अद्धयात्मफीचर्डसाहित्यस्तम्भ

धर्म बातो का विषय नही है- वह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय हैं

 


प्रत्येक धर्म विश्वास पर बल देता है। धर्म पर ऑख बंद कर विश्वास करने की परंपरा हमने विरासत मे पाई हैं।इस कारण हमारे धार्मिक तर्क प्राय: अधूरे अस्पष्ट और दिशाहीन साबित होते है।और हमारे धर्म पर प्रश्चिंह लगाने वालो को हम अपनी धार्मिक भावनाओ को आघात पहुचाने वाला कहकर दोषी ठहरा तो देते है किंतु तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ प्रत्यक्ष सारगर्भित उत्तर दे पाने अधिकांशता असफल ही रहते है।परिणाम स्वरूप हमने कई लोगो को यह कहते सुनते पाया है कि धर्म विश्वास नही अंधविश्वास भर हैं। वैसे अंधविश्वास तो सचमुच बुरी चीज है इसमे कोई संदेह नही। पर यदि इस अंधविश्वास का हम विश्लेषण करके देखे, तो ज्ञात होगा कि इसके पीछे एक महान सत्य है।उसका वास्तविक अर्थ क्या है हम इसी के बारे मे चर्चा कर रहे है।...

मन को व्यर्थ ही तर्क के द्वारा चंचल करने से काम नही चलेगा, क्योंकि तर्क से कभी ईश्वर की प्राप्ति नही हो सकती। ईश्वर प्रत्यक्ष का विषय है, तर्क का नही। समस्त तर्क कुछ प्रत्यक्षो पर स्थापित रहते है।इनको छोड कर तर्क हो ही नही सकता। “हमारी प्रत्यक्ष की हुई अनुभूतियो के बीच तुलना की प्रणाली को तर्क कहते हैं।” यदि ये अनुभूतियॉ पहले से न हो तो तर्क हो ही नही सकता। बाह्य जगत के सम्बन्ध में यदि यह सत्य है,तो अन्तर्जगत के सम्बन्ध में भी ऐसा क्यों न होगा ? रसायन विज्ञानी कुछ रसायन लेते है और उनके मिश्रण से कुछ नये परिणाम वाला रसायन तैयार कर देते है और उन सिद्धांतो को नीव बनाकर ही हम रसायन शास्त्र का विचार करते हैं। पदार्थतत्त्वेत्ता (धार्मिक शोध शास्त्री) भी वैसा ही करते हैं- सभी विज्ञानो के विषय मे यही बात हैं। सभी प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित होना चाहिए और उसके आधार पर ही हमें तर्क और विचार करना चाहिए। किन्तु आश्चर्य की बात है कि अधिकांश लोग, विशेषत: वर्तमान काल मे,सोचते हैं कि धर्मतत्व मे इस प्रकार की प्रत्यक्ष अनुभूति संभव नही हैं,धर्म का तत्व केवल युक्ति-तर्क द्वारा समझा जा सकता है।ऐसा धर्म शोधार्थी गुरूओ मुनियो ने सचेत किया है कि मन को वृथा तर्कों से चंचल नही करना चाहिए। धर्म बातो का विषय नही है- वह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय हैं।हमे अपनी आत्मा का अन्वेषण करके देखना होगा कि वहॉ क्या हैं। हमे उसे समझना होगा और समझ कर उसका साक्षात्कार करना होगा। यही धर्म है। लम्बी-चौडी बातो मे धर्म नही रखा है।अतएव,कोई ईश्वर है या नही , यह तर्क से प्रमाणित नही हो सकता, क्योंकि युक्ति दोनो ओर समान है। किंतु यदि कोई ईश्वर है, तो हमारे अन्तर मे ही हैं। क्या तुमने कभी उसे देखा ? यही प्रश्न है। जगत का अस्तित्व है या नही- इस प्रश्न की मीमांसा अभी तक नही हो सकी और प्रत्यक्षवादियों( realists) एंव विज्ञानवादियो (idealists) का विवाद कभी समाप्त नही होने का। फिर भी हम जानते है कि जगत है और चल रहा हैं। हम केवल शब्दो के तात्पर्य मे हेर फेर कर देते हैं।अत: जीवन के इन सारे प्रश्नो के बावजूद हमें प्रत्यक्ष घटनाओ मे आना ही पडेगा। बाह्य- विज्ञान के ही समान परमार्थ- विज्ञान मे भी हमे कुछ परमार्थिक व्यापारों को प्रत्यक्ष करना होगा। उन्ही पर धर्म स्थापित होगा। हॉ यह सत्य हैं कि धर्म की प्रत्येक बात पर विश्वास करना- यह एक युक्तिहीन दावा है और इसमें कोई आस्था नहीं रखी जा सकती। उससे मनुष्य के मन मे अवनति होती है। जो व्यक्ति तुमसे सभी विषयो मे विश्वास करने को कहता हैं, वह अपने को नीचे गिराता है और तुम उसके वचनो पर विश्वास करते हो, तो वह तुम्हे भी नीचे गिराता हैं। संसार के साधु- महापुरूषों को हम से बस यही कहने का अधिकार है कि हमने अपने मन का विश्लेषण किया है और यह सत्य पाये है और यदि तुम भी वैसा करो , तो तुम भी उन पर विश्वास करोगे,उसके पहले नहीं।बस,यही धर्म का सार हैं।एक बात तुम सदैव ध्यान मे रखो कि जो लोग धर्म के विरूद्ध तर्क करते हैं, उनमे ९९.९ प्रतिशत व्यक्तियों ने कभी अपने मन का विश्लेषण करके नही देखा हैं। सत्य को पाने की कभी चेष्टा नही की है। इसलिए धर्म के विरोध मे उनकी युक्ति का कोई मूल्य नही हैं। यदि कोई अंधा मनुष्य चिल्लाकर कहे,”सूर्य के अस्तित्व मे विश्वास करनेवाले तुम सभी भ्रान्त हो”, तो उसके इस वाक्य का जितना मूल्य होगा,बस उतना ही उनकी युक्ति का हैं।
अत: अपरोक्षानुभूति के इस भाव को मन मे सर्वदा जागरूक रखना और उसे पकडे रहना चाहिए।धर्म को लेकर सब झगडे,मारामारी,तर्क-वितर्क तभी जाएँगे,जब हम समझ लेंगे कि धर्म ग्रंथो या मन्दिरो मे नही हैं। वह अतीन्द्रिय तत्व की अपरोक्षानुभूति हैं-इन्द्रियों से उसका अनुभव नही हो सकता।जिन व्यक्तियो ने वास्तव मे ईश्वर एंव आत्मा कि उपलब्धी की है वे ही यथार्थ धार्मिक हैं।

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