दस्तक-विशेष

नया निजाम सधी शुरुआत

ज्ञानेन्द्र शर्मा 

कहा जाता है कि अच्छी शुरुआत हो तो समझो आधा काम हो गया। संन्यासी से बने नेता और नेता से बने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने अपनी पारी बड़े सधे ढंग से शुरू की है और इस बात का ध्यान रखा है कि उनका कल आज पर हावी न हो और आने वाले कल के लिए मार्ग सुगम बने। यह बात अलग है कि उनका तेजतर्रार कल, आज पर रह रहकर सवारी करेगा और इसलिए आगे आने वाले कल तक की उनकी राजसी सवारी बहुत मखमली नहीं होगी। नौकरशाही, पुलिस, राजनीतिक तंत्र की हीलाहवाली, सुुस्त चाल और भ्रष्ट तौर तरीके हर किसी सरकार के मार्ग को पथरीला बनाते हैं। योगी जी की इन्हीं मुद्दों पर परीक्षा होनी है और 75 प्रतिशत यानी विशेष योग्यता वाले नम्बरों से नीचे उनका पास होना लोगों को मंजूर नहीं होगा, चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की आशातीत सफलता ने बेहिसाब उम्मीदें प्रदेश के नागरिकों के दिलोदिमाग में जो जगाई हैं।
योगी जी के ऊपर भारी दबाव होगा। अपनी पुरानी छवि से बाहर निकलने का भी और लोगों की भाजपा से जुड़ गई आशाओं पर खरा उतरने का भी। इसी सारी पृष्ठभूमि में उन्होंने अपनी पारी की शुरुआत बहुत ठोस ढंग से करने की कोशिश की है लेकिन ऐसा तो सभी नए मुख्यमंत्री करते हैं। ऐसा तो हर उस वक्त होता है जब नई सरकारें पदारूढ़ होती हैं। नई सरकार के आते ही बाबू मुस्तैदी से काम करने लगते हैं, कानून का राज स्थाापित करने में जुट जाते हैं, अपनी काबलियत दिखाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं और हां, अपने को ईमानदार साबित करने के जतन भी करने लगते हैं।
नए मुख्यमंत्री के साथ दिक्कत यह है कि न तो उन्हें खुद शासन-प्रशासन का कोई अनुभव है और न ही उनके दो उप मुख्यमंत्रियों को। तो ऐसे दो उप मुख्यमंत्री उनकी क्या मदद कर पाएंगे? वैसे उप मुख्यमंत्री की नियुक्ति उन सरकारों में की जाती है जो पूर्ण बहुमत के अभाव में मिलीजुली सरकार के रूप में पदारूढ़ होती हैं। आम तौर पर उप मुख्यमंत्री का पद एक अंतर्निहित समझौते के तहत किया जाता है, जिसके द्वारा ज्यादा विधायकों वाला दल अपेक्षाकृत कम विधायकों वाले घटल दल को खुश रखने के लिए दरियादिली दिखाता है। सबसे पहले चौधरी चरण सिंह ने मुख्यमंत्री बनने के साथ ही मिलीजुली सरकार के दूसरे बड़े घटक-जनसंघ के नेता राम प्रकाश गुप्ता को उप मुख्यमंत्री नियुक्त किया था। यह बात उस समय की है जब 1967 में चौधरी चरण सिंह कांग्रेस को छोड़कर अलग हो गए थे और संविदा सरकार बना ली थी। अभी जबकि भारतीय जनता पार्टी को 312 (और अपने दो घटक दलों को मिलाकर 325) सीटें मिली हैं, उप मुख्यमंत्री और वह भी दो-दो अनुभवहीन उप मुख्यमंत्री बनाने का कोई तुक नहीं था। यह बात अधिकृत तौर पर कही गई है कि दो उप मुख्यमंत्रियों की मांग खुद योगी जी ने भाजपा हाईकमान के सामने रखी थी। जब ऐसा हुआ था तो यह माना जा रहा था कि नए मुख्यमंत्री ज्यादातर सरकारी कामकाज अपने इन उप मुख्यमंत्रियों के जिम्मे कर देंगे और खुद को सब पर निगरानी रखने और जनता से किए गए चुनावी वादों को पूरा करने से लेकर राजनीतिक तंत्र को कसने तक के कामों में लगेंगे। लेकिन जब विभागों का बंटवारा उन्होंने किया तो 36 विभाग अपने पास रख लिए और उप मुख्यमंत्रियों को सिर्फ लोक निर्माण व शिक्षा विभाग देकर निपटा दिया। जो विभाग मुख्यमंत्री ने अपने पास रखे उसमें गृह विभाग, सामान्य प्रशासन, नियुक्ति और गोपन जैसे विभाग भी शामिल हैं। योगी जी के विभागों की संख्या उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मात्र 14 कम है। श्री यादव के पास 50 के करीब विभाग थे और उनके पास कोई उप मुख्यमंत्री नहीं था। यह समझना बहुत मुश्किल है कि दो उप मुख्यमंत्री अपने इन विभागों का काम देखने के अलावा और क्या ऐसा काम करेंगे, जिनसे मुख्यमंत्री की मदद हो और उनकी इन पदों पर नियुक्ति को औचित्यपूर्ण ठहराया जा सके।
पता नहीं भाजपा ने अब तक इस बात का विश्लेषण ठीक से किया है कि नहीं कि वे आखिर इतनी सारी सीटें कैसे जीत गए। उनके दिग्गज नेता आखिर तक कहते रहे कि हम दो-तिहाई बहुमत से जीतेंगे लेकिन उनकी झोली में आ गया तीन-चौेथाई बहुमत। यह कैसे संभव हुआ? हार की समीक्षा तो हर कोई करता है लेकिन जीत की समीक्षा भी होनी चाहिए। भाजपा को इस बात का विश्लेषण करना चाहिए था कि उसे प्रदेश की जनता ने इतनी बड़ी ताकत क्यों और कैसे दे दी। ऐसा लगता है कि भाजपा यह मानकर चल रही है कि जो वोट उसे मिला है वह केवल और केवल सकारात्मक था यानी केवल उसके गुण देखकर दिया गया है। उसमें नकारात्मकता नहीं थी। वह अपनी मूॅछें मरोड़ना चाहे और छाती और फुलाना चाहे, भले ही फुला ले लेकिन वास्तविकता यह है कि दुनिया भर में लोग अपना वोट किसी को जिताने के लिए कम, हराने के लिए ज्यादा देते हैं। भाजपा को इस बात पर गौर करना चाहिए था कि आखिर सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की इतनी करारी हार क्यों हुई? सबने उसे जिताने भर के लिए वोट दिए या कि समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भी वोट डाले गए?
यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि समाजवादी पार्टी को हराने की ठाने बैठे लोगों के सामने एक स्पष्ट विकल्प था- भारतीय जनता पार्टी का विकल्प। भाजपा के नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने सपा सरकार की खामियों, कमियों, ज्यादतियों, भेद भरी नीतियों का हवाला दे देकर अपने लिए वोट मांगे थे। यह क्यों न मान लिया जाय कि श्मशानघाटों व कब्रिस्तानों और उससे जुड़ी रीति-नीतियों जैसी बहुत सारी बातों के चलते आम जनता ने सपा सरकार से किनारा किया और बेहतर विकल्प देने का वादा करने वाली भाजपा को चुना।
यह मैं इसलिए भी कह रहा हूॅ कि जब तक इन कारणों की पहचान भाजपा नहीं करेगी, वह बेहतर प्रशासन कैसे देगी? आम नागरिकों से पास एक बड़ा तराजू होता है, उनकी सूंघने की शक्ति बहुत तेज होती है, उनका सब्र का प्याला बहुत जल्दी भरता है और जैसा कि डा. लोहिया ने कहा था जिन्दा कौमें 5 साल का इंतजार नहीं करतीं। लोग अब सालाना इम्तिहान की भी प्रतीक्षा नहीं करते, वे छमाही परीक्षा के रिजल्ट कार्ड में भी अच्छे नम्बर देखना चाहते हैं। सो योगी जी को भी छमाही परीक्षा देनी पड़ेगी।
अपने कार्यकाल के पहले छ: महीनों में क्या करके दिखाना होगा आदित्यनाथ योगी को, इस बात पर गौर करते हैं:
कार्य- संस्कृति: पिछले कई सालों से उत्तर प्रदेश की सरकारें अपना सामान्य कामकाज निपटाने के लिए कोई ठोस कार्यसंस्कृति विकसित नहीं कर पाईं- कभी राजनीतिक अस्थिरता के चलते तो कभी इच्छा शक्ति के अभाव में। कुछ सरकारों ने पैमाने बनाए लेकिन वे टूटते ही रहे और कोई कुछ नहीं कर पाया। 2007 के बाद से पिछले दस सालों में पूर्ण बहुमत की सरकारें रहीं लेकिन वे मील के नए पत्थर स्थापित करना तो दूर पुरानों पर पहुंचने में ही थक गईं। मायावती सरकार में पूरी तरह से एकपक्षीय शासन चला और सब कुछ मुख्यमंत्री के छोर पर केन्द्रित हो गया। दूसरी तरफ अखिलेश यादव की 2012 में आई लगातार दूसरी पूर्ण बहुमत वाली सरकार में सब कुछ विकेन्द्रित हो गया। पहले तीन साल में मुख्यमंत्री का पद छिन्न-भिन्न हो गया और सत्ता के कई केन्द्र बन गए तो बाद के दो सालों में इस सबसे बाहर निकलने की ललक ने सब कुछ पटरी से उतार दिया: नेता व कार्यकर्ता उच्छृंखल हो गए, नौकरशाह पैसा बटोरने और छुटभैयों के जरिए अपने पदों पर टिके रहने का महारत हासिल करने में जुट गए और मुख्यमंत्री फिल्मी स्टारों के साथ फोटो खिंचाते रहने में इतने व्यस्त हो गए कि उन्हें यह तक याद नहीं रहा कि वे कुछ लाख नहीं, पूरी 21 करोड़ जनता की रहनुमाई कर रहे हैं। हालत यह हो गई कि मुख्यमंत्री के आदेश भी अनसुने, अक्रियान्वित होते चले गए। अब ऐसे में अगर लोग उत्तर प्रदेष को ‘उल्टा’ प्रदेश कहने लग जाएं तो कोई क्या कर सकता है। अब सवाल यह है कि भारी बहुमत से सुसज्जित नए मुख्यमंत्री क्या कोई नई कार्य संस्कृति विकसित कर पाएंगे?
नौकरशाही: यह कहा जाता है कि नौकरशाह अपने कैरियर से बड़ा किसी चीज को कुछ नहीं समझता और उत्तर प्रदेश में काम करने वाले अधिसंख्य नौकरशाहों ने यह पाठ अच्छी तरह याद कर लिया है कि कैसे ‘मालिक’ को खुश रखा जाय और कैसे अपनी सत्ता नाम की ‘मालकिन’ को अपनी चेरी बनाकर रखा जाय। दूसरी तरफ नौकरशाहों को दाहिनी साइड में रखने का एक ही फार्मूला राजनीतिक शहंशाहों ने आजमाया। उनकी नजर में टेढ़े-मेढ़े अफसरों के तबादले कर दिए गए और बार बार तबादले किए गए। अपने चहेतों को हर सरकार ने आगे बढ़ाया। चहेते यानी वे जो ‘यशमैन’ हों, गलत काम करने में मदद करें ओर पैसा कमाकर भी दें। जिलों जिलों में बैठे छुटभैए राजनीतिकों ने इसका भरपूर लाभ लिया और जब नरेन्द्र मोदी कहते थे कि पुलिस थानों को सपा के कार्यालयों में बदल दिया गया था, तो वे कुछ भी गलत नहीं कहते थे।
नौकरशाहों का सारा ध्यान इस बात में लग गया कि कैसे मलाईदार पद हासिल किए जाएं। ऐसे न जाने कितने जिले हैं जिनके जिला मजिस्ट््रेट पिछली सरकारों में 100-100 करोड़ रुपए कमाकर निकल गए। उत्तर प्रदेश के आई0ए0एस0 अफसरों की एसोसिएशन के एक एक्षन गु्रप ने 23 अप्रैल 2005 को अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि हर साल देश में 32 हजार करोड़ रुपए घूस में दिए जाते हैं। एक्षन गु्रप ने यह आंकड़ा पूरे दश के लिए दिया था लेकिन उनकी रिपोर्ट में जहॉ ‘देश’ लिखा है उसे ‘प्रदश’ पढ़ लिया जाय तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होगा। इस रिपोर्ट में एक बात और भी पते की कही गई थी। इसमें उसने मांग की थी कि आला अफसरों की सम्पत्ति का जो व्योरा वे जमा करते हैं, उसकी जॉच मुख्य सतर्कता आयोग करे और ऐसी सम्पत्ति को जब्त कर ले जो सम्बंधित अधिकारी के मान्य आय स्रोतों से अधिक हो। आपको स्मरण होगा कि 14 फरवरी 2014 को आईएएस वीक के दौरान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने दावा किया था कि उन्होंने एक अफसर से घूस की रकम काम न होने पर वापस कराई थी। उन्होंने बताया था कि एक जानने वाले का काम था, वह अफसर के पास गया तो उसने घूस मांग ली। काम नहीं हुआ तो उन्होंने घूस की रकम वापस कराई और अफसर को हटा दिया। उनका कहना था कि भलमंसाहत में उन्होंने और कोई कार्रवाई उस अफसर के खिलाफ नहीं की। यह था नौकरशाही का चेहरा और वह भी मुख्यमंत्री के दर्पण में। तो योगी जी क्या करेंगे? दर्पण को गलत बताएंगे या उसमें दिखने वाली सूरत को?
तबादले: तबादले उत्तर प्रदेश में एक बड़ा उद्योग हैं। कई स्तरों पर इस पर चर्चा हुई, कानूनी समीक्षा हुई, वादे-इरादे व्यक्त किए गए लेकिन हुआ क्या, जरा केन्द्र सरकार का बयान सुनिए:- केन्द्र के अफसरों वाले प्रशासनिक विभाग- डी0ओ0पी0टी0 ने जुलाई 2014 में कहा था कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने नौकरशाहों के ट्रांसफर-पोस्टिंग पर केन्द्रीय सरकार और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदशों का पालन नहीं किया है। जुलाई 2014 में ही यह बताया गया कि राज्य सरकार ने एक महीने में 300 अधिकारियों के तबादले कर दिए। सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत दी गई एक जानकारी से मई 2013 में पता चला कि 43 ऐसे आई0पी0एस0 अधिकारी हैं जिनका उनके कैरियर में 40-40 बार तबादला किया गया। यह भी बताया गया कि उत्तर प्रदेश में आई0पी0एस0 अधिकारियों का औसत कार्यकाल ढाई महीने है। प्रधानमंत्री ने भाजपा के सांसदों को हिदायत दी है कि वे तबादले-पोस्टिंग के लिए मुख्यमंत्री पर दवाब न डालें। तो क्या नए मुख्यमंत्री अब गुण दोष के आधार पर अफसरों की काबलियत पहचानने का कोई मानक तैयार कर पाएंगे?
इन दिनों पुलिस बड़े सक्रिय मोड में है। वह ‘रोमियो’ पकड़ रही है, बूचड़खाने बंद करा रही है और लोगों को कानून का पाठ पढ़ा रही है। उसके अति उत्साह ने तमाम बच्चों की मुसीबत कर दी और ऐसे कत्लगाह भी बंद करा दिए जो कानूनी दायरे में चल रहे थे। अब तक छेड़खानी की शिकायतों को पुलिस बकवास समझती थी, वह अब कहती है कि वह छेड़खानी करने वालों को उनकी नजर से पहचान लेते हैं। जो बूचड़खाने गैर-कानूनी ढंग से चल रहे थे, उन पर अब सत्ता परिवर्तन के बाद ही पुलिस की नजर क्यों गई? रोमियो को तो पुलिस उसकी नजर से पहचान लेती है लेकिन पुलिस को उसकी नजर से कौन पहचानेगा? क्या नए मुख्यमंत्री यह कर पाएंगे?
ये आंकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि अफसर और उनके विभिन्न विभाग मुख्यमंत्री कार्यालय तक की परवाह नहीं करते। योगी जी का इस मामले में रिकार्ड जल्द ही सबके सामने आ जाएगा।
मुख्यमंत्री का दबदबा: मुख्यमंत्री का कितना दबदबा होता है? खुद अखिलेश यादव ने बताया था कि कैसे उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए एक अफसर द्वारा ली गई घूस वापस कराई थी। लेकिन एक और रिपोर्ट सच पर से पूरा पर्दा हटा देती है। सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई एक सूचना में बताया गया था कि मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा विभिन्न सरकारी विभागों को संदर्भित मामलों में से बहुत कम ही का निपटारा हो पाता है। अखिलेश सरकार के जमाने में कई सांसद औेर विधायक तक यह शिकायत करते पाए गए थे कि मुख्यमंत्री कार्यालय को दी गई उनकी अर्जियों का महीनों तक निपटारा नहीं होता। मायावती सरकार के समय मई 2007 से नवम्बर 2009 के बीच 79,086 अर्जियॉ विभिन्न सरकारी विभागों को अग्रसारित की गई थीं जिनमें से 48,217 का निपटारा हुआ था। अखिलेश सरकार के पहले साल में करीब 95 हजार अर्जियॉ अग्रसारित की गईं, जिनमें से केवल लगभग 4 हजार का निस्तारण हुआ था। मायावती सरकार के समय मुख्यमंत्री कार्यालय की ज्यादा हनक थी। उनके यहॉ से भेजी गई अर्जियों के निपटान का प्रतिशत करीब 61 था जबकि अखिलेश सरकार के समय पहले साल में यह घटकर 4.18 प्रतिशत रह गया। ये आंकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि अफसर और उनके विभिन्न विभाग मुख्यमंत्री कार्यालय तक की परवाह नहीं करते। योगी जी का इस मामले में रिकार्ड जल्द ही सबके सामने आ जाएगा।
नोयडा की दुर्गति: उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास को मापने का एक ही पैमाना है और वह है कि नोयडा की प्रगति। लेकिन पिछले एक दषक में राजनीतिकों और वहॉ बैठे अफसरों ने उसकी इतनी दुर्गति कर दी कि वह अपनी पहचान लगभग खो बैेठा है। भ्रश्टाचार, श्रमिक अशांति, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, आधारभूत ढॉचे को समुचित गति से विकसित नहीं किया जाना और नए उद्योगों को आकर्षित करने के लिए युद्ध स्तर पर काम न किया जाना नोयडा के विकास को अवरुद्ध करने में सहायता कर रहे हैं। ऊपर से मुख्यमंत्रियों द्वारा नोयडा का दौरा करने को अपशकुन माना जाना एक अलग अभिशाप बन गया। अब अगर प्रदेश का औद्योगीकरण करके रोजगार के साधन बढ़ाने हैं तो सबसे पहले नोयडा का उपचार करना पड़ेगा। यह शुद्ध मन और दृढ़ इरादे से ही संभव है। चुनौतियॉ कम नहीं हैं। हालॉकि योगी जी के इरादे भी फिलहाल तो कमजोर नहीं दिखते।

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