देश की चिकित्सा शिक्षा को अफसरशाही से बचाने की गंभीर चुनौती
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अनुभव बता रहे हैं कि किस तरह मोदी सरकार की मंशा को पलीता लगा रहा है सरकारी तंत्र
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देश के सरकारी अस्पतालों को कॉलेजों के दर्जे से हासिल हो सकते हैं सबको अरोग्य का मिशन
डॉ. अजय खेमरिया : यह सही है मोदी सरकार ने पिछले 5 वर्षो में चिकित्सा शिक्षा के विस्तार को नई दिशा और आयाम दिया है। अगले दो वर्षों में 75 नए मेडिकल कॉलेज खोलने का निर्णय भी हाल ही में लिया गया है।निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिये लेकिन इससे पहले कुछ तथ्यों और उन पहलुओं पर भी ईमानदारी से विचार किये जाने की आवश्यकता है जो इस क्षेत्र के साथ व्यावहारिक धरातल पर जुड़़े हैं। मसलन एक नया मेडिकल कॉलेज जब खोला जाता है तब उसकी जमीनी कठिनाइयों की ओर सरकार के स्तर पर भूमिका क्या वैसी ही मजबूत है जैसी इन्हें खोलने के निर्णय लेते समय होती है। पिछले दो बर्षो में मप्र में सात नए मेडिकल कॉलेज मप्र सरकार द्वारा खोले गए है इनमे से कुछ कॉलेजों को एललोपी यानी कक्षाओं के संचालन की अनुमति एमसीआई द्वारा जारी कर दी गई है। इस बीच मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जगह आयुर्विज्ञान आयोग अस्तित्व में आ गया है जो नए प्रावधानों को चिकित्सा शिक्षा से जोड़ता है इस आयोग के माध्यम से मोदी सरकार ने एमसीआई की मनमानी और प्रक्रियागत भृष्टाचार को बंद करने का प्रयास किया है।
मप्र में खोले गए सभी नए मेडिकल कॉलेज इस समय विवादों में है इससे पहले खोले गए कॉलेजों की मान्यता और आधारभूत शैक्षणिक एवं आधारिक सरंचनाओं की उपलब्धता को लेकर विवाद होते रहे है।कमोबेश नए मेडिकल कॉलेजों में भी कक्षाओं को आरम्भ करने की जल्दबाजी में बड़े पैमाने पर अनियमितताओं और फर्जीवाड़े को आधार बनाया जा रहा है। राज्यों में चिकित्सा शिक्षा का पूरा तंत्र अफसरशाही के हवाले है जो चिकित्सा शिक्षा को वैसे ही चलाना चाहते है जैसे अन्य सरकारी योजनाएं जबकि यह क्षेत्र बहुत ही संवेदनशील और समाज के भविष्य के साथ जुड़ा है।समाज मे अयोग्य और अक्षम चिकित्सक का पैदा होना बहुत ही खतरनाक पक्ष है, क्योंकि भारत जैसे देश में चिकित्सा सुविधाओं की पहुंच आज भी 50 फीसदी तबके तक है ही नही। इसलिये मोदी सरकार के इस निर्णय को सिर्फ राजनीतिक लिहाज से देखने की जगह इसकी गंभीरता और दीर्धकालिक महत्व को भी समझने की जरूरत है यह सभी राज्य सरकारों का नैतिक दायित्व भी है कि मेडिकल कॉलेजों के लिये परम्परागत सरकारी तौर तरीकों से परिचालित न किया जाए। मसलन देश भर में आज जब डॉक्टरों की बेहद कमी है तब हमें यह समझना होगा कि नए खुल रहे कॉलेजो के लिये फैकल्टी आएंगे कहां से ?जब इनकी मानक उपलब्धता ही मुल्क में नही है तब इन्हें लाया कहां से जाएगा? मेडिकल एजुकेशन के लिये जो पैरामीटर टीचिंग फेकल्टी के एमसीआई द्वारा निर्धारित है उन्हें देश के 90 फीसदी नए कॉलेज पूरा नहीं कर रहे है यानी स्पष्ट है की नए कॉलेजों में पढ़ाने वाले सक्षम शिक्षक होंगे ही नही।जब शिक्षक ही मानक योग्यताओं को पूरा नही करते है तो काबिल डॉक्टर्स कहां से आएंगे?
वर्तमान में एमसीआई के पास कुल 10 लाख 41 हजार के लगभग डॉक्टरों के जीवित पंजीयन है जिनमें से सिर्फ 1लाख 2 हजार डॉक्टर ही विभिन्न सरकारी संस्थानों में कार्यरत है जाहिर है कोई भी विशेषज्ञ चिकित्सक देश की सरकारी सेवाओं में नही आना चाहता है ऐसे में यह जरुरी हो गया है कि जो विशेषज्ञ पीजी डॉक्टर मेडिकल कॉलेजों से बाहर सरकारी सेवाओं में है उन्हें फैकल्टी के रूप में भी जोड़ा जाए क्योंकि कॉलेज के प्रोफेसर और सरकारी विशेषज्ञ डॉक्टरों के काम मे सिर्फ थ्योरी क्लास लेने का बुनियादी अंतर है, सरकार के स्तर पर ऐसे अध्ययनशील विशेषज्ञ डॉक्टरों को चिन्हित किया जा सकता है जो ओपीडी,ओटी के अलावा थ्योरी को भी बता सके। इसके लिये इन डॉक्टर्स को विशेष प्रोत्साहन भत्ते दिए जा सकते है।इस प्रयोग से देश भर में सरकारी फैकल्टी की कमी को दूर किया जा सकता है। फिलहाल जो व्यवस्था है उसमें भी कार्यरत पीजी डॉक्टरों को ही डेजीगनेट प्रोफेसर और एशोसिएट प्रोफेसर के रूप में एमसीआई के निरीक्षण में काउंट करा दिया जाता है। अच्छा होगा इस फर्जीवाड़े को स्थाई कर दिया जाए। 2014 के बाद करीब 80 नए मेडिकल कॉलेज मोदी सरकार खोल चुकी है और 75 अतिरिक्त खोलने की मंजूरी अभी पखवाड़े भर पहले ही दी गई है। सभी कॉलेजों में मानक फैकल्टीज का अभाव है। मप्र के सात नए कॉलेजों के अनुभव बता रहे हैं कि मेडिकल कॉलेज राज्यों में जबरदस्त अनियमितता और भ्रष्टाचार का केंद्र बन रहे हैं।अफसरशाही ने पूरे तंत्र को अपनी गिरफ्त में ले रखा है सरकार में बैठे मंत्री, मुख्यमंत्री अफसरों के इस तर्क से खुश हैं कि उनके राज्य में नए मेडिकल कॉलेज खुल रहे, जिन्हें वह अपनी उपलब्धियों के रूप में जनता के बीच प्रचारित कर सकते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में जो खतरनाक खेल अफसरशाही खेल रही है उसकी तरफ न सरकार का ध्यान है न समाज का। इस खेल को आप मप्र के उदाहरण से समझिए। सात नए मेडिकल कॉलेजों के लिये सरकार ने प्रति कॉलेज 250 करोड़ बिल्डिंग के लिये फंड दिया,300 करोड़ उस कॉलेज के चिकिसकीय उपकरण, 100 करोड़ अन्य परिचालन व्यय और करीब एक हजार विभिन्न नियमित सरकारी पदों की स्वीकृति। आरंभिक चरण के लिये दी हैं।सभी कॉलेज जिला मुख्यालयों पर खोले गए जहां पहले से ही परिवार कल्याण विभाग के 300 बिस्तर अस्पताल मौजूद है।इन्ही अस्पताल को नए कॉलेजों से अटैच कर दिया गया है।एमसीआई के निरीक्षण के समय इन्ही अस्पतालों के विशेषज्ञ औऱ अन्य डॉक्टरों को डिजिग्नेट करके नए कॉलेज स्टाफ में दिखाया गया है। दूसरी तरफ फैकल्टी से लेकर सभी छोटे पदों की भर्तियां मनमाने तरीके से हो रही है मप्र के शिवपुरी, दतिया कॉलेजों की भर्तियों को लेकर तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनो के विधायक विधानसभा में तीन सत्रो से हंगामा मचा रहे है क्योंकि इन भर्तियों में बड़े पैमाने पर भृष्टाचार हुआ है। अयोग्य और अपात्र लोगों को मोटी रकम लेकर भर्ती कर लिया गया है। भर्ती का यह खेल करोड़ो तक पहुँचा है क्योंकि सभी पद रेगुलर है। मप्र में उपकरणों की खरीदी भी अफसरों के लिये कुबेर खजाना साबित हुई है। खास बात यह है कि मप्र का चिकित्सा शिक्षा विभाग पूरी तरह से अफसरशाही की शिकंजे में मंत्री के नीचे प्रमुख सचिव, आयुक्त, उपसचिव, आईएएस संवर्ग के है वही हर मेडिकल कॉलेज का स्थानीय सुपर बॉस उस संभाग का कमिश्नर है। यानी उपर से नीचे तक आईएएस अफसरों का शिकंजा है। यही अफसर सभी नीतिगत निर्णय लेते है भर्ती से लेकर सभी खरीदी भी इन्ही के हवाले है। रोचक और अफसरशाही की शाश्वत सर्वोच्चता का साबित करता एक तथ्य यह भी है कि इन अफसरों में से एक भी मेडिकल एजुकेशन से नही आता है कोई इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से है या फिर मानविकी से लेकिन वे चिकित्सा शास्त्र जैसे विशुद्ध तकनीकी विषय की नीतियां निर्धारित और लागू कर रहे है। वस्तुतः मेडिकल कॉलेजों के साथ जुड़ा सरकारी धन का आंकड़ा अफसरशाही और उच्च नेतृत्व को गठबंधन बनाने के लिये मजबूर कर रहा है। मप्र में नए मेडिकल कॉलेजों का बजट प्रावधान हजारो करोड़ में पहुँच रहा है। 7 हजार से ज्यादा सरकारी भर्तियों का मौका यहां व्यापमं का पितामह साबित हो रहा है क्योंकि यहां बगैर किसी लिखित या मौखिक परीक्षाओं के सीधे स्वशासी कॉलेज व्यवस्था के नाम से नियुक्तियों को किया गया है। अब सवाल यह उठता है कि जब नए मेडिकल कॉलेजों में इस स्तर पर भ्रष्टाचार हो रहा है तो इनसे निकलने वाले डॉक्टरों की चिकिसकीय गुणवत्ता कैसी होगी?क्या वे भारतीय समाज के आरोग्य के लिए प्रतिबद्ध होंगे?
मप्र के अनुभवों के आधार पर सरकारों को चाहिये कि सबसे पहले नए मेडिकल कॉलेजों के लिये बजट प्रावधानों पर पुनर्विचार करे।सैंकड़ो करोड़ की बिल्डिंगस के स्थान पर बेहतर होगा कि देश के सभी जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों की अधिमान्यता प्रदान कर दी जाए क्योंकि जो काम मेडिकल कॉलेजों के अस्पतालों में हो रहा है वही इन सरकारी जिला अस्पतालों में होता है जो नए कोलेज खोले गए हैं वे सभी इन्ही अस्पतालों से अटैच किये गए है चूंकि मान्यता के लिये इन्ही अस्पतालों का निरीक्षण होता है यहां कार्यरत चिकिसकीय एवं पैरा मेडिकल स्टाफ को ही आवश्यक मानव संसाधन के कोटे में गिना जाता है इसलिये अच्छा होगा कि देश के सभी 600 से ज्यादा जिला अस्पताल मेडिकल कॉलेजों में तब्दील कर दिए जाएं। यहाँ पूरक सुविधाएं उपलब्ध कराकर मेडिकल कॉलेजों के मानकों को पूरा किया जाए। सभी राज्य मेडिकल एजुकेशन और पब्लिक हैल्थ के विभागों का आपस मे मर्जर कर दें ताकि लोक स्वास्थ्य में समरूपता दिखाई दे अभी स्वास्थ्य विभाग के आसपास अलग है और मेडिकल एजुकेशन के अलग। इनके अलग अलग संचालन नियम है अलग सेटअप है जबकि दोनो के काम एक ही है। सरकारी स्तर पर यह नीतिगत निर्णय भी होना चाहिये कि मेडिकल एजुकेशन में सिर्फ प्रमुख सचिव स्तर पर एक ही आइएएस अफसर का पद होगा जो सरकार और विभाग के बीच समन्वय का काम करेगा।इसमें भी मेडिकल एकेडमिक बैकग्राउंड वाले अफसर को तरजीह दी जाए। शेष सभी पदों पर डॉक्टरों की नियुक्ति प्रशासन के लिहाज से हो। जिला अस्पतालों को आधुनिक सुविधाओं और थ्योरी क्लासेस के अनुरूप बनाने से सभी जिलों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो सकेगी फैकल्टी की समस्याओं का भी समाधान होगा। ग्रामीण क्षेत्रो के स्वास्थ्य केंद्र जिलों में अध्ययन करने वाले मेडिकल स्टूडेंट्स के लिये समयबद्व ढंग से ओपीडी का काम कर सकते हैं। मोदी सरकार ने नि:संदेह चिकित्सा शिक्षा के लिये 5 साल में क्रांतिकारी कदम उठाए हैं। इस मोर्चे पर सरकार की सराहना करनी चाहिये लेकिन हमें पिछले दिनों लोकसभा में प्रस्तुत किये हैं तथ्यों पर भी गौर करना होगा : भारत में फिलहाल 479 मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें फिलहाल 85218 एमबीबीएस और 29870 पीजी की सीट्स है। वर्ष 2016 से 2018 के बीच मोदी सरकार ने करीब 80 नए मेडिकल कॉलेज को मंजूरी दी है।
2014 में मोदी सरकार के आने से पहले देश मे एमबीबीएस की 52 हजार औऱ पीजी की 13 हजार सीट्स ही थी। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत मे 67 फीसदी नागरिक अपनी बीमारियों का इलाज खुद अपनी जेब के धन से कराते हैं और देश की कुल आबादी के पचास फीसदी तक स्वास्थ्य सेवाओं की मानक उपलब्धता नहीं है। विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकीय संस्थान के हवाले से सरकार ने बताया है कि वर्ष 2018 में भारत मे 23 करोड़ नागरिकों ने अपनी आमदनी का 10 फीसदी हिस्सा अपनी बीमारियों के इलाज पर खर्च किया है।यह 23 करोड़ का आंकड़ा यूरोप के एक दर्जन से ज्यादा मुल्कों की आबादी को मिला दिया जाए तब भी अधिक बैठता है। यानि यूरोप के कई मुल्कों की कुल जनसंख्या से ज्यादा लोग भारत मे ऐसे है जो अपनी कमाई का दस प्रतिशत अपने इलाज पर खर्च कर देते है।भारत स्वास्थ्य सेवा सुलभ कराने के मामले में 195 देशों में 154 वे नम्बर पर है। भारत मे औसत 11082 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर है जबकि वैश्विक मानक कहते है 1100 की आबादी पर एक होना चाहिये। भारत में पिछले दो बर्षो में ब्लड प्रेशर और शुगर के मरीजों की संख्या दोगुनी हो चुकी है, वहीं कैंसर के 36 फीसदी मरीज बढ़े है। इन तथ्यों के बीच नए मेडिकल कॉलेजों की गुणवत्ता बनाया जाना कितना अनिवार्य है यह आसानी से समझा जा सकता है। बगैर अफसरशाही से मुक्ति के यह आसान नहीं लगता है।