दस्तक-विशेषराजनीतिराष्ट्रीय

राहुल का उपनिषद व गीता प्रेम : दिल्ली दूर है!

हृदयनारायण दीक्षित

प्रसन्नता सदा मित्र ही नहीं लाते। कभी कभी विरोधी भी मन प्रसन्न कर देते हैं। राहुल गांधी अपने दल के वरिष्ठ महानुभाव हैं। भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। वे प्रिय हैं लेकिन विचारधारा के स्तर पर हम लोगों के विरोधी भी हैं। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार के अनुसार वे इस समय उपनिषद् व गीता पढ़ रहे हैं। संघ से संघर्ष के लिए। उपनिषद् विश्व ज्ञान दर्शन का शिखर है। उनकी संख्या लगभग 200 है। प्रथम शंकराचार्य ने इनमें से 11 प्रमुख उपनिषदों का भाष्य किया था। गीता और उपनिषद् पढ़ने की राहुल जी की घोषणा ने हमारा मन प्रसन्न किया है। हमारी शुभाशंसा है। राहुल जी सभी उपनिषदें पढ़ें तो और भी अच्छा है। वैसे प्रमुख 11 उपनिषदों के पाठ और पुनर्पाठ से भी उनका चित्त तरल हो सकता है। गीता में सभी उपनिषदों के विचार सूक्त हैं। यहां दर्शन दिग्दर्शन की शिखर ऊंचाईयां भी हैं। उपनिषद् व गीता का पाठ उनके मन को निश्चित प्रशान्त करेगा। वे आनंदित भी होंगे। लेकिन गीता और उपनिषद् की अन्तर्वस्तु संसार से स्वयं के भीतर की यात्रा है और राजनीति स्वयं के भीतर से बाहर की भाग दौड़। राजनीतिक जय पराजय के गुणा भाग स्वयं को स्वयं से दूर ले जाते हैं और उपनिषद् व गीता के पाठ स्वयं को स्वयं के भीतर अन्तःक्षेत्र में। राहुल जी तय करें कि उन्हें जाना कहां हैं?
संघ विचारधारा से लड़ने में कोई बुराई नहीं है। विचारधाराओं के टकराव से जनतंत्र स्वस्थ होता है। लेकिन ऐसे टकराव के लिए विरोधी विचारधारा का विकल्प भी अपने पास होना चाहिए। मूलभूत प्रश्न है कि क्या राहुल जी के पास भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कोई वैचारिक विकल्प है। विपिन चन्द्र पाल कांग्रेसी ही थे लेकिन उनके पास भारतीय राष्ट्रवाद का सुस्पष्ट दर्शन था। गहन इतिहासबोध था सो भविष्य की दूरदृष्टि भी थी। तिलक बहुपठित राजनेता थे। उनकी रूचि गीता रहस्य में थी। नभ मण्डल में उगते मृगशिरा नक्षत्र पर उन्होंने ओरायन नाम का ग्रंथ लिखा था। वे ऋग्वेद के सूक्तों का रचनाकाल तय करने में जुटे थे।

नेहरू जी भारत को समझना चाहते थे। उन्होंने कारावास के कष्ट पूर्ण जीवन में ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ लिखी थी। नेहरू जी ने भारत माता का सजीव वर्णन किया है। बेशक वे पूर्वज आर्यो को विदेशी जानते थे। यह एक बड़ी चूक थी। इसका कारण ऋग्वेद के सूक्तों में आई नदियों व सुनिश्चित भूगोल का सही विश्लेषण न कर पाना हो सकता है। आर्यो को विदेशी बताने का काम यूरोपीय विदेशी शक्तियों ने ही किया था। नेहरू जी ने यही झूठा सच स्वीकार किया था। बावजूद इसके वे गहन पढ़ाकू थे। राहुल जी नेहरू जी की लिखी पुस्तकें पढ़ सकते हैं। पढ़ चुके हों तो वैदिक दर्शन के आलोक में उन्हें दोहरा भी सकते हैं।

उपनिषद् और गीता का पाठ करते राहुल गांधी

उपनिषद् और गीता का पाठ गहन जिज्ञासु के लिए ही उपयोगी है। प्रश्नाकुल चित्त की भूमि पर ही ज्ञान दर्शन की पौध उगती है। ऋग्वेद (1.164.6) में प्रश्न है “जिसने सभी लोक थाम रखे हैं। उस अजन्मा प्रजापति के रूप में वह एक तत्व (सृष्टि का आदि पदार्थ) किस प्रकार का है? मैं यह बात नहीं जानता। जो यह बात जानते हों, मुझे बताएं।” क्या राहुल जी यही भाव स्वीकार कर सकते हैं? ऋग्वेद में इस प्रश्न को उठाने वाला प्रश्नकर्ता अपने अज्ञान को स्वीकारता है और जानकारों से सही बात जानना चाहता है। राहुल जी को बताना है कि ज्ञान यात्रा का प्रथम सूत्र अज्ञानबोध ही है। अपने अज्ञान का ज्ञान बहुत जरूरी है। गीता उपनिषद् तभी अपना प्रभाव पैदा करते हैं। राहुल जी क्षमा करें। क्या आपको अज्ञान बोध का साक्षात्कार हुआ है।

मैं भी राजनैतिक कार्यकर्ता हूं। मुझे अज्ञानबोध के दंश प्रायः चुभते ही रहते हैं। ज्ञान देव की अनुकम्पा से ही अज्ञान का दर्शन संभव है। उपनिषद् और गीता के ज्ञान का उपयोग संघ से लड़ने में नहीं किया जा सकता। उपनिषद् और गीता के सूत्र प्रकृति सृष्टि से सत्य दर्शन कराते हैं। चित्त निर्मल और निष्कलुष होता है।
उपनिषदों का मुख्य विषय है संपूर्ण अस्तित्व। अभेद, एक अनन्य संपूर्णता। वृहदारण्यक उपनिषद् के ऋषि ने उसे पूर्ण बताया है। यह पूर्ण बड़ा शोभन और रहस्यपूर्ण है। इस पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो भी पूर्ण ही बचता है। भारतीय दर्शन के इस पूर्ण को ऋषियों ने ब्रह्म कहा है। ब्रह्मवैयक्तिक इकाई है नहीं। यह ईश्वर का पर्यायवाची नहीं है। ब्रह्म का ज्ञान भौतिक विज्ञान की तरह संभव नहीं है। सामान्यतया ज्ञान प्राप्ति में दो घटक होते हैं। पहला ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति और दूसरा ज्ञान का विषय। संपूर्णता की ज्ञान यात्रा में ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति व ज्ञान का विषय एक ही है। यहां जिज्ञासु व्यक्ति और विषय दोनो ही ब्रह्म का भाग हैं। वे दो नहीं एक ही हैं। ब्रह्म जिज्ञासा इसीलिए कठिन है और इसीलिए प्रीतिकर भी। केनोपनिषद् के ऋषि वचन को पढ़ना चाहिए। कहते हैं कि “यदि तू मानता है कि तू ब्रह्म के स्वरूप को जान गया है तो उस स्वरूप को थोड़ा ही जानता है। विद्वानों के द्वारा उसका प्रकट स्वरूप मीमांस्य (जांच किए जाने योग्य) है और स्पष्ट नहीं है।” कहते हैं कि मैं न तो ब्रह्म को जानता हूं और यह भी नहीं कहता कि नहीं जानता हूं। मैं उसे जानता हूं और नहीं भी जानता।”

उपनिषद् गहन अनुभूति के उद्गार हैं। राहुल जी जान लें कि उन्हें पार्टी साहित्य की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। हरेक उपनिषद् की शुरूवात में एक शांतिपाठ है। उपनिषद् प्रवेश का द्वार अनूठा है। अनेक मठों मंदिरों में प्रवेश द्वार पर जूते उतरवा लेते हैं। ऐसे ही उपनिषद् द्वार में प्रवेश की अनूठी विधि है। उपनिषद् मण्डप की कई सीढ़ियां हैं और पहली सीढ़ी है जिज्ञासा। जानने की तीव्र बेचैनी। दूसरी सीढ़ी है अपने भारतीय पूर्वजों के प्रति गहन प्रीतिभाव और श्रद्धा। ज्ञान के प्रति अंधविश्वास नहीं, पूर्वजों के प्रति अनन्य श्रद्धा। ऋग्वेद में उन्हें प्रीतिपूर्ण नमस्कार किया गया है, “इदं नमः ऋषिभ्य, पूर्वेभ्यः पूर्वजोंभ्यः – ऋषियों को नमन। पूर्वजों को नमन और हमसे बड़े सभी वरिष्ठों को भी नमन। उपनिषद् भवन में प्रवेश की अगली सीढ़ी है चित्त की प्रशांत स्थिति। प्रशांत झील जैसा निष्कंप मन। अविचल और कुशाग्र। कुशाग्र बड़ा सुंदर शब्द है – कुश की नोक जैसा सूक्ष्म शिखर। उपनिषदों के मंत्र केवल अर्थभार से युक्त सामान्य शब्द भर नहीं हैं। शब्दों के विकल्प थे नहीं। शब्दों की सीमा है। वे असीम के प्रतिनिधि नहीं हो सकते। इसीलिए प्रवेश द्वार पर शांतिपाठ की आवश्यकता है।

सूक्ष्मतम तत्व को स्थूल शब्दों में कहना बड़ा जटिल है। कठोपनिषद् में नचिकेता ने यम से पूछा “मृत्यु के बाद क्या होता है? यम ने बताया कि यह विषय अतिसूक्ष्म है। अणुरेव धर्मः – अणु धर्म वाला है। परमतत्व के बारे में कहा, वह ‘अणोरणीयान’ है, अणु से भी सूक्ष्म है लेकिन ‘महतोमहीयान’ विराट से भी विराट है।” याज्ञवल्क्य प्रकाण्ड दार्शनिक थे। उन्होंने गार्गी के प्रश्नों के उत्तर में कहा, “स्थूल और अणु की कल्पनाएं ब्रह्म व्याख्या नहीं कर सकती। वह अस्थूल हैं। वह अनणु है – उसे अणु भी नहीं कहा जा सकता। वह सूक्ष्मता और स्थूलता से परे है।” लेकिन ईशावास्योपनिषद् में कहा कि यहां सर्वत्र ईश ही उपस्थित है इसके अलावा और कुछ नहीं। वह दूर है लेकिन निकट भी है। वह गतिशील है और स्थिर भी। ब्रह्म वस्तुतः अव्याख्येय है। उसका निर्वचन असंभव। उसे भाषा के भीतर लाकर किसी परिभाषा में नहीं बांध जा सकता। यम ने नचिकेता को बताया कि यह तत्व प्रवचन से नहीं मिलता। तीव्र बुद्धि से भी इसका ज्ञान नहीं होता। यह तत्व जागृत चित्त में स्वयं को स्वयं प्रकट करता है। उपनिषद् और गीता शब्द संकेत हैं।

सड़क पर लगे नाम पर जैसे कि दिल्ली अब कितने किलोमीटर है। बेशक वे दिशा और अनुमानित समय बताते हैं लेकिन नामपट दिल्ली नहीं होते। उपनिषद् और गीता के प्रेमी दिल्ली नहीं दिल की दूरी को घटाते हैं। उपनिषदों के लिए दिल्ली का कोई मतलब नहीं। राहुल जी जानें कि गीता और उपनिषद् उन्हें दिल्ली नहीं पहुंचाएगे। दिल्ली दूर है। काफी दूर।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार व उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष हैं)

 

Related Articles

Back to top button