सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता में अटूट विश्वास है। प्रत्येक मानव के भीतर एक मौलिक सत्ता है, जो स्वरूपत: शक्तिमय, आनन्दमय और ज्ञानमय है। भोजन से शक्ति, धन से सुख, पुस्तक से ज्ञान, सम्बन्धियों में अपनत्व मानना ही इस सत्ता का निरादर एवं पापकर्म है; जिसका परिणाम रोग, शोक, वियोग, दीनता, मलिनता तथा आवागमन है। श्रीमानस में दुख को पाप का फल कहा गया है —
करहिं पाप पावहिं दुःख भय रूज सोक वियोग।
पाप का अर्थ है—पालनकर्ता से दूर होना। संसार के प्रति हमारी गलत धारणा तथा भगवान की अपूर्ण मान्यता हमें हमारे पालनकर्ता भगवान से दूर करती है। अत: यही पाप है। अतएव श्रीरामचरितमानस की सही मीमांसा ज्ञात की जाए और उसका सही प्रयोग भी किया जाए तो जीवन समस्त दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो सकता है तथा साधक को ‘मेटत कठिन कुअंक भाल के’ की प्रत्यक्ष अनुभूति हो सकती है। तप-सेवा-सुमिरन के द्वारा ही मानव-जीवन समस्त दुःखों से मुक्त हो सकता है। संसार के प्रति हमारी गलत धारणा तथा भगवान की अपूर्ण मान्यता हमें हमारे पालनकर्ता भगवान से दूर करती है। अत: यही पाप है। उसका सही प्रयोग भी किया जाए तो जीवन समस्त दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो सकता है तथा साधक को ‘मेटत कठिन कुअंक भाल के’ की प्रत्यक्ष अनुभूति हो सकती है। तप-सेवा-सुमिरन के द्वारा ही मानव-जीवन समस्त दुःखों से मुक्त हो सकता है।
सद्गुरु वचन
(पूज्य योगीजी द्वारा उदबोधन)