‘तमसो मा ज्योतिर्गमय्’
प्रकाश सनातन अभीप्सा है। हम भारतीय अनंतकाल से प्रकाशप्रिय हैं। मन प्रश्नाकुल है। आखिरकार प्रकाश ज्योति की अतृप्त अभिलाषा का मूल कारण क्या है? वस्तुतः यह सम्पूर्ण अस्तित्व ही अपने मूल स्वरूप में प्रकाश रूपा है। वह ज्योतिर् एकम् है। हंसोपनिषद् में संपूर्ण अस्तित्व को एक ऊर्ध्व गतिशील पक्षी के रूपक में समझाया गया है। यह पक्षी हंस जैसा है। अग्नि और सोम इसके दो पंख हैं। समय और अग्नि भुजाए हैं।” मंत्र का अंतिम भाग अप्रतिम प्रकाशवाची है। बताते हैं, “एषो असो परमहंसौ भानुकोटि प्रतीकोशो येनेदं व्याप्तं – यह परम हंस करोड़ों सूर्यो के तेज जैसा प्रकाशमान है। यह प्रकाश संपूर्ण अस्तित्व को व्याप्त करता है।” हम करोड़ों सूर्यों के प्रकाश से अंगीभूत हैं। गीता में अर्जुन ने विराट रूप देखा। उसे भी “दिव्य सूर्य सहस्त्राणि’ की अनुभूति हुई। यजुर्वेद में सोम से कहते हैं “आप ज्योतिरसि विश्वरूपं” है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि के उदय के पूर्व गहन अंधकार है। रात या दिन हैं नहीं। फिर प्रकाश है। करोड़ों सूर्यों का प्रकाश हमारे पूर्वजों की सनातन अनुभूति है। हम पूर्वजों का विस्तार है। हम उसी परंपरा में दीपपर्व में प्रकाश दर्शन करते हैं।
मन नहीं अघाता। प्रकाश प्रीति गहरी है। अस्तित्व ‘ज्योतिर् एकं’ है। हम भारतीय सभा गोष्ठी में दिन के सूर्य प्रकाश में भी दीप जलाते हैं। स्वयं के बनाएं स्वयं के जलाए दीपों को नमस्कार करते हैं। मन तो भी तृप्त नहीं होता। घरों में अब बिजली है। सांझ आती है। विद्युत चालित प्रकाश उपकरण सक्रिय किए जाते हैं। हम उन्हें भी नमस्कार करते हैं। प्रकाश को नमस्कार हमारी सांस्कृतिक परंपरा है। छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ने बताया है कि “प्रकृति का समस्त सर्वोत्तम प्रकाश रूपा है।” मनुष्य का उत्तम प्रतिभा कहा जाता है। प्रति-भा प्रकाश इकाई है। आभा और प्रभा भी प्रकाशवाची हैं। जहां-जहां खिलता है प्रकृति का सर्वोत्तम, वहां-वहां प्रकाश। हम धन्य हो जाते हैं। प्रकाश दीप्ति एक विशेष अनुभूति देती है। पूर्वजों ने प्रकाश दीप्ति अनुभूति को दिव्यता कहा। जो भारत में दिव्य है, अंग्रेजी में डिव। सूर्य प्रकाश में वही दिवस है। इसी की अन्तः अनुभूति दिव्यता या डिवाइनटी है। इसलिए जहां जहां दिव्यता वहां वहां देवता। हम भारतीय सनातन काल से बहुदेववादी हैं। क्यों न हों? हमने जहां-जहां प्रकाश पाया, वहां वहां देव पाया और माथा टेका। सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। सूर्य नमनीय हैं। हमारे पूर्वज सूर्य नमस्कारों से कभी नहीं अघाये। वे सविता देव सहस्त्र आयामी प्रकाश रूपा हैं। चन्द्र किरणें मोहित करती हैं। उनकी प्रभा दिव्य है। चन्द्र प्रकाश सूर्य प्रकाश का अनुषंगी है लेकिन सूर्य का प्रकाश भी संभवतः किसी अन्य विराट प्रकाश के स्रोत से आता है।
प्रकाश का मूल स्रोत रहस्य है। कहां से आता है यह प्रकाश? इसका ईधन क्या है? ईंधन अक्षय नहीं हो सकता। प्रकाश का यह स्रोत अजर और पड़ता है। कठोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद् व श्वेताश्वतर उपनिषद् में एक साथ आए एक रम्य मंत्र में उसी विराट प्रकाश का संकेत है “न तत्र सूर्यो भाति, न चन्द्रतारकम्। नेमा विद्युत भान्ति कुतोऽयमग्नि – उस विराट प्रकाश केन्द्र पर सूर्य नहीं चमकता और न ही चन्द्र तारागण। वहां विद्युत और अग्नि की दीप्ति भी नहीं है।” आगे बताते हैं “तमे भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्व इदं विभाति- उसी एक प्रकाश से ये सब प्रकाशित होते हैं। अष्टावक्र ने जनक की सभा में उसे ‘ज्योर्तिएकं’- एक ज्योति कहा था। ज्योतिर्मयता हमारी अन्तर्प्रकृति है और जन्म जन्मांतर की प्यास।
हम सब अंधकार में हैं संभवतः। तमस गहरा है। अंधकार प्रकाश का अभाव ही नहीं है। अंधकार का भी अपना अस्तित्व है। दिवस और रात्रि का मिलन बड़ा प्यारा है। रात्रि रम्य है। दिवस श्रम है, रात्रि विश्रम। दिवस बर्हिमुखी यात्रा है – स्वयं से दूर की ओर गतिशील। रात्रि दूर से स्वयं की ओर लौटना है। रात्रि आश्वस्ति है। रात्रि का संदेश है – “अब स्वयं को स्वयं के भीतर ले जाओ, बाहर नहीं अन्तर्जगत में। अपने ही आत्म में करो विश्राम।” दिन भर कर्म। कर्मशीलता में थके, टूटे, क्लांत चित्त को विश्राम की प्रशान्त मुहूर्त देती है रात्रि। तमस् हमारे जीवन का भाग है। कोई विकार या विकृति नहीं। इसीलिए हर माह एक रात गहन तमस के हिस्से। अमावस्या हर माह आती है। यही बताने कि तमस् भी संसार सत्य का अंग है।
रात्रि को प्रकाशहीन कहा जाता है पर ऐसा है नहीं। रात्रि में चन्द्रप्रकाश होता है। क्रमशः घटता बढ़ता हुआ। अमावस्या अंधकार से परिपूर्ण रात्रि है। जान पड़ता है कि अमावस ही चन्द्रमा की अवकाश रात्रि है। अमावस का अंधकार उस रात प्रकाश का अभाव मात्र नहीं होता। अमावस की रात्रि में अंधकार होता है अस्तित्व रूप में। उस रात की आकाश गंगा खिलते और दीप्ति वर्षाते हुए बहती हैं। सभी तारे और नक्षत्र अपनी पूरी ऊर्जा में प्रकाश देने का प्रयास करते हैं लेकिन अमावस का अंधकार नहीं भेद पाते। जैसे अमावस अपने तमस् से भर देती है जीवन को वैसे ही पूर्णिमा भी। लेकिन तमस् और प्रकाश की यह अनुभूति प्रतिदिन भी उपस्थित होती है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक का काल प्रकाशपूर्ण रहता है और सूर्यास्त से सूर्योदय ऊषाकाल तक तमस् प्रभाव। तमस् और दिवस प्रतिपल भी घटते हैं जीवन में। आलस्य, प्रमाद, निष्क्रियता, निराशा और हताशा के क्षण तमस् काल हैं। उत्साह और उल्लास के क्षण प्रकाश प्रेरणा हैं।
प्रकाश हमारी प्रियतम आकांक्षा है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की स्तुति में तमस हमारी यथास्थिति है और ज्योति हमारी आकांक्षा। पूर्णिमा परिपूर्ण चन्द्र आभा है। शरद् पूर्णिमा का कहना ही क्या? इस रात चन्द्र किरणें धरती तक उतरती हैं अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ। वैदिक ऋषि इसी तरह की सौ पूर्णिमा देखना चाहते थे। ‘जीवेम शरदं शतम्’ में 100 शरद चन्द्र देखने की प्यास है। जैसे शरद चन्द्र अपनी पूरी आभा और प्रभा में खिलता है, स्थावर जंगम पर अमृत रस बरसाता है वैसे ही शरद पूनो के ठीक 15 दिन बाद की अमावस्या अपने समूचे सघन तमस् के साथ गहन अंधकार लाती है। अमावस्या गहन अंधकार है। तब अंधकार को भी अंधकार नहीं दिखाई पड़ता। पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर मधुमय वातायन की इस अमावस को भी झकाझक प्रकाश से भर दिया।
शरद् पूर्णिमा प्रकृति प्रदत्त प्रकाश वर्षा है। पूर्वजों ने अमावस को अपने कर्म से प्रकाश पर्व बनाया। शरद् पूर्णिमा की रात रस, गंध, दीप्ति, प्रीति, मधु, ऋत और मधुआनंद तो 15 दिन बाद झमाझम दीपमालिका। जहां जहां तमस् वहां वहां प्रकाश-दीप। सूर्य और शरद चन्द्र का प्रकाश प्रकृति की अनुकम्पा है तो दीपोत्सव मनुष्य की कर्मशक्ति का रचा गढ़ा तेजोमय प्रकाश है। प्रकाश ज्ञानदायी और समृद्धिदायी भी है। गजब के द्रष्टा थे हमारे पूर्वज। उन्होंने अमावस की रात्रि को अवनि अम्बर दीपोत्सव सजाये। भारत इस रात केवल भूगोल नहीं होता, हिन्दू मुसलमान का संधि विच्छेद नहीं होता। यह राज्यों का संघ नहीं होता, इस या उस राजनैतिक दल द्वारा शासित भूखण्ड नहीं होता। भारत अपने कर्मतप के बल पर इस रात ‘दिव्य दीपशिखा’ हो जाता है। जनगण मन पुलक में होती है, आमोद प्रमोद परिपूर्ण उत्सवधर्मा होता है। वातायन मधुमय होता है। वातायन में शीत और ताप का प्रेम प्रसंग चलता है। आनंदी अचम्भा है यह। अमावस की रात प्रकाश पर्व की मुहूर्त घोषित करना। प्रत्यक्ष रूप में शरद् पूनों को ही प्रकाश पर्व जानना चाहिए था। शरद् पूर्णिमा का प्रकाश अमृत कहा गया है। पूर्वजों ने इस प्रकाश की स्तुतियां भी की हैं लेकिन तब गहन तमस् का क्या होता? ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय्’ की प्यास को कर्मतप में बदलने के आह्वान का क्या होता? भारत के लोग प्रकृति की इस अनुकम्पा का नीराजन करते हैं और अमावस को प्रकाश से भरने की सांस्कृतिक कार्रवाई करते हैं।
(लेखक उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)