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ध्रुपद को बचाने के लिए आगे आए संगीतकार श्रवण

-अनिल बेदाग
मुंबईः ध्रुपद में रसात्मकता है, भावनात्मकता है, लयात्मकता है। धु्प्रद से ही संगीत की विविध शैलियों का जन्म हुआ है, लेकिन गंभीर चिंता का विषय यह है कि ध्रुपद आज अस्तित्व खो रहा है। अगर इसे बचाने के प्रयास नहीं किए गए, तो शास्त्रीय संगीत को जन्म देने वाली संगीत की यह शैली लुप्त हो जाएगी। ध्रुपद गायकी को बचाने के ही प्रयासों के तहत मुंबई के एस्कॉन मंदिर में दो दिन के लिए ध्रुपद महोत्सव का आयोजन हुआ। इस मौके पर दुनिया भर में ध्रुपद गायन का विस्तार करने वाले सुखदेव चतुर्वेदी ने ध्रुपद की कई बंदिशों को श्रोताओं के सामने पेश किया। ध्रुपद जैसी महान गायकी पर आए संकट को लेकर वह कहते हैं कि आज हर गायक शॉर्टकट तरीके से चर्चित होना चाहता है। वह कुछ सीखने भी आता है, तो गुरूओं से सवाल करता है कि सीखने में कितने दिन लगेंगे। सुखदेव चतुर्वेदी कहते हैं कि एक बार नौका विहार करते समय अकबर ने संगीत सम्राट तानसेन से पूछा था कि संगीत की सीमा कितनी है? इस सवाल पर तानसेन ने अपने हाथ की उंगलियों को बहते हुए सागर में डालते हुए कहा कि जहां तक मेरी उंगलियां डूबी हैं, मैं संगीत के बारे में उतना ही जान पाया हूं। सागर की जितनी गहराई है, संगीत भी उतना ही गहरा है। कई जन्म लग जाएंगे इसकी सीमा को जानने में या कहें कि इसे पूरा सीखने में।

इस मौके पर संगीतकार श्रवण भी मौजूद थे जिन्होंने सुखदेव चतुर्वेदी की बात को सही ठहराते हुए कहा कि धुपद को बचाने के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास करने होंगे। आज संजय लीला भंसाली जैसे कुछ ही संगीतकार बचे हैं जो जिनकी फिल्मों के संगीत में शास्त्रीयता बची है। फिल्म देवदास इसका एक अच्छा उदाहरण है। फिल्म निर्माताओं और संगीतकारों को भी चाहिए कि वे भारतीय संगीत को पाश्चात्य प्रभाव से बचाएं और संगीत में आधुनिकता के साथ-साथ शास्त्रीयता को भी जोड़ें जिससे संगीत श्रोताओं पर अपना अप्रतिम प्रभाव छोड़ेगा और लंबे समय तक सुना जाएगा।

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