दस्तक-विशेषराज्य

देवभूमि में राजस्व के लिए शराब बेचना कहां तक उचित

-गोपाल सिंह
उत्तराखंड में एक बार फिर पृथक राज्य आंदोलन की तर्ज पर महिलाओं ने शराब बंदी के लिए कमर कस ली है। पहाड़ से लेकर मैदानी क्षेत्रों तक की महिलाओं ने शराब के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है, लेकिन वहीं हमारी सरकार है कि ठान चुकी है कि वे शराब से ही राजस्व अर्जित करेगी। सरकार ने शराब की बंदी न हो इसके लिए जहां एक ओर प्रदेश के 64 स्टेट हाईवे को जिला मार्ग घोषित कर दिया। हालांकि सरकार एक मई से शराब की दुकानों को केवल छह घंटे ही खोलने का ऐलान कर चुकी है। बावजूद सवाल यही है कि आज प्रदेश की मातृ शक्ति जब रौद्र रूप दिखाकर आंदोलन कर रही हैं तो फिर भी सरकार शराब बंदी का जज्बा क्यों नहीं दिखा पा रही है। यह अपने आप में बड़ा सवाल है। हम यह बात यहां इसलिए भी कह रहे हैं कि सरकार ने सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश का नायाब तोड़ निकाला। उन्होंने शराब की दुकानें हटाने के बजाय हाईवे का नाम ही परिवर्तन कर जिला मार्ग रख दिया, जिस कारण आने वाले दिनों में इसके और घातक परिणाम हो सकते हैं। दूसरा सवाल सीएम त्रिवेंद्र रावत की मंशा पर उठता है कि वे बार-बार सार्वजनिक स्थानों से दावा कर रहे हैं कि शराब को वे राजस्व का जरिया नहीं बनाना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर शराब कारोबारियों के लिए रास्ते ढूंढ रहे हैं। पूरे प्रदेश में पहाड़ से मैदान तक महिलाओं का शराब के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन चल रहा है। महिलाएं गली या मोहल्ले में शराब की दुकानें नहीं खोलने दे रही हैं। सवाल यही उठता है कि सरकार को इसलिए भी ध्यान देना चाहिए पहाड़ में जो महिलाएं पूरे दिन परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाने को हाड़ तोड़ मेहनत करती हैं, वहीं शराब की दुकान गांव के निकट न खुले इसके लिए पूरी रातभर जागकर पहरा दे रही हैं। यानि साफ है कि महिलाओं ने ठान लिया है कि किसी भी कीमत पर शराब की दुकानें नहीं खोलनी चाहिए। एक आंकड़ा यह भी बताया जा रहा है कि पूरे विश्व में महज 16 प्रतिशत आबादी ही शराब पीती और जबकि 84 फीसदी नहीं। यानि सरकार को भी इस 84 फीसद आबादी के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। उत्तराखंड की बात करें तो यहां पर शराब बंदी के पर धार्मिक पर्यटन को बढ़ाकर सरकार राजस्व बढ़ा सकती है। बताया जा रहा है कि उत्तराखंड राज्य बनने के समय यहां पर शराब का कारोबार महज 200 करोड़ का था, जो अब बढ़कर 2000 करोड़ तक जा पहुंचा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हम केवल शराब पिलाकर ही विकास की सोच रहे हैं। जानकार सवाल पूछ रहे हैं कि जब बिहार जैसा राज्य शराब बंदी का कदम उठा सकता है तो फिर उत्तराखंड क्यों नहीं। दूसरा सरकार को यह भी सोचना होगा कि आखिर सूबे में महिलाएं आंदोलन क्यों कर रही हैं। सरकार को यह बात समझनी होगी कि शराबबंदी के मुद्दे पर महिलाएं इतनी उग्र क्यों हो रही हैं। लिहाजा सरकार को अब आत्मचिंतन करने का समय है। शराब को लेकर वे सुबह से शाम सरकार के खिलाफ लड़ रही हैं, वहीं रात में पति के दुव्र्यवहार का शिकार भी बन रही है। बच्चों का भविष्य भी शराब से खराब हो रहा है। एक आंकड़ा यह भी बताता है कि शराब से पूरे विश्व में हर साल करीब 33 लाख लोगों की जान शराब पीने से जाती है। उत्तराखंड राज्य भी इससे अछूता नहीं है। शराब की दुकानों को मुख्य मार्गों से हटाकर पांच सौ मीटर अंदर यानि गांवों में ले जाना और अधिक घातक हो जाएगा।
हालांकि सरकार की इच्छा शक्ति हो तो वे शराब से आने वाले राजस्व की भरपाई दूसरे स्रोतों से कर सकती है। उत्तराखंड केंद्र सरकार से सात हजार करोड़ का ग्रीन बोनस मांगे। जल, जमीन हमारी है और आदमी भी हमारे ही काम कर रहे हैं। इसके बावजूद जल विद्युत परियोजनाओं में भी उत्तराखंड की हिस्सेदारी महज 12 फीसद मिल रही है, जबकि यह चालीस फीसदी मिले तो उत्तराखंड को शराब के राजस्व की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। एक और कदम सरकार खनन को लेकर उठा सकती है। इसके लिए सरकार अपनी एजेंसियों से खनन कराए और अवैध खनन पर रोक लगे तो करीब दस हजार करोड़ का राजस्व सरकार को मिल सकता है। ऐसे में फिर शराब बंदी क्यों नहीं हो सकती है। बस इसके लिए जरूरत है तो हमारे सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत को इच्छा शक्ति दिखाने का।
दूसरी ओर वर्तमान में प्रदेश में शराब विरोधी आंदोलन की बात करें तो नारी इन दिनों दुर्गा का रौद्र रूप धारण कर चुकी हैं। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में शराब विरोधी आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया है। गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक शराब की बिक्री के खिलाफ जगह-जगह आंदोलनकारी महिलाएं विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। गढ़वाल मंडल के चमोली, गोपेश्वर, अगस्त्यमुनि और चम्बा इलाकों में शराब विरोधी आंदोलनकारियों ने शराब की दुकानों में जमकर तोड़फोड़ की। शराब के ठेकों की दुकानें बंद कराने के लिए महिलाओं ने गोपेश्वर में शराब की पेटियों को आग के हवाले कर दिया था। टिहरी जिले के चम्बा में उग्र भीड़ ने शराब की दुकानों में तोड़फोड़ तक की। रुद्रप्रयाग जिले के अगस्तमुनि क्षेत्र के सौड़ी, अमोठा, गिवाला समेत आधा दर्जन गांवों में शराब की दुकानों में तोड़फोड़ की गई। रुद्रप्रयाग जिले के सौड़ी गांव में महिलाओं ने टीन शेड की बनी शराब की दुकान को जड़ से ही उखाड़ फेंकी थी। हरिद्वार के सप्तऋषि क्षेत्र में कई बस्तियों में अवैध रूप से चल रही शराब की दुकानों में लोगों ने धावा बोल दिया। महिला आंदोलनकारियों ने रुड़की पुलिस चौकी का घेराव कर ऐसी दुकानें बंद कराने की मांग की।
वहीं कुमाऊं में भी शराब विरोधी आंदोलन की आग जबरदस्त भड़की है। यहां के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर और उधमसिंहनगर जिलों में भी शराब के ठेकों के खिलाफ महिलाओं ने जबरदस्त आंदोलन छेड़ रखा है। मैदानी जिलों हरिद्वार और उधमसिंहनगर में भी शराब विरोधी आंदोलन उग्र रूप ले लिया है। हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्रों लक्सर, मुंडाखेड़ा, बाकरपुर, जगजीतपुर, सुनहरा और भिक्कमपुर क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं ने आधा दर्जन शराब की दुकानें बंद करवा दीं। उधर महिलाओं के शराब विरोधी आंदोलन का पर्यावरण संरक्षण पर कार्य कर रही मैती संस्था ने भी समर्थन दिया है। मैती स्वयं सेवी संस्था की अध्यक्ष कुसुम जोशी ने चमोली में महिलाओं के शराब विरोधी आंदोलन को समर्थन का ऐलान किया। एक ओर पूरे प्रदेश में आंदोलन हो रहा है, बावजूद सीएम इस पर रोक नहीं लगा पा रहे हैं। मुख्यमंत्री का कहना है कि शराब को मात्र छह घंटे ही बेचा जाएगा। इससे भी कई सवाल उठते हैं।
उत्तराखंड में नया नहीं शराब विरोधी आंदोलन
राज्य में पहली बार नहीं बल्कि राज्य बनने से पहले भी कई बार शराब के विरोध में आंदोलन हुए हैं। यहां पर 1994 में भी शराब विरोधी आंदोलन ही हुआ और बाद में यह पृथक राज्य आंदोलन के रूप में बदल गया। हालांकि इसके लिए हमारे राजनेताओं, शराब माफिया और तस्करों के गठजोड़ को खत्म करना होगा, तभी शराब से मुक्ति मिल सकती है। राजनीति में भी शराब का चलन तेजी से बढ़ा है, जिस कारण इस पर कोई भी राजनीतिक दल लगाम कसने में डरता है। बताते चलें कि उत्तराखंड में करीब 29 साल पहले अल्मोड़ा के एक छोटे से गांव बसभीड़ा से शुरू हुआ नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन माफिया नौकरशाहों और राजनीति के जनविरोधी गठजोड़ के खिलाफ सामने आया है। वैश्वीकरण उदारीकरण निजीकरण के इस दौर में इस आंदोलन से जुड़ी शक्तियां आज भी जल, जंगल और जमीन पर जनता के अधिकारों के साथ राजनीति और माफिया के गठजोड़ के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। बसभीड़ा से प्रारम्भ हुए आंदोलन की पृष्ठभूमि में उत्तराखंड में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के लिए युवाओं की सक्रियता का कम से कम एक दशक शामिल था। इस एक दशक में पर्वतीय युवा मोर्चा ग्रामोत्थान छात्रा संगठन से लेकर उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के नाम से काम करने वाले युवाओं ने उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों की आर्थिक सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों को लम्बी-लम्बी पदयात्राओं के माध्यम से काफी हद तक समझ लिया था। यह वह दौर था जब हमारे राजनेताओं के दिखाये गए सुन्दर सपने बिखर रहे थे और देश के साथ-साथ उत्तराखंड का युवा इस तथ्य को समझने का प्रयास कर रहा था कि आखिर इस आजादी का हमारे लिए क्या अर्थ है? हमारी यह आजादी जहां एक ओर ठेकेदारों पूंजीपतियों उनके दलालों और नेताओं के लिए प्राकृतिक और इन्सानी लूट से मालामाल होने के रास्ते प्रशस्त कर रही थी वहीं दो जून की रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत करने वाली महिलाओं और बच्चों के लिए सुरा-शराब के प्रचार-प्रसार का नया अभिशाप लेकर भी आई थी। इस कारण पर्वतीय क्षेत्रों में कलह सामाजिक बिखराव अपसंस्कृति असामयिक मृत्यु दुर्घटना एवं अपराध में भारी बढ़ोत्तरी हो रही थी। सुरा-शराब अशोका लिक्विड तथा तरह-तरह के नशीले और मादक द्रव्यों से उत्तराखंड के बाजार-कस्बे भरे पड़े थे और इस नशे में डूबे उत्तराखंडी समाज की इस करुण पुकार को सुनने और इसकी आड़ में धड़ल्ले से हो रही लूट को रोकने में हमारी प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक प्रणाली अक्षम साबित हो रही थी।

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