अन्तर्राष्ट्रीय

दुनिया के UK, US, कनाडा, फ्रांस सहित इन 26 देशों में लीगल हैं समलैंगिक शादियां

भारत के सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिगता को अपराध मानने या न मानने को लेकर आज सुनवाई हो रही है. इस वक्त भारत में समलैंगिक संबंध गैर कानूनी हैं. लेकिन दुनिया के 26 देश ऐसे हैं जिन्होंने बीते सालों में समलैंगिकता को कानूनन सही करार दिया है. पिछले साल ही ऑस्ट्रेलिया की संसद ने भारी बहुमत से इसे मान्यता दी थी. ऑस्ट्रेलिया के 150 सदस्यों के संसद में सिर्फ 4 सदस्यों ने समलैंगिक शादियों के खिलाफ वोट किया था. आइए जानते हैं सबसे पहले किस देश ने दी समलैंगिकता को मान्यता…

नीदरलैंड से सबसे पहले दिसंबर 2000 में समलैंगिक शादियों को कानूनी तौर से सही करार दिया था. 2015 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादियों को वैध करार दिया था. हालांकि, 2001 तक 57 फीसदी अमेरिकी लोग इसका विरोध करते थे. Pew Research के मुताबिक, 2017 में 62 फीसदी अमेरिकी इसे सपोर्ट करने लगे.

बेल्जियम, कनाडा, स्पेन, दक्षिण अफ्रीका, नॉर्वे, स्वीडन, आइसलैंड, पुर्तगाल, अर्जेंटीना, डेनमार्क, उरुग्वे, न्यूजीलैंड, फ्रांस, ब्राजील, इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, लग्जमबर्ग, फिनलैंड, आयरलैंड, ग्रीनलैंड, कोलंबिया, जर्मनी, माल्टा भी समलैंगिक शादियों को मान्यता दे चुका है.

भारत में क्या है स्थिति

भारत में समलैंगिकता को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ सुनवाई कर रही है. अदालत ने सोमवार को इस मामले की सुनवाई में देरी से इनकार कर दिया था. केंद्र सरकार चाहती थी कि इस मामले की सुनवाई कम से कम चार हफ्तों बाद हो. पीठ के पांच जजों में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा चार और जज हैं, जिनमें आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं.

मंगलवार को सुनवाई के दौरान बेंच में इकलौती महिला जज इंदु मल्होत्रा ने कहा कि समलैंगिकता केवल पुरुषों में ही नहीं जानवरों में भी देखने को मिलती है. वह समलैंगिता को सामान्य और अहिंसक बताने और मानवीय यौनिकता का एक रूप बताने पर टिप्पणी कर रही थीं.

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने टिप्पणी की कि यह मामला केवल धारा 377 की वैधता से जुड़ा हुआ है. इसका शादी या दूसरे नागरिक अधिकारों से लेना-देना नहीं है. वह बहस दूसरी है. तुषार मेहता ने कहा कि यह केस धारा 377 तक सीमित रहना चाहिए. इसका उत्तराधिकार, शादी और संभोग के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए.

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