दस्तक के दस वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रकाशित विशेषांक
अजीब विडम्बना है कि दस्तक तो हाथों से दी जाती है, लेकिन पूजे पांव जाते हैं। दस्तक तो हुजू़र एक शायराना शब्द है। चूंकि ये उर्दू का शब्द है तो इसमें शालीनता है, सलीक़ा है, चैन है और रूहदारी है। अगर हुजू़र इसका हिन्दी तर्जुमा करें तो दोनों कान फूट जाएं। यानि दरवाज़ा पीटना, ठोकना, भड़भड़ाना, खटखटाना और अन्त में दरवाज़ा तोड़ देना। इसके हिन्दी तर्ज़ुमे में हिंसा है जब कि दस्तक में तो दरवाजा खोलने की इल्तिजा सुनाई देती है। दस्तक एक विनम्र और विनयशील अनुरोध है, शब्द तो ये बाद में है। दस्तक सुनना तो कानों में नरम मिश्री के कुज्जे फूटने जैसा एहसास देता है। दस्तक में सहिष्णुता है। जबकि इसके हिन्दी अनुवाद में घोर असहिष्णुता।
पिछले दिनों अपने यहां सम्मान वापस करने वाले हमारे बुद्धिजीवी दरअसल सरकार का दरवाज़ा तोड़ने में लगे थे। हलकी दस्तक देते तो शायद आधा-अधूरा दरवाज़ा खुल भी जाता। अगर पूरा भी खुल जाता तो कुछ होने वाला नहीं था क्योंकि इन बुद्धिजीवियों को ये पता ही नहीं कि कितना भी चतुर बीरबल हो वो बादशाह कभी नहीं बन सकता। सरकार का दरवाज़ा पीटना समझो अपना माथा पीटना होता है। अपना “दस्तक टाइम्स” पिछले दस सालों से समाज के दरवाज़े पर लगातार दस्तक देता आ रहा है। दरवाज़े तो ख़ैर क्या खुले पर हां, कुछ खिड़कियां आधी अधूरी खुलीं। कुछ खुलकर फिर बंद हो गईं। कुछ पर परदा पड़ा रहा जैसे वो खिड़की नहीं कोई इन्सानी अक़्ल हो। हमारे लखनऊ में रोजों के दौरान कोई न कोई पुराना हरकारा मोहल्लों में घूमघूम कर सुबह की नमाज़ के लिए लोगों को जगाता था। उसकी आवाज़ हमेशा दस्तक जैसी नरम होती थी। वो दरवाज़े खड़खड़ाता या भड़भड़ाता नहीं था। लोग उसे दुआएं देते हुए सलीक़े से उठ जाते थे। पत्रकारों को ऐसी दुआएं नहीं मिलतीं……………..
—- उर्मिल थपलियाल